फडणवीस और भाजपा उतावलेपन में सब गंवा बैठे- नज़रिया


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राजनीति बड़ी निष्ठुर होती है. इसीलिए रामधारी सिंह दिनकर ने लिखा है कि निष्ठुरता की सीपी में राजनीति का मोती पलता है. यह बात उद्धव ठाकरे ने साबित कर दी. ठाकरे ने 30 साल का संबंध एक झटके से तोड़ा तो मुख्यमंत्री बनने का सपना पूरा हो गया.
लेकिन राजनीति का मोती कभी-कभी सिर्फ़ निष्ठुरता से ही नहीं मिलता. ठाकरे की निष्ठुरता परवान चढ़ गई तो अजित पवार की औंधे मुंह गिर गई. या फिर कहें कि वे पूरी तरह निष्ठुर हो नहीं पाए.
राजनीति का कमाल देखिए कि गिरे अजित पवार और लहूलुहान हुए देवेंद्र फडणवीस. महाराष्ट्र की राजनीति के चक्रव्यूह में शरद पवार ने उन्हें अभिमन्यु की तरह घेरकर मारा. लेकिन सवाल है कि उन्हें अभिमन्यु बनाया किसने? वे आंखों पर पट्टी बांध कर इस चक्रव्यूह में घुस गए या खुली आंखों से?
महाराष्ट्र में 22 नवंबर की रात से 23 नवंबर की सुबह तक जो हुआ उसके कुछ किरदार तो सबके सामने हैं लेकिन पर्दे के पीछे के किरदारों की भूमिका ज़्यादा अहम लगती है.
सवाल बहुत से हैं लेकिन जवाब कहीं से आ नहीं रहा. सरकार बनाने के इस पूरे प्रहसन के दो किरदार देवेंद्र फडणवीस और अजित पवार कह रहे हैं कि समय आने पर बताएंगे.
अब समय कब आएगा. किसी को पता नहीं. तो इस रहस्य से जब पर्दा उठेगा तब उठेगा. लेकिन इससे किसको क्या हासिल हुआ इसका आकलन तो अभी हो सकता है.
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देवेंद्र फडणवीस: 80 घंटों के मुख्यमंत्री

राजनीतिक घटनाओं पर कोई भी टिप्पणी तात्कालिक ही होती है क्योंकि टिप्पणीकार को पता नहीं होता कि भविष्य के गर्भ में क्या छिपा है. अभी स्थिति यह है कि देवेंद्र फडणवीस 80 घंटे के मुख्यमंत्री बनकर इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गए.
अजित पवार 80 घंटे बाद उप मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देकर घर लौट गए और घर जाने के बाद कहा कि उन्होंने कोई बगावत नहीं की. यह कहते हुए उनके चेहरे पर कोई शिकन नहीं थी.
एक सरकार खड़ी होने से पहले गिर गई. वे एनसीपी में ऐसे लौटे जैसे 80 घंटे में जो हुआ वह सपना था और नींद टूटी तो उन्होंने अपने को घर के बिस्तर पर पाया. लेकिन अजित पवार की महाराष्ट्र की राजनीति में जो भी हैसियत हो, पर प्रतिष्ठा तो नहीं है. उनकी 'ख्याति' सिंचाई घोटाले वाली ही है.
41 साल पहले शरद पवार ने जो अपने राजनीतिक गुरु वसंत दादा पाटिल के साथ किया था वही शरद पवार के साथ करने की उन्होंने नाकाम कोशिश की. इससे एक बार फिर साबित कर दिया कि बाप बाप ही होता है.
आज बात अजित पवार की नहीं देवेंद्र फडणवीस और भारतीय जनता पार्टी की करना चाहिए. पूरे घटनाक्रम का हासिल एक वाक्य में बताना हो तो कहेंगे- गुनाह बेलज्जत.
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अति आत्मविश्वास या अहंकार?

