शरद पवार बीते पांच सालों में बीजेपी को लेकर कैसे बदले?
महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव का परिणाम आए दो हफ़्ते बीत चुके हैं लेकिन राज्य में अब तक सरकार का गठन नहीं हो सका है. वैसे तो चुनाव नतीजों में बीजेपी-शिवसेना गठबंधन को स्पष्ट बहुमत मिला था, लेकिन अब तक दोनों में से किसी ने न तो सरकार बनाने का दावा पेश किया और न ही राज्यपाल ने ही उन्हें आमंत्रित किया.
इस दौरान शिवसेना और बीजेपी, मुख्यमंत्री समेत अन्य मुद्दों पर सकारात्मक बातें करते हुए भी नहीं दिखे. साथ ