ओडिशा: दलित किशोरी के फूल तोड़ने से लेकर महीनों तक चले दलितों के सामाजिक बहिष्कार की कहानी
ओडिशा के ढेंकानाल ज़िले की एक घटना बताती है कि आज़ादी के 73 साल बाद भी भारत में दलित किन हालातों में रह रहे हैं.
ढेंकानाल ज़िले में एक मामूली बात से शुरू हुए विवाद के बाद सवर्णों ने दलितों का सामाजिक बहिष्कार कर दिया जिसकी वजह से दलितों के लिए हालात बेहद मुश्किल हो गए हैं.
बहिष्कार के चार महीने बाद, मीडिया में रिपोर्टें आने के बाद अब प्रशासन ने इस मामले में दख़ल दिया है और सवर्णों के ख़िलाफ़ मुक़दमा दर्ज कर लिया गया है.
हालांकि सवर्णों ने सामाजिक बहिष्कार के आरोपों से इनकार करते हुए इसे अपने बचाव में उठाया गया क़दम बताया है.
सवर्णों का दावा है कि दलित बात-बेबात दलित उत्पीड़न क़ानून के तहत कार्रवाई की धमकी देते हैं जिसके बाद 'आपसी सहमति से' दलितों से संपर्क न रखने का फ़ैसला लिया गया था.
दरअसल मामला ये है कि गांव की एक नाबालिग लड़की ने जिज्ञासावश किसी के बाग़ान से सूरजमुखी का एक फूल तोड़ लिया था. लेकिन समाज के तौर-तरीक़ों से बिल्कुल अनजान उस लड़की को क्या पता था कि उसकी इस 'गुस्ताख़ी' का परिणाम इतना भयंकर होगा कि पूरे चार महीनों तक केवल उसकी ही नहीं उसकी पूरी बिरादरी का जीना दूभर हो जाएगा.
6 अप्रैल को ओडिशा के ढेंकानाल ज़िले के कटियो-काटेनी गांव की उस 14 वर्षीय दलित लड़की श्रुतिस्मिता नायक के अनजाने में किए गए उस 'अपराध' की सज़ा गांव के सभी 40 दलित परिवार पिछले साढ़े चार महीने से भुगत रहे हैं.
गांव के 800 सवर्ण परिवारों ने उस दिन से दलितों का पूरी तरह से सामाजिक बहिष्कार कर दिया है. हालात ऐसे है कि कोई सवर्ण किसी दलित से बात तक नहीं करता है. सामाजिक संपर्क पूरी तरह से कट गया है.
उस दिन को याद करते हुए श्रुतिस्मिता ने बीबीसी को बताया, "उस रोज़ हम कुछ लड़कियां तालाब में गई थीं. वहां से लौटते समय मैंने एक फूल देखा तो उसे तोड़ लिया लेकिन इतने में एक आदमी वहां आ गया और हमसे गाली-गलौज करने लगा. हमने कहा कि हमसे ग़लती हुई है और वादा भी किया कि ऐसी ग़लती हम फिर कभी नहीं करेंगे लेकिन उन्होंने हमारी एक नहीं सुनी और हमें भद्दी-भद्दी गालियां दीं. हम रोते हुए घर वापस आ गए तब से आज तक हमने कभी तालाब का रुख नहीं किया."
श्रुतिस्मिता के परिजनों ने इस घटनाक्रम के बाद स्थानीय थाने में शिकायत की थी. थाने में ये मामला रफ़ादफ़ा कर दिया गया लेकिन इसने गांव में सवर्णों और दलितों की बीच दीवार खड़ी कर दी.
श्रुतिस्मिता और उसकी सहेलियों ने भले ही उस रोज़ के बाद से तालाब की ओर रुख़ नहीं किया. लेकिन गांव की एक 52 वर्षीय महिला सखी नायक जब यह गलती कर बैठीं, तो सवर्ण लोगों ने उन्हें दुत्कार दिया और फिर कभी तालाब में न जाने की धमकी दी. सखी इसके बाद से कभी तालाब की ओर नहीं गईं.
हर दलित की अपनी कहानी
केवल श्रुति और सखी ही नहीं, बल्कि गांव के लगभग हर दलित आदमी की अपमान और तिरस्कार की अपनी कहानी है.
गांव के दलित युवक सर्वेश्वर नायक ने बीबीसी से कहा, "पिछले दो महीनों से सवर्णों ने हमारा पूरी तरह से बहिष्कार किया है जिसके कारण हमें बहुत सारी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है. दुकानदार हमें कोई सामान नहीं बेच रहे. हमारा राशन तक बन्द करवा दिया गया है. हमारे लिए 'जन सेवा केन्द्र' के दरवाज़े भी बंद हैं. ज़रूरी सामान ख़रीदने के लिए हमें पांच किलोमीटर दूर जाना पड़ रहा है. हमारी खेती तक को बंद करवा दिया गया है. हमारे लिए ट्रेक्टर, ट्रॉली वगैरह भी अब उपलब्ध नहीं है. हमें तालाब में नहाने नहीं दिया जा रहा. कोई हमसे बात करे, तो उसे 1000 रुपये जुर्माना भरना पड़ता है."
श्रुतिस्मिता के विवाद के बाद से दलितों और सवर्णों के बीच सामाजिक दूरी बढ़ रही थी. फिर 16 जून को सवर्णों ने गांव की एक पंचायत बुलाई जिसमें दलित भी शामिल थे. इस पंचायत के बाद दलितों के सामाजिक बहिष्कार की घोषणा गांव में कर दी गई.
गांव में करीब 800 परिवार सवर्ण हैं जबकि केवल 40 ही दलित परिवार हैं इसलिए दलित सामाजिक बहिष्कार को चुपचाप सहन कर रहे हैं. इसका विरोध करने का सामार्थ्य उनमें नज़र नहीं आता है.
सवर्णों को दलितों से भी है शिकायत
लेकिन दलितों के ख़िलाफ़ भी सवर्णों की अपनी शिकायतें हैं. उनका आरोप है कि, "दलितों की बस्ती में बने एक चौपाल पर दलित नौजवान दिनभर मटरगश्ती करते रहते हैं और उस रास्ते से गुज़र रही सवर्ण महिलाओं पर भद्दी टिप्पणियां करते हैं."
हालांकि इस बारे में स्थानीय पुलिस थाने में कोई शिकायत दर्ज नहीं कराई गई है.
दलितों के ख़िलाफ़ सवर्णों की सबसे बड़ी शिकायत यह है कि वे आदिवासी दलित उत्पीड़न क़ानून का दुरुपयोग करते हैं.
गांव के कैलाश बिस्वाल बीबीसी ने बीबीसी से कहा, "दलित लोग अक्सर अपना लोहा मनवाने के लिए इस क़ानून का ग़लत उपयोग करते हैं या करने की धमकी देते हैं. अभी तक भले ही कोई गिरफ्तार न हुआ हो. लेकिन हमारे लोगों को इस कारण से बहुत मुसीबतें झेलनी पड़ी हैं. वे हमें परेशान करने के मौके ढूंढते रहते हैं. उनके द्वारा लगाए गए सारे आरोप बेबुनियाद हैं."
"बार-बार ऐसा होने के बाद आख़िरकार गांववालों ने एक बैठक बुलाई जिसमें दलितों को भी बुलाया गया. बैठक में निर्णय किया गया कि कोई दलितों से बात नहीं करेगा. बात करेगा तभी तो समस्या होगी. इस निर्णय के तहत हमने उनके ख़िलाफ़ असहयोग आंदोलन शुरू किया."
मामले के तूल पकड़ने के बाद शुक्रवार की शाम को ढेंकानाल के एस.पी, सब-कलेक्टर, स्थानीय तुमुसिंघा थाने के थानेदार और अन्य अधिकारियों की उपस्थिति में दोनों पक्षों के बीच बैठक हुई.
बैठक में लिए गए निर्णय के बारे में जानकारी देते हुए कामाक्ष्यानगर के सब कलेक्टर बिष्णु प्रसाद आचार्य ने बीबीसी को बताया, "शुक्रवार को हुई बैठक में दोनों पक्षों से काफ़ी संख्या में लोग आए हुए थे. सौहार्दपूर्ण माहौल में बातचीत हुई और निर्णय लिया गया कि हर वार्ड में एक पांच सदस्यीय कमेटी बनाई जाएगी जिसमें दोनों पक्षों के लोग होंगे. यह कमिटी वार्ड में कोई भी समस्या का हल ढूंढेगी और समाधान न होने पर गांव कमिटी को सूचित करेगी."
थाना प्रभारी आनंद डुंगडुंग ने कहा कि दोनों पक्षों ने गांव में सौहार्द बनाए रखने का वादा किया है और इस आशय के एक मसौदे पर दस्तख़त भी किए हैं.
प्रतिबंध हटाने की बात कही गई
गांव के सरपंच प्राणबंधु दास कहते हैं कि शुक्रवार की मीटिंग के बाद दलितों के ख़िलाफ़ सभी प्रतिबंध उठा दिए गए हैं. उन्होंने कहा, "मुझे लगता है कि अब सब लोग पहले की तरह मिलजुल कर रहेंगे. अगर फिर कुछ हुआ तो मैं तत्काल इस बारे में थाने में इत्तला करूंगा."
लेकिन ऐसा लगता है कि सरपंच दास का आख़िरी वाक्य दर्शा रहा है कि काग़ज़ पर भले ही समस्या का समाधान हो गया हो. लेकिन दोनों पक्षों के बीच तनाव अभी ख़त्म नहीं हुआ. मामला कभी भी तूल पकड़ सकता है और स्थिति फिर बिगड़ सकती है.
दलित युवक सर्वेश्वर के मन में भी यही आशंका है. वो कहते हैं, "शुक्रवार रात को ही निर्णय हुआ है. लेकिन शनिवार और रविवार तो शटडाऊन है. इसलिए सचमुच सामाजिक बहिष्कार ख़त्म हुआ है या नहीं, यह जानने के लिए हमें कुछ दिन और इंतज़ार करना होगा."
गांव में फ़िलहाल एक अजीब-सी शांति है जो कभी भी टूट सकती है और तनाव फिर से शुरू हो सकता है.
इसी बीच पुलिस अधीक्षक ने इस प्रकरण में शुक्रवार को एफ़आईआर भी दर्ज करवाई है. हालांकि अभी तक किसी को गिरफ़्तार नहीं किया गया है.
दलित अधिकार मंच, ओड़िशा के संयोजक प्रशांत मल्लिक इस प्रकरण पर कहते हैं, "इससे बड़ी शर्म की बात और क्या हो सकती है कि स्वतंत्रता के 73 साल बाद भी ऐसी घटनाएं आए दिन होती रहती हैं. यह कोई अपवाद नहीं है."
"तटीय ओड़िशा के हर गांव में दलितों से भेदभाव, छुआछूत और जाति के नाम पर उत्पीड़न आज भी जारी है. यह संविधान की अवमानना है. इस सामजिक कलंक को ख़त्म करने के लिए जो राजनीतिक इच्छाशक्ति चाहिए, वह हमारे राजनेताओं में दिख नहीं रही."
सामाजिक बहिष्कार के इस प्रकरण के सामने आने के बाद अभी तक सरकार की ओर से कोई टिप्पणी नहीं की गई है. प्रशासन का पूरे मामले को रफ़ा-दफ़ा करने का रवैया भी इशारा करता है कि कहीं न कहीं इस उत्पीड़न और भेदभाव को सत्तावर्ग की भी मूक सहमति है.
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