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बिहार में ताड़ के पेड़ बचा रहे हैं ज़िंदगियां, कैसे?

 BBC News, हिंदी


  • चंदन कुमार जजवाड़े
  • बीबीसी संवाददाता, पटना से
बिजली

इमेज स्रोत,ALAN HIGHTON

"बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर, पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर"

कबीर ने इस दोहे में ताड़ और खजूर जैसे पेड़ों के बारे में कहा है कि भले ही वो बड़े हैं लेकिन इससे राहगीर को ना तो छाया मिल पाती है और ना ही इसके फल तक पहुंचना आसान होता है.

लेकिन ताड़ और खजूर की यही ऊंचाई बिहार के लिए वरदान भी है. इसलिए बिहार राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण ने इन पेड़ों को बचाने की सलाह दी है.

बीएसडीएमए ने राज्य में आकाश से बिजली गिरने से हर साल होने वाली सैकड़ों मौतों पर अध्ययन किया है. इस अध्ययन में पाया गया है कि ताड़ जैसे ऊंचे पेड़ वज्रपात के समय लोगों की जान बचाते हैं.

मौसम विभाग की वरिष्ठ वैज्ञानिक सोमा सेन रॉय बताती हैं कि जब आप बिहार के ग्रामीण इलाकों में जाएंगे तो वहां कई ताड़ के ऐसे पेड़ दिखेंगे जो ऊपर से जले हुए होंगे. ताड़ के पेड़ आमतौर पर सबसे ऊंचे होते हैं और ये आकाश से गिरने वाली बिजली को आकर्षित करते हैं.

इस तरह से ताड़ के पेड़ की वजह से आकाशीय बिजली ज़मीन या खेतों में नहीं गिरती है और जिससे वहां मौजूद लोगों को ख़तरा नहीं होता है. ताड़ के पेड़ एक तरह से तड़ित चालक का काम करते हैं.

यानी जिन पेड़ों को ऐतिहासिक रूप से कम उपयोगी माना जाता है, वह लोगों की जान बचाते हैं. ताड़ या खजूर जैसे पेड़ों से ऐसी लकड़ी भी नहीं मिलती है, जिसकी अच्छी कीमत हो.

शराबबंदी की वजह से बिहार में ताड़ी पर भी पाबंदी लगी हुई है.

ताड़ के पेड़

बिजली गिरने से हर साल होने वाली मौतें

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बिहार में हर साल मानसून के दौरान सैकड़ों लोग आकाशीय बिजली की चपेट में आने से मारे जाते हैं.

बिहार स्टेट डिजास्टर मैनेजमेंट अथॉरिटी (BSDMA) के पिछले पांच साल के आंकड़ों के मुताबिक़ साल 2022 में आकाशीय बिजली गिरने से बिहार में कम से कम 344 लोगों की मौत हुई है.

साल 2021 में वज्रपात या बिजली गिरने से 273 लोगों की मौत हुई थी.

हाल के सालों में आकाशीय बिजली (ठनका) गिरने से सबसे अधिक मौत 2020 में हुई थी, तब 443 लोग मारे गए थे.

2019 में आकाशीय बिजली गिरने से 269 लोगों की मौत हुई थी. वहीं 2018 में 139 लोगों को जान गंवानी पड़ी थी.

बिहार स्टेट डिजास्टर मैनेजमेंट अथॉरिटी (बीएसडीएमए) के आंकड़े के मुताबिक़, बिजली गिरने से सबसे अधिक 86 फ़ीसदी लोग ग्रामीण इलाक़ों में मारे गए. खेती-किसानी या इससे जुड़े काम करने वाले लोग वज्रपात से सबसे अधिक प्रभावित होते हैं.

बीएसडीएमए केअध्ययन में पता चला है कि बिजली गिरने से सबसे ज़्यादा मौत सुबह 11 बजे से शाम 6 बजे के बीच होती है और इनमें औसतन क़रीब 70 फ़ीसदी पुरुष होते हैं.

ज़ाहिर तौर पर खेतों या घर से बाहर ज़्यादातर काम पुरुष करते हैं, इसलिए आकाशीय बिजली का सबसे ज़्यादा शिकार वो ही होते हैं.

