हिंदू राष्ट्रवाद को चुनौती देना चाहते हैं ये दलित ब्रैंड्स




दलित ब्रैंडः 'हमने गाली को ब्रैंड में बदल दिया'

दक्षिण मुंबई में एक महंगे रीटेल स्टोर में जिस समय शहर के संपन्न लोग दलित उद्धार और 'बहिष्कृत लोगों' व फ़ैशन की दुनिया के मेल पर बात कर रहे थे, 32 साल के सचिन भीमा सखारे बाहर एक कोने में खड़े थे.
ये सब हो रहा था बीते पाँच दिसंबर को. सचिन भीमा सखारे बताते हैं कि स्टोर में हुए इवेंट में 'चमार फ़ाउंडेशन' के सदस्यों द्वारा बनाए गए रबर के 66 बैग बिके.
भीमा सखारे जानवरों की खाल से जुड़े काम करने वाले अनुसूचित जाति से उन 10 सदस्यों में से एक हैं जो सब्यसाची, राहुल मिश्रा और गौरव गुप्ता जैसे डिज़ाइनर्स के साथ एक प्रोजेक्ट के लिए जुड़े हैं. इस प्रोजेक्ट के तहत ही ये चुनिंदा ख़ास बैग तैयार किए गए थे.

कार्यक्रम की तस्वीर
Image captionएक ख़ास प्रोजेक्ट के तहत लॉन्च किए गए ये प्रोडक्ट

इनकी बिक्री से मिलने वाला पैसा हाल ही में शुरू किए गए चमार फ़ाउंडेशन को जाएगा जो वकोला और सैंटा क्रूज़ में डिज़ाइन स्टूडियो खोलेंगे.
यहां महिलाओं और पुरुषों को 'चमड़े की सिलाई' की बारीकियों की ट्रेनिंग दी जाएगी और फ़ाउंडेशन के रबर बैग बनाने के काम से जोड़ा जाएगा. इन बैगों में 'मेड इन स्लम्स' की टैगलाइन लगी होगी.

सचिन भीमसखारे
Image captionसचिन भीमा सखारे

इसका मक़सद अपमानजनक समझने जाने वाले जातिसूचक शब्द 'चमार' को फ़ैशन ब्रैंड बनाकर उसका गौरव बढ़ाना है. भारत के सुप्रीम कोर्ट ने अनुसूचित जाति के लिए 'चमार' शब्द इस्तेमाल करने को प्रतिबंधित किया हुआ है.
भीमा सखारे कहते हैं, ''चमार मतलब चमड़ा, मांस और रक्त. ये सब हर जीव का हिस्सा हैं. फिर हमारे काम की वजह से क्यों हमें हेय दृष्टि से देखा जाता है?"

शोरूम में रखे गए बैग

दलित ब्रैंड और दलित चेतना
बहुजन शॉप से लेकर जय भीम ब्रैंड और रबर के बैगों के ज़रिये देशभर में नए आर्थिक मॉडल के तहत दलित पहचान को स्थापित करने की कोशिश की जा रही है.
यह नया आर्थिक मॉडल इस विश्वास पर आधारित है कि अगर दलित समुदाय दलित पहचान वाले उन ब्रैंड्स को स्वीकार करता है जो दलितों द्वारा बनाए गए हैं तो इससे मिलने वाला पैसा दलित समुदाय के लोगों को आर्थिक स्वतंत्रता देगा और उन्हें सियासी फलक में भी अपनी जगह बनाने में आसानी होगी.
पिछले कुछ सालों में उभरे दलित ब्रैंड भारत की जाति व्यवस्था को चुनौती देने और सांस्कृतिक संबंधों को मज़बूत करने के लिए राजनीति और अर्थव्यवस्था का मिश्रण कर रहे हैं. इसके लिए एक रणनीति के तहत अपने समुदाय के साथ जुड़े 'जय भीम' और 'बहुजन' जैसे शब्दों को इस्तेमाल किया जा रहा है.

उत्पाद
Image caption'जय भीम' और 'बहुजन जैसे नामों वाले कई उत्पाद उपलब्ध हैं

2014 के चुनावों को बहुत से दलित हिंदुत्ववादी ताक़तों की जीत के रूप में देखते हैं. इन चुनावों के बाद से उनमें अलग-थलग पड़ जाने का डर महसूस किया जा सकता है.
दलित समुदाय के लोगों का कहना है कि राजनीतिक ध्रुवीकरण और दलित मध्यमवर्ग के उदय के कारण ही दलित ब्रैंडिंग का उदय हुआ है.
दलित लेखक और समाजसेवी चंद्रभान प्रसाद कहते हैं, "यह दलितों द्वारा अपनी मौजूदगी दर्ज करवाने की कोशिश का एक नया रूप है. 2014 में हिंदुत्व की जीत समाज को फिर से बांट रही है और दलितों को अलग-थलग कर दिए जाने का एक नई क़िस्म का डर पैदा हो गया है. इसलिए 'बी दलित, बाय दलित' जैसी ब्रैंडिंग आधुनिक दलित चेतना का प्रतीक बन रही है."
सुधीर राजभर उत्तर प्रदेश के जौनपुर से हैं और भर समुदाय से ताल्लुक़ रखते हैं. वह चमार स्टूडियो और चमार फ़ाउंडेशन के संस्थापक हैं. उनका इरादा अपने लेबल के माध्यम से फ़ैशन के क्षेत्र में दाख़िल होना है. लंबे समय तक इसमें बने रहने के लिए उन्होंने चमड़े की जगह रबर इस्तेमाल करने की रणनीति अपनाई है.
वह कहते है कि जब चमड़े पर पारंपरिक ढंग से की जाने वाली सिलाई वाले उनके डिज़ाइन लग्ज़री फ़ैशन की दुनिया में लेटेस्ट ट्रेंड बनते हैं तो यह तथाकथित 'अछूतों' द्वारा सहे गए तिरस्कार का सबसे बढ़िया 'न्याय' होता है.

बैग

किसके पास कितनी संपदा

आदि-दलित फ़ाउंडेशन के रिसर्च विभाग का अनुमान है कि भारत में 30 लाख से अधिक दलित सरकारी कर्मचारी हैं. ये संख्या केंद्र और राज्य सरकारों और अन्य सरकारी विभागों की है और इनकी कमाई लगभग 3 लाख 50 हज़ार करोड़ रुपये अनुमानित है.
भारत का संविधान अपने निदेशक सिद्धांतों में समानता का ज़िक्र करता है और 'अस्पृश्यता की परंपरा' के कारण 'बेहद पिछड़ी' जातियों की सूची (अनुसूची) को विशेष सुरक्षा और लाभ भी देता है.
भारत में अस्पृश्यता ग़ैरक़ानूनी है. भारत की लगभग 17 प्रतिशत आबादी अनुसूचित जातियों से है.
सावित्रीबाई फुले पुणे यूनिवर्सिटी, जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी और इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ दलित स्टडीज़ ने 2015 से 2017 तक 'वेल्थ ऑनरशिप एंड इनइक्वैलिटी इन इंडिया: अ सोशियो-रिलीजियस एनालिसिस' नाम का अध्ययन करवाया था. यह कहता है कि हिंदू अगड़ी जातियों से संबंध रखने वाली आबादी के पास अनुसूचित जाति में दर्ज लोगों की तुलना में क़रीब चार गुना अधिक संपदा है.
यह अध्ययन कहता है कि हिंदू अगड़ी जातियों के पास देश की कुल संपदा का 41 प्रतिशत है जबकि उनकी आबादी मात्र 22.28 प्रतिशत है. अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों की मिली-जुली संपदा 11.3 प्रतिशत है जबकि उनकी आबादी 27 प्रतिशत से अधिक है.
भारत का संविधान जाति आधारित भेदभाव को ग़ैरक़ानूनी बताता है मगर तथाकथित निचली जातियों के प्रति पूर्वाग्रह बना हुआ है.

आंबेडकर की प्रतिमाइमेज कॉपीरइटAFP

दलित ख़रीदारों पर आधारित मॉडल

28 दिसंबर को प्रसाद अपने पोर्टल bydalits.com के लिए एक फोटोशूट कर रहे थे जिसमें शामिल महिला और पुरुष मॉडलों ने काले कपड़े, चमड़े के हैट पहने थे और चमड़े के बैग पकड़े थे.
जल्द लॉन्च होने वाला यह ई-कॉमर्स पोर्टल दरअसल एग्रीगेटर है जहां दलितों द्वारा बनाई और दलित कारोबारियों द्वारा बेची जाने वाली चीज़ें मिलेंगी. इस पोर्टल पर कोट, हैट, जूते, चांदी के बने साबुनदानी और कपड़े समेत हर वो चीज़ बेची जाएगी जो भारत के मध्यमवर्गीय दलित समुदाय की अभिलाषाओं की प्रतीक हैं.
प्रसाद कहते हैं कि आंबेडकर के लिए सूट पहनना राजनीतिक प्रतिरोध और ख़ुद को स्थापित कर अपनी मौजूदगी मज़बूती से दिखाने का ज़रिया था. वह ऐसा करके उस समाज में जाति के आधार पर खड़ी दीवारों को तोड़ना चाहते थे, जिस समाज में ऐसे भी नियम थे कि दलित कौन से कपड़े पहन सकते हैं, कौन से नहीं.
प्रसाद अपने पोर्टल और कपड़ों के ब्रैंड 'ज़ीरो प्लस' के ज़रिये अत्याचारों और उत्पीड़न को चुनौती देना चाहते हैं. वह इसके ज़रिये दलितों के बीच उद्मता को बढ़ावा देना चाहते हैं ताकि दलित मिडिल क्लास जो पैसा कमाए, उनमें से कुछ दलित समुदाय के पास ही रहे.

लेदर प्रॉडक्ट

वह आंबेडकर की ओर इशारा करके कहते हैं, "उनका अनुसरण कीजिए, उनकी तरह कपड़े पहनिए. अच्छे कपड़े पहनना मनुस्मृति को जलाने के ही समान है. दोनों को साथ किया जाए तो और बेहतर."
प्रसाद कहते हैं, "साड़ी दासता का प्रतीक है. मैं चाहता हूं कि दलित महिलाओं में आत्मविश्वास हो और वे जैकेट व कोट पहनें. बाइदलित दलितों की चीज़ों वाले प्लेटफॉर्म के तौर पर उभर रहा है."
वह कहते है, "1950 में भारत के गणतंत्र बनने पर इस बात को लेकर सहमति बनी थी कि दलितों और आदिवासियों को समान अवसर देते हुए मुख्य धारा में लाया जाएगा. मगर अब इस भावना के कमज़ोर होने के जवाब में हम यह पहल कर रहे हैं. दलित मध्यमवर्ग के उदय के साथ हिंदू समाज दलितों को लेकर ईर्ष्यालु सा हो गया है और बीते हुए कल को उसके भविष्य के आगे लाकर खड़ा कर दे रहा है."

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मायावती और पर्स

दलित गौरव के प्रतीक के रूप में उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती की प्रतिमाएं बनाई गई थीं. उनका पर्स अपनी पहचान और स्टेटस को दिखाने का एक ज़रिया माना गया.
मायावती ने पहचान की राजनीति के केंद्र पर चोट की है. पर्स को शाही जीवनशैली वाली चीज़ माना जाता रहा है और दलित महिला के पास इसकी मौजूदगी को लेकर उनके समर्थकों में ख़ुशी का भाव रहा है.
पर्ल अकैडमी की अध्यक्ष नंदिता अब्राहम कहती हैं, "यूपी की पूर्व सीएम मायावती का पोनीटेल से लेकर 'मेमसाब' बॉब कट, डिज़ाइनर हैंडबैग्स, हीरे के इयररिंग, पिंक सलवार-क़मीज़ और उनकी पसंद की अन्य चीज़ें दलित सशक्तीकरण की महत्वाकांक्षाओं से मेल खाती हैं. मायावती के समर्थकों, ख़ासकर दलित समुदाय से संबंध रखने वाले समर्थकों के बीच यह गर्व और उपलब्धि भरी बात मानी जाती है कि उनकी जीवनशैली ऐसी है जो पहले अगड़ी जातियों के लोगों की ही मानी जाती थी."
प्रसाद भी यही मानते हैं कि इन महत्वाकांक्षाओं को ब्रैंड्स, अवसरों और फिर आत्मनिर्भरता और राजनीतिक ताक़त में बदला जा सकता है.

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बाज़ार से समाज बदला जा सकता है?

17 जून को दलित समुदाय से संबंध रखने वाले प्रशांत सोलंकी पर इसलिए हमला किया गया क्योंकि वह अपनी शादी पर सजी हुई घोड़ी पर बैठे थे. पिछले साल आई एक ख़बर के अनुसार, गुजरात में 13 साल के एक किशोर की इसलिए पिटाई कर दी गई क्योंकि वह चमड़े के जूते और जीन्स पहने हुए था.
अगस्त 2019 में तमिलनाडु के कुडलकोरे ज़िले में 20 साल के दलित युवक को चश्मा लगाने और बाइक चलाने पर पीट दिया गया. दिसंबर में गुजरात के कच्छ में एक दलित युवक पर 'पठानी सूट' पहनने पर हमला कर दिया गया.
ऐसी कई घटनाएं हैं जिनमें दलित समुदाय के लोगों को ऐसे कपड़े पहनने या चीज़ें इस्तेमाल करने पर हमले का शिकार होना पड़ा जिन्हें हमलावरों ने उनकी 'जाति और स्तर' से ऊपर माना.
प्रसाद को उम्मीद है कि बाज़ार की ताक़त से सामाजिक बदलाव हो सकता है. वह कहते हैं कि दलित ब्रैंड पहचान स्थापित कर रहे हैं. प्रसाद का मानना है कि ''अमरीका के ब्लैक मूवमेंट जैसे अंतरराष्ट्रीय संघर्षों के अनुरूप दलित भी अपने अधिकारों के लिए मज़बूती से लड़ सकते हैं. एक शोध के अनुसार, अफ़्रीकी-अमरीकी और हिस्पैनिक लोग ख़रीदारी करते समय ब्रैंड्स में सांस्कृतिक कनेक्शन देखते हैं."
प्रसाद कहते हैं, "यह एक तरह से हिंदू राष्ट्रवाद को ख़ारिज करके इसकी जगह पश्चिमी संस्कृति को लाना है जो कि अधिक समतावादी है. हमारा टारगेट कंज्यूमर दलित मिडिल क्लास है. अगर आप हिंदुत्व के ख़िलाफ़ हैं तो हमारे उत्पाद ख़रीदिए."

अंग्रेज़ी देवी

क्या ब्रैंडिंग से चल जाएगा काम?

बाज़ार में 'ब्राह्मण' ब्रैंड भी हैं. जैसे कि ब्राह्मण मसाले या फिर 'ब्राह्मण फ़ूड्स' चेन की वेबसाइट जो कि बिना मीट वाला खाना देती है और जाति को खाने से जोड़ती है. पहचान से जुड़ी राजनीति के इस दौर में पहचान भी मार्केटिंग स्ट्रैटिजी का हिस्सा बन गई है.

ब्राह्मण ब्रैंड नेम वाले उत्पाद भी हैं मौजूद
Image captionब्राह्मण ब्रैंड नेम वाले उत्पाद भी हैं मौजूद

मगर सामाजिक न्याय के नाम पर भी चीज़ों की बिक्री हो सकती है या नहीं, यह देखना अभी बाक़ी है. स्कूल ऑफ़ आर्ट्स एंड अस्थेटिक्स में पढ़ाने वाले प्रोफ़ेसर वाई.एस. अलोन कहते हैं कि अर्थशास्त्र में भावनाओं से मदद नहीं मिलती.
वह कहते हैं, "सिर्फ़ ब्रैंडिंग से काम नहीं चलता. जो लोग इससे जुड़े हुए हैं वे इकोनोमिक स्पेस में अपनी मौजूदगी दर्ज करवाना चाहते हैं. जय भीम, आंबेडकर और महात्मा फुले जैसे शब्दों को उत्पादों के साथ जोड़ना इन हस्तियों का अपमान है क्योंकि इन लोगों ने बदलाव का दर्शन दिया था और लोगों को लोकतांत्रिक मूल्यों की ओर प्रेरित किया था."
एन.के. चंदन दलित हैं और उन्होंने ग़ाज़ियाबाद में चंदन एंड चंदन इंडस्ट्रीज़ प्राइवेट लिमिटेड की स्थापना की है. वह कहते हैं कि वह बाइदलित्स.कॉम पर प्लास्टिक के डब्बे बेचना चाहते हैं. वह इस पहल का समर्थन तो करते हैं लेकिन उनकी चिंताएं भी हैं. ये चिंताएं इस कारण हैं क्योंकि भारत में अस्पृश्यता अभी भी बरक़रार है.
वह कहते हैं, "लोगों में ऐसी धारणा है कि दलित जो भी बनाएंगे वह घटिया क़िस्म का होगा. और वे उसे नहीं ख़रीदेंगे क्योंकि छोटी जाति के लोगों ने इसे बनाया है. उदाहरण के लिए आंबेडकर जयंती पर अगर आप लंगर लगाएं तो वहां खाने कौन आएगा? और सत्ताधारी दलित पार्टी के कितने लोग सभाओं में जय भीम का नारा लगाते हैं?"
चंदन का यह भी कहना है कि प्रसाद ने इन ब्रैंड्स के समर्थन में जिस केस स्टडी का ज़िक्र किया है वह स्टडी किसी और देश में हुई थी और यह भी एक तरह की राजनीति है."

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अंग्रेज़ी देवी से 'बाइदलित' वेबसाइट तक
गोवा के पणजी में ओल्ड जनरल मेडिकल कॉलेज की बिल्डिंग के एक कमरे में पुजारी की तरह बैठे हैं. काले रंग के चार स्तंभों के साथ लकड़ी का एक अस्थायी मंदिर बना है जो 'लुक आउटसाइड दिस हाउस' नाम की एक प्रदर्शनी का हिस्सा है.
मुंबई के एक कलाकार सुदर्शन शेट्टी ने गोवा में हुए सेरेंडिपिटी आर्ट्स फेस्टिवल में इसे बनाया था. इसमें कांसे की 30 इंच की प्रतिमा है जिसके हाथों में कीबोर्ड और पेन जैसी चीज़ें हैं. इसके एक हाथ में भारत का संविधान भी है. अंग्रेज़ी देवी के मंदिर में आप जूते पहनकर भी जा सकते हैं.
इस देवी के बाल सुनहरे हैं और अमरीका की स्टैचू ऑफ़ लिबर्टी से मेल खाती है. नौ साल पहले प्रसाद ने इंग्लिश देवी की ऐसी ही प्रतिमा उत्तर प्रदेश के बांदा ज़िले में भी लगाई है. वह कहते हैं कि एक ऐसी देवी की ज़रूरत थी.
अंग्रेज़ी देवी को दलित पहचान की ब्रैंडिंग का पहला प्रयास माना जा सकता है. इसके लिए साड़ी में दिखने वालीं हिंदू देवियों के विपरीत गाउन चुना गया. प्रसाद कहते हैं कि टेंपल प्रोजेक्ट का फिर से उभरना उनके नए उपक्रम बाइदलित्स डॉट कॉम को प्रोत्साहन देता है.
वेबसाइट कहती है कि पोर्टल का मक़सद 'दलित ब्रैंड्स को प्रमोट करना, दलित वेल्थ बनाना और जाति आधारित प्रभुत्व को नष्ट करना' है. इसका इरादा वंचित लोगों की महत्वाकांक्षाओं को प्रतिबिंबित करने वाली चीज़ों को बेचने का है.
अभी तक इस ई-कॉमर्स पोर्टल को आधिकारिक रूप से लॉन्च नहीं किया गया है मगर प्रसाद का दावा है कि पिछले एक महीने में इसके ज़रिये एक लाख रुपये की चीज़ें बेची जा चुकी हैं.

अंग्रेज़ी देवी
Image captionअंग्रेज़ी देवी

अपने ब्रैंड लॉन्च कर रहे दलित उद्यमी

प्रसाद एक टेक्स्ट मेसेज लिखते हैं, "अलर्ट... बाइदलित्स डॉट कॉम पर महिलाओं के लिए जल्द आ रहा है ये हेयर-ऑन-क्रॉस-बॉडी बैग."
'हेयर-ऑन' वह लेदर प्रोसेसिंग तकनीक है जिसमें जानवरों के बाल चमड़े पर रह जाते हैं. इस तकनीक के बैग बना रही हैं दो दलित बहनें.
10 दिसंबर, 2019 को ये दोनों बहनें- आलिया (21 साल) और अवंतिका चौहान (20 साल) प्रसाद से मिली थीं. ये RAD नाम की कंपनी की मालिक हैं. कानपुर की यह कंपनी चमड़े की अक्सेसरीज़ बनाती है.

