Blog - देश की जाँच एजेंसी और पुलिस क्या- क्या कर सकती है ? देखिये ...स्टोरी नंबर.1

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कोर्ट कहता है - साक्ष में बहुत गड़बड़ी है ।इस आधार पर न तो किसी को आजीवन कारावास और न ही किसी को मृत्युदंड की सजा दी सकती है । ' हाई कोर्ट के सतहत्तर पन्नों के फैसले में पुलिसिया गड़बड़ी का विस्तार से जिक्र है । इसमें आरोपियों का नाम बदलने से , उनकी संख्या बढ़ाने ,गवाही में भिन्नता आदि बातें दर्ज हैं ,जिससे आरोपियों को संदेह का लाभ मिल गया । पुलिस ने ऐसा क्यों किया ? ऐसा करने वाले पुलिसकर्मियों के खेलाफ कभी कुछ हुआ है , जो होगा ? क्यों नहीं होता है ? कौन जिम्मेदार है ? कौन किसको रोकता है ? यह राज सत्ता और सिस्टम का गुण है ? ये सवाल भी पूछे जा सकते हैं कि इन तमाम विसंगतियों या गड़बड़ियों के मौजूद रहते निचली अदालत ने कैसे अमौसी नरसंहार के दस आरोपियों को फांसी और चार को आजीवन कारावास की सजा सुना दी थी ? हाई कोर्ट के मुताबिक़ निचली निचली अदालत का फैसला गलत था । तो क्या ऐसी गलतियों के खेलाफ कुछ होता है क्या ? क्यों नहीं होता ? आखिर जब अमौसी के सभी आरोपी बेकसूर थे , तो फिजूल में उनको जेल क्यों भेजा गया ? जेल में गुजारा गया उनका समय उनकी सामाजिक - आर्थिक - मानसिक क्षति जानलेवा प्रताड़ना ........., इन सबका कसूरवार किसको माना जाएगा ? बेक़सूर को जेल भेजने से भी बड़ा अपराध कुछ होता है क्या ? ऐसे ढेर सारे सवाल हैं । लेकिन सबसे खतरनाक बात यह है कि सिस्टम के सभी जिम्मेदार तंत्र इन सवालों से अपने को किनारे रखे हुए है । कोई कुछ नहीं बोल रहा है । निचली अदालत इस तर्क पर चुप है कि हाई कोर्ट पर टिप्पणी उसके बूते की नहीं है । पुलिस , न्यायिक मामला बता कर बिलकुल चुप है । हाँ ,महाधिवक्ता रामबालक महतो ऐसे मौकों पर कही जाने वाली एक बात जरुर कहते हैं - हम हाई कोर्ट के फैसले का अध्यन करेंगे । जरुरत पड़ने पर सुप्रीम कोर्ट में अपील होगी ।' और सुप्रीम कोर्ट में ......? पता नहीं ऐसे तमाम कब तक जिन्दा रहेंगे ? शायद पीढियां गुजर जाएँ । एक उदाहरण से जानिये - ----------- 1/12/1997 की रात लक्ष्मणपुर बाथे में 58 लोग मारे गए ।पिछले साल 9/ 10/13 को पटना हाई कोर्ट ने इस काण्ड के सभी 26 आरोपियों को बड़ी कर दिया । राज सरकार , इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट गई है । 16 साल बीत चुके हैं । और आज भी ;वही सवाल जिन्दा है के आखिर हत्यारा कौन था ?

अमौसी या लक्ष्मणपुर बाथे की यह दास्तान पहली और आखरी नहीं है । इधर ,नरसंहारों के आरोपी लगातार बड़ी होते जा रहे हैं ।  मियांपुर ( औरंगाबाद ) 'जहीरबिगहा (गया ) नरसंहार ........,सबकुछ सामने है । सिस्टम अपना भरोसा बचाएगा ?

जवाब मांगते सवाल

# क्या इस स्थिति को अपनों को खो चुके लोगों के लिए सिस्टम का यह सुझाव माना जाए कि तुम उनकी शरण में जाओ , जो फटाफट न्याय करता है ? यह क्या नक्सलियों को अपनी जमीन को और मजबूत करने देने की खुली छुट नहीं है क्या ?

# क्या यह सच्चाई नहीं है कि ऐसे मसले अराजक तत्यों को हमेशा ताक़त देते हैं ,उत्प्रेरित करते हैं ? हत्याएं इसलिए भी होती कि हत्यारे बचे रह जाते हैं ?

# जब कोर्ट मानता है कि पुलिस ने मुनासिब तरीके से अनुसंधान (जाँच)नहीं किया है ,तो उसके खेलाफ कार्रवाई का आदेश क्यों नहीं होता है ? फिर क्या , कोर्ट के आदेश के आलोक में ऐसा पुलिस मुख्यालय की जिम्मेदारी नहीं है ? ऐसी कार्रवाई का एक भी उदाहरण है क्या ?



# लक्ष्मणपुर बाथे नरसंहार के 11 वर्ष बाद 46 लोगों के खिलाफ चार्जशीत हुई । इतना विलम्ब क्यों ?
(मधुरेश , जागरण पटना ,पटना ,दिनांक - 6/1 14)

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"बक्श देता है 'खुदा' उनको, ... ! जिनकी 'किस्मत' ख़राब होती है ... !! वो हरगिज नहीं 'बक्शे' जाते है, ... ! जिनकी 'नियत' खराब होती है... !!"

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