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बिहार में बांका, पटना, रोहतास, जमुई, भागलपुर, गया, पूर्णिया, औरंगाबाद और कटिहार जैसे ज़िलों में आकाशीय बिजली गिरने की घटना बहुत आम है.

राज्य में साल 2020 में धरती पर आकाशीय बिजली के गिरने की क़रीब 6 लाख 40 हज़ार घटना हुई थी. जबकि साल 2019 में ऐसी बिजली गिरने के 4 लाख 94 हज़ार मामले हुए थे. इसमें 12 हज़ार वोल्ट की बिजली होती है.

बीएसडीएमए के मुताबिक़, बिहार में 25 जून 2020 को आकाशीय बिजली गिरने से क़रीब सौ लोगों की मौत हो गई थी. सरकार की तरफ से ऐसी प्राकृतिक आपदा से होने वाली हर मौत पर चार लाख़ रुपये का मुआवज़ा दिया जाता है.

हर साल होने वाली ऐसी सैकड़ों मौतें न केवल बिहार सरकार के लिए बड़ी चिंता का विषय है बल्कि इससे सैकड़ों परिवार भी प्रभावित होते हैं.

कैसे बनती और गिरती है बिजली

सोमा सेन रॉय के मुताबिक़, बादलों के चार्ज होने से आकाशीय बिजली बनती है. बादलों के अप-डाउन मूवमेंट से यह चार्जिंग होती है. इससे एक जगह पॉज़िटिव चार्ज पैदा होता है और एक जगह नेगेटिव. जब दोनों एक दूसरे से टकराते हैं तो बिजली चमकती है.

डॉ सोमा सेन बताती हैं, "ऐसे चार्ज को धरती की तरफ़ एक रास्ता मिलता है और इन्हें नेगेटिव चार्ज वाली चीज़ें आकर्षित करती हैं. इनमें जो चीज़ सबसे ऊंची होती है यानी बादलों के सबसे क़रीब होती है, बिजली उसी पर गिरती हैं."

बिहार जैसे राज्य के ग्रामीण इलाक़ों में आमतौर पर ताड़ के पेड़ सबसे ऊंचे होते हैं. इसलिए ग्रामीण इलाकों में यह मान्यता भी है कि ताड़ के पेड़ बिजली गिरने पर लोगों को बचाते हैं.

बिहार के गया ज़िले के चाकंद गांव के राजेश यादव कहते हैं, "ताड़ के पेड़ की वजह से हमारे खेत में कभी बिजली नहीं गिरी. हमारे खेतों के आस-पास बहुत सारे ताड़ के पेड़ हैं इसलिए आज तक बिजली गिरने से कोई नहीं मरा."

आकाशीय बिजली पेड़ पर गिरने के बाद आसपास फैल भी सकती है. छोटे या ज़्यादा विस्तार वाले पेड़ों से इसके फ़ैलने की संभावना ज़्यादा होती है. इसे साइड फ़्लैश कहते हैं.

साइड फ़्लैश मिट्टी की क्वालिटी पर भी निर्भर करता है. अगर मिट्टी में लोहे की मात्रा ज़्यादा होगी तो यह ज़्यादा फैलेगा. इस तरह के साइड फ़्लैश की ज़द में आकर भी लोगों की मौत हो सकती है.

वज्रपात से सबसे ज़्यादा किसानों की मौत

सोमा सेन रॉय कहती हैं, "ये घटनाएं मानसून की शुरुआत में ज़्यादा होती हैं. तब किसान खेतों में होते हैं. ये धान की खेती का समय होता है. इस समय खेत भी गीले होते हैं, जो बिजली के लिए कंडक्टिंग प्लेट का काम करते हैं."

आकाशीय बिजली गिरने की घटना बिहार, पश्चिम बंगाल, झारखंड, ओडिशा जैसे राज्यों में दोपहर के बाद ज़्यादा होती है. इसलिए किसान जब सुबह खेतों में जाते हैं तो इसके लिए कोई तैयारी नहीं होती है.