आलिया और अवंतिका की कंपनी के उत्पाद अमरीका में बिकते हैं
Image captionआलिया और अवंतिका की कंपनी के उत्पाद अमरीका में बिकते हैं

इन बहनों ने अपनी कंपनी फ़रवरी 2019 में पंजीकृत करवाई थी और अब वे अपनी चीज़ों को अमरीका निर्यात करती हैं जहां वे 'एंटीक' नाम से बिकती हैं. अर्जेंटीना की गाय के चमड़े से बनाए इनके जूते अमरीका में लगभग 14,500 रुपये में बिकते हैं.
अमरीकी बाज़ार के लिए चीज़ें निर्यात करने के लिए इन बहनों ने 30 कारीगर रखे हैं. अब इन बहनों ने अपने प्रोडक्ट्स को किसी और के ज़रिये बेचने की बजाय ख़ुद अपना ब्रैंड रजिस्टर करने की प्रक्रिया शुरू कर दी है.
आलिया कहती हैं, "हम जल्द बैग डिज़ाइन करेंगे. दलित ब्रैंड्स के कॉन्सेप्ट को हम पसंद करते हैं क्योंकि ये हमें अधिक स्वतंत्र और आत्मनिर्भर बनाएगा."

आलिया और अवंतिका की कंपनी के जूते
Image captionआलिया और अवंतिका की कंपनी के जूते

क्या है सोच

49 साल के सतीश कुमार ग़ाज़ियाबाद से हैं और बाइदलित्स.कॉम पर अपने उत्पाद बेचने के लिए राज़ी हुए दलित उत्पादकों में से एक हैं. उनका ब्रैंड है- सम्यक लेदर. पहले ही उन्होंने प्रसाद को लेदर कोट और स्कर्ट्स के 50 पीस प्रसाद को भेज दिए हैं.
वह कहते हैं, "यह लोगों को जागरूक करने का अच्छा तरीक़ा है. और मैं जानता हूं कि लोग इसका मज़ाक़ उड़ाएंगे मगर उन्होंने कांशीराम का भी मज़ाक़ उड़ाया था जिन्होंने बाद में देश की राजनीति का रुख़ बदल दिया था. अगर जय श्री कृष्ण धूप बत्ती हो सकती है तो हमारे पास अपने ब्रैंड क्यों नहीं हो सकते?"
61 साल के प्रसाद ने पहले dalitfoods.com भी शुरू किया था जो बाद में निजी कारणों से बंद करना पड़ा. प्रसाद आज़मगढ़ से हैं और पासी हैं.
जब प्रसाद ने 2016 में दलितफ़ूड्स.कॉम शुरू किया था तो वह आम का अचार, हल्दी, धनिया पाउडर वगैरह बेचते थे. वह ऐसा इकोनोमिक मॉडल तैयार करना चाहते थे जहां दलितों द्वारा बनाया गया खाना कोई भी ख़रीद सके. फिर ज़ीरो प्लस नाम से कपड़ों का ब्रैंड आया जो साल 2017 में पहली बार लॉन्च किया गया.
मार्केट में पहले से जय भीम और बहुजन स्टोर जैसे ब्रैंड हैं जो साबुन से लेकर टीशर्ट और मसाले बेच रहे हैं. जय भीम प्रोडक्ट्स को 2017 में लॉन्च किया गया था, बहुजनस्टोर.कॉम 2015 में अस्तित्व में आया था.

बहुजन स्टोर

दलित नारों के इस्तेमाल की आलोचना

2017 में हरियाणा के झज्जर से लॉन्च किया गया जय भीम प्रोडक्ट्स 'जय भीम' टैग वाले लगभग 12 उत्पाद तैयार करता है जिनमें आवला केश तेल और साबुन शामिल हैं.
कंपनी मुख्यालय राजस्थान के भिवंडी में है. कंपनी का दावा है कि उसके उत्पादों की क़ीमत पतंजलि के उत्पादों के बराबर ही है और यह दलित चेतना के उदय की प्रतीक है. कंपनी की टैगलाइन है- स्वाभिमान की बात, जय भीम की बात.
बिजेंदर कुमार भरतीया इसके संस्थापकों में से एक हैं और कहते हैं कि वह हैंडवॉश और डिटर्जेंट जैसे और उत्पाद भी बेचेंगे. महाराष्ट्र, हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और बिहार से लगभग 80 रीटेलर उनके साथ जुड़े हैं.
वह कहते हैं, "हम उद्ममिता को बढ़ावा देना चाहते थे. हम बीते हुए कल को लेकर रोने के बजाय गर्व के साथ भविष्य में आगे बढ़ना चाहते हैं. जब हमने शुरुआत की थी तो लोगों के मन में जय भीम नाम इस्तेमाल करने को लेकर कई चिंताएं थीं मगर हमने परवाह नहीं की."