80 घंटे पहले फणनवीस महाराष्ट्र के युवा, ईमानदार, बेदाग] छवि वाले ऐसे नेता थे जो सत्ता में रहते हुए सत्तालोलुप नज़र नहीं आता था. भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ उन्होंने पांच साल में जो भी किया हो, लेकिन भ्रष्टाचार नहीं किया.
वो भाजपा के उभरते हुए होनहार नेता थे. उनकी गिनती भाजपा के मुख्यमंत्रियों में सबसे ऊपर थी. अजित पवार के भ्रष्टाचार के खिलाफ़ उनका 'अजित दादा चक्की पीसिंग पीसिंग ऐंड पीसिंग' वाला बयान आम जनमानस के मन में उतर गया था.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की वे ख़ास पंसद थे. अनुभवी नितिन गडकरी और एकनाथ खडसे के दावे को दरकिनार करके उन्हें मुख्यमंत्री बनाया गया. पांच साल में उन्होंने अपने नेताओं को निराश नहीं किया.
लेकिन अति आत्मविश्वास और अहंकार के बीच की विभाजक रेखा अक्सर बहुत महीन होती है. फडणवीस के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ. लेकिन अति आत्मविश्वास के चलते वे पूरे चुनाव अभियान में कहते रहे कि मैं लौटकर आऊंगा.
मतदाता को इसमें अहंकार नजर आया. चुनाव नतीजे ने इसकी तस्दीक कर दी. पर फडणवीस ने इससे सबक सीखने की बजाय उससे बड़ी ग़लती की. भ्रष्टाचार के मामले झेल रहे अजित पवार पर भरोसा कर लिया. यह जानते हुए कि वे अपनी पार्टी के विधायकों के दस्तख़त का दुरुपयोग कर रहे हैं.
22 नवंबर की रात लोग सोए तो महाराष्ट्र में राष्ट्रपति शासन था. 23 नवंबर को रविवार था. लोग सो कर उठे और यह देखने के लिए टीवी खोला कि देखें मुख्यमंत्री बनने का उद्धव ठाकरे का अभियान कहां तक पहुंचा.

नायक से खलनायक तक

लोगों ने जो देखा उस पर सहसा किसी को विश्वास नहीं हुआ. पता चला कि फडणवीस एक बार फिर महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बन गए.
इस एक क़दम से चुनाव के बाद शिवसेना के रुख़ से उन्हें और उनकी पार्टी को जो सहानुभूति मिली थी वह हवा हो गई. 22 नवंबर की रात तक जो फडणवीस नायक थे वही 23 की सुबह खलनायक और सत्ता लोलुप के अवतार में नज़र आए.
भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ लड़ने वाले नेता की जो छवि पांच साल में बनाई थी वह एक रात में मिट्टी में मिल गई. तो न खुदा ही मिला न विसाले सनम.
बात यहीं खत्म नहीं होती सवाल है कि क्या यह फडणवीस ने यह सब अकेले किया? ऐसा मानना सच्चाई से भागने जैसा होगा. इसमें कोई शक की गुंजाइश नहीं है कि इसमें पार्टी का नेतृत्व ज्यादा नहीं तो बराबर का शरीक़े जुर्म है. रात में राज्यपाल से राष्ट्रपति शासन हटाने की सिफ़ारिश करवाना.
प्रधानमंत्री से विशेष प्रावधान के तहत कैबिनट की बैठक के बिना मंजूरी दिलवाना और अलस सुबह राष्ट्रपति की सहमति और फिर शपथ ग्रहण. यह सारे काम फडणवीस के अकेले के बस का है ही नहीं.
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उतावलेपन से बीजेपी को क्या मिला?

यह बात समझ से परे है कि भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने ऐसा कच्चा खेल क्यों खेला? और खेला तो उससे हासिल क्या हुआ. पांच साल में गढ़ी गई फडणवीस की छवि की कुर्बानी हो गई.
भाजपा उतावलेपन की जगह धैर्य दिखाती तो कुछ समय बाद सरकार सहज रूप से उसी की झोली में गिरती. इस उतावलेपन से उसे सत्ता तो मिली नहीं. इसके उलट विरोधी खेमे में जबरदस्त एकता हो गई.
पहले कर्नाटक और अब महाराष्ट्र इन दो नाकामियों का संदेश यही है कि अपने विरोधी को कमज़ोर नहीं समझना चाहिए. साथ ही अपनी ताक़त और चुनावी प्रबंध कौशल के बारे में मुगालता नहीं होना चाहिए.
हम हर समय और हर हाल में क़ामयाब ही होंगे यह आत्मविश्वास कभी कभी गच्चा दे जाता है.
भाजपा ने केवल फडणवीस का ही नुक़सान नहीं किया. दो संवैधानिक पदों, प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति की गरिमा को भी ठेस पहुंचाई. यह सारी क़वायद उड़ती चिड़िया को हल्दी लगाने जैसा था. जिसका नतीजा पहले से ही पता होना चाहिए था.

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