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सदियाँ हुसैन की हैं ज़माना हुसैन का

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 आज आशुरा-ए-मुहर्रम है आज के ही दिन 1378 वर्ष पूर्व इराक के शहर कर्बला के मैदान में पैगम्बर-ए-इस्लाम हजरत मोहम्मद साहब के नवासे हजरत इमाम हुसैन ने अपने 72 प्रियजनों के साथ सत्य और न्याय तथा इस्लाम धर्म की रक्षा के लिए जो कुर्बानी दी थी उसे भुलाया नहीं जा सकता उन्होंने अपने और 72 लोगों को अल्लाह की राह में कुर्बान कर दिया था और ये संदेश दिया था कि तुम जियो तो सिर्फ अल्लाह के लिए और करो तो उसी के लिए, इसलिए कि सबसे मुलवान जीवन वह है जो अल्लाह की राह में कुर्बान कर दी जाए।  मनुष्यता और न्याय के हित में अपना सब कुछ लुटाकर भी कर्बला में हजरत इमाम हुसैन ने जिस अदम्य साहस की रोशनी फैलाई, वह सदियों से न्याय और उच्च जीवन मूल्यों की रक्षा के लिए लड़ रहे लोगों की राह रौशन करती आ रही है। कहा भी जाता है कि ‘कत्ले हुसैन असल में मरगे यजीद हैं ध् इस्लाम जिन्दा होता है हर कर्बला के बाद।‘ इमाम हुसैन का वह बलिदान दुनिया भर के मुसलमानों के लिए ही नहीं, संपूर्ण मानवता के लिए प्रेरणा का स्रोत हैं। हुसैन महज मुसलमानों के नहीं, हम सबके हैं।   इस्लाम के प्रसार के बारे में पूछे गए एक सवाल के जवाब में एक बार राष्

मोहर्रम के महीने में ग़म और मातम का इतिहास

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10 सितंबर 2019 इस पोस्ट को शेयर करें Facebook   इस पोस्ट को शेयर करें WhatsApp   इस पोस्ट को शेयर करें Messenger   साझा कीजिए इमेज कॉपीरइट GETTY IMAGES Image caption तुर्की में एक शिया लड़की अशुरा का मातम मनाती हुई. इस्लामिक कैलेंडर के अनुसार साल का पहला महीना मोहर्रम होता है. इसे 'ग़म का महीना' भी माना जाता है. 12वीं शताब्दी में ग़ुलाम वंश के पहले शासक क़ुतुबुद्दीन ऐबक के समय से ही दिल्ली में इस मौक़े पर ताज़िये (मोहर्रम का जुलूस) निकाले जाते रहे हैं. उनके बाद जिस भी सुल्तान ने भारत में राज किया, उन्होंने 'ताज़िये की परंपरा' को चलने दिया. हालांकि वो मुख्य रूप से सुन्नी थे, शिया नहीं थे. पैग़ंबर-ए-इस्‍लाम हज़रत मोहम्‍मद के नाती हज़रत इमाम हुसैन को इसी मोहर्रम के महीने में कर्बला की जंग (680 ईसवी) में परिवार और दोस्तों के साथ शहीद कर दिया गया था. कर्बला की जंग हज़रत इमाम हुसैन और बादशाह यज़ीद की सेना के बीच हुई थी. null आपको ये भी रोचक लगेगा कश्मीर में हिंदू राज और ग़ज़नी की अपमानजनक हार की कहानी कश्मीर का सुल्तान जिसे बिहार मे