जय भीम साबुन

जय भीम दरअसल जाति विरोधी आंदोलनों का नारा है. पहचान की राजनीति में बंटे देश में जय श्रीराम के नारे की ही तरह जय भीम का नारा दलित आवाज़ों को विचारधारा के स्तर पर प्रदर्शित करता है.
भरतिया कहते हैं कि दलित समुदाय ने तीन आंदोलन देखे हैं- राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक. मगर वह कहते हैं, "हमें आर्थिक आंदोलन की ज़रूरत है."
सामान बनाने वाले अपनी चीज़ों के विज्ञापन के लिए सोशल मीडिया को इस्तेमाल करते हैं. उन्होंने कुछ लोग जोड़े हैं जो हर रविवार को गांवों में दलित पहचान से जुड़ी राजनीति और उत्पादों को लेकर जागरूकता लाने की कोशिश करते हैं.
मगर आलोचनाओं के बावजूद दलित ब्रैंड्स ने मार्केट में अपनी मौजूदगी बरक़रार रखी है.
सहारनपुर की रविदास कॉलोनी में भीम आर्मी से जुड़े एक युवक ने 'बुद्ध भीम डिटर्जेंट' नाम से बिज़नस शुरू किया है. भीम आर्मी के सदस्य दलितों की आर्थिक स्वतंत्रता के पैरोकार हैं. यहां एक अन्य शख़्स ने 'भीम मसाला' नाम से कारोबार शुरू किया है.
इसके पीछे का तर्क बिल्कुल साधारण है कि अगर वे अपने लोगों के बीच इन चीज़ों को बेच रहे हैं जो कुल आबादी के चालीस फ़ीसदी हैं तो उन्हें आर्थिक स्वतंत्रता मिलेगी और इसी रास्ते सम्मान हासिल होगा.

बहुजन साबुन

बाधाएं भी हैं

मगर यह सब इतना आसान नहीं है. पाँच दिसंबर की शाम को मुंबई में एनसेंबल नाम के स्टोर पर नीलामी के लिए सचिन भीमसखारे और कुछ अन्य लोग अपने बेहतरीन कपड़े पहनकर जमा हुए थे.
भीमसखारे ने इस बात का ध्यान रखा था कि वह कुछ ज़्यादा ही अलग न लगें क्योंकि बाक़ियों की तरह लगना भी ज़रूरी था. शुरू में वह इस बात को लेकर निराश थे कि इवेंट के प्रमोटर्स ने शुरू में डाले गए सोशल मीडिया पोस्ट्स में उनका नाम डिज़ाइनर्स के साथ नहीं लिखा था.
वह कहते हैं कि शायद जाति व्यवस्था अजीब ढंग से काम करती है. मगर लॉन्च से पहले उनके नाम सोशल मीडिया पर अन्य डिज़ाइनर्स के साथ नज़र आ गए. सुधीर राजभर कहते हैं कि उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि नामों को वहां लिखा जाए.

एनसेंबल
Image captionएनसेंबल स्टोर में हुआ था कार्यक्रम

31 साल के भीमसखारे ने 2003 में एक सड़क हादसे में अपने पिता को खो दिया था. इसके बाद उन्होंने नौकरी छोड़ दी और अपने पिता की छोटी सी मोची की दुकान पर काम करना शुरू कर दिया. दिन में लगभग 100 रुपये की आमदनी से ही परिवार की देखभाल करनी होती थी.
उनके पिता नहीं चाहते थे कि बेटा भी यही पेशा अपनाए. स्टोर में हुए कार्यक्रम में उन्होंने कहा कि आज आख़िरकार वह ख़ुद को एक कलाकार, एक डिज़ाइनर के तौर पर महसूस कर रहे हैं. एक ऐसे शख़्स के तौर पर जिसकी मेहनत से बने बैग 10 हज़ार रुपये से अधिक में बिक रहे हैं.
सुधीर राजभर आर्टिस्ट हैं और ट्रेनिंग भी ली है. मुंबई की कांदीवली की झुग्गियों में पले-बढ़े और कुछ साल पहले पड़ोस में ही मोची का काम करने वाले भीमसखारे से मिले थे.
दोनों के बीच बातचीत हुई और पार्टनरशिप शुरू हो गई. 2015 में महाराष्ट्र में सांड़ को मारने पर रोक लगने के बाद लेदर प्रोडक्ट्स का गढ़ माने जाने वाली धारावी को बहुत झटका लगा था.
उसी समय राजभर ने चमार स्टूडियो शुरू करने के बारे में सोचा था जो रिसाइकिल्ड रबर से बैग और अक्सेसरीज़ बनाए और चमार स्टूडियो का टैग लगाकर उस शब्द का सम्मान वापस लाए. सुप्रीम कोर्ट ने चमड़े का काम करने वाले तथाकथित निचली जातियों के लोगों के प्रति अपमानजनक होने के कारण इसे प्रतिबंधित कर दिया था.
भीमसखारे बीएमसी के कचरा प्रबंधन विभाग में अंश-कालिक सुपरवाइज़र भी हैं. वह कहते हैं कि जब बैग के टैग में उनका नाम आया तो उन्हें गर्व महसूस हुआ. राजभर के लिए यह जाति के ऐतिहासिक बोझ से मुक्ति दिलाने जैसा था.

सचिन भीमसखारे
Image captionसचिन भीमसखारे (बाएं) बीएमसी में भी काम करते हैं

मुंबई में रहने वाले आर्ट कंसल्टेंट फ़राह सिद्दीक़ी ने इस प्रोजेक्ट में मदद की थी और रीटेल फ़ैशन चेन एनसेंबल ने मुंबई के कोलाबा इलाक़े में लायनगेट स्टोर पर लॉन्च रखा था. लेकिन इस इवेंट में जाति आधारित पहचान को इस्तेमाल करना आसान नहीं था.
शुरू में, चमार शब्द इस्तेमाल करने को लेकर प्रोजेक्ट में मदद करने वालों और प्रमोटर्स के मन में शंकाएं थीं. 1989 का क़ानून दलितों के प्रति अपमान करने के लिए 'चमार' शब्द इस्तेमाल करने, अपशब्द कहने, उनके शोषण और हिंसा पर अगड़ी जाति वालों के लिए छह महीने तक की सज़ा का प्रावधान करता है.
मगर अब ये सब लोग अपनी ब्रैंडिंग के साथ आगे बढ़ रहे हैं. कैलाश पंवार जोधपुर से हैं और जूते बनाते हैं. उन्होंने प्रसाद के पोर्टल के लिए 25 जोड़ी जूते भेजे हैं. उन्होंने अपने ब्रैंड को रजिस्टर करने में भी सहमति जताई है.

आलिया और अवंतिका
Image captionआलिया और अवंतिका जैसे कई दलित उद्यमी अब अपना ब्रैंड रजिस्टर कर रहे हैं

उम्मीद

उस रात मुंबई में कुछ बैगों के टैग में उन लोगों के नाम भी थे जिन्होंने ये बनाए थे. देश में राजनीतिक संघर्ष के उभार और हाल ही में आई संपदा, ताक़त और राजनीतिक दख़ल की बात करने वाली दलित चेतना की नई लहर के कारण ये बैग बिके.
भले ही इस लॉन्च पर जमा हुए लोग जातीय संघर्ष को नहीं समझते थे मगर वे सामाजिक न्याय की बहस में सही ओर खड़े होना चाहते थे.

कार्यक्रम की तस्वीर

सचिन भीमसखारे उस रात चेहरे पर मुस्कान लेकर कार्यक्रम से बाहर आए. वह कहते हैं, "समय आ गया है जब हम सब जगह छा जाएं."

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"बक्श देता है 'खुदा' उनको, ... ! जिनकी 'किस्मत' ख़राब होती है ... !! वो हरगिज नहीं 'बक्शे' जाते है, ... ! जिनकी 'नियत' खराब होती है... !!"

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