उधर असम और उत्तर-पूर्वी राज्यों में वज्रपात की घटना ज़्यादा होती है, लेकिन यह दिन-रात होती है, इसलिए किसान सुबह खेत पर जाते समय ही इसके लिए तैयार रहते हैं. इस तरह से वहां वज्रपात से लोग ख़ुद को बचा पाते हैं.

किसानों को ऐसी आपदा से बचाने के लिए बीएसडीएमए भी ग्रामीण इलाकों के सबसे ज़्यादा प्रभावित 79 पंचायतों में लाइटनिंग अरेस्टर या तड़ित चालक लगवा रहा है.

इमेज स्रोत,AFP

वज्रपात से बचाव के उपाय

इसके लिए कई इलाकों में हूटर भी लगवाए जा रहे हैं और 'इंद्रव्रज' नाम का ऐप भी तैयार करवाया गया है ताकि लोगों को कम से कम आधे घंटे पहले आकाशीय बिजली के ख़तरे की सूचना दी जा सके.

शहरी इलाकों में ऊंची इमारतों पर लगे लाइटनिंग अरेस्टर लोगों को बचा लेते हैं. लेकिन आकाशीय बिजली से बचाव के लिए ग्रामीण इलाकों में ताड़ और खजूर के पेड़ों को बचाने की भी सलाह दी गई है.

बिहार राज्य में अप्रैल 2016 से पूरी तरह शराबबंदी लागू है. ऐसे में वहां ताड़ के पेड़ के रस से बनने वाली देसी ताड़ी, जो एक तरह की देसी शराब है, उस पर भी पाबंदी है.

ऐसे में आशंका यह भी होती है कि इस्तेमाल के नहीं रह जाने से लोग पेड़ों की कटाई न करने लगें.

बिहार के ग्रामीण इलाकों में रोज़गार के लिए चल रही योजना 'जीविका' की तरफ से भी नीरा व्यवसाय के जुड़े लोगों को रोज़गार देने की कोशिश की जा रही है.

इमेज स्रोत,GETTY IMAGES

बिहार में ताड़- खजूर के पेड़ों की संख्या

'जीविका' के प्रोजेक्ट मैनेजर (लाइवलीहुड) अनिल कुमार बताते हैं, "शराब पर पाबंदी की वजह से लोगों ने ताड़ जैसे पेड़ों की कटाई की हो, ऐसा देखने को नहीं मिला है. ताड़ और खजूर के रस से पेड़े, मिठाइयां और पेय पदार्थ बनाए जाते हैं."

हाल ही में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बिहार के नालंदा में 'नीरा कैफ़ै' का भी उद्घाटन किया है.

साल 2017 के बिहार सरकार के आंकड़ों के मुताबिक़, राज्य में क़रीब 93 लाख ताड़ और क़रीब 40 लाख खजूर के पेड़ हैं.

पुराने ताड़ के पेड़ की औसत ऊंचाई 35 से 40 फ़ुट होती है. इसके कई पेड़ 50 फ़ुट तक भी ऊंचे होते हैं. नारियल के पेड़ भी ताड़ के समान ही ऊंचे होते हैं. बिहार में नारियल के क़रीब 4 लाख पेड़ हैं.

माना जाता है कि 2017 की गिनती के मुक़ाबले इसमें औसतन पांच फ़ीसदी तक की कमी की संभावना है. लोग आमतौर पर किसी ज़मीन पर घर बनवाने या कच्चे मकानों में खंबे या सपोर्ट के लिए ताड़ के पेड़ कटवाते हैं.

गया के किसान राजेश यादव बताते हैं, "पहले कच्चे मकानों के लिए इसकी ज़रूरत बहुत होती थी, लेकिन अब गांवों में भी ज़्यादातर मकान पक्के होने लगे हैं तो इसके लिए पेड़ों की कटाई बहुत कम होती है."

बिहार के चीफ़ कंजर्वेटर ऑफ़ फ़ॉरेस्ट सीपी खंडुजा ने बीबीसी को बताया, "पेड़ों को काटने के कुछ नियम हैं. लोगों को ताड़ जैसे दस पेड़ काटने की छूट दी गई है ताकि वो ज़रूरत पर इसका इस्तेमाल कर सकें. अगर ऐसा नहीं होगा तो वो पेड़ लगाने में भी दिलचस्पी नहीं लेंगे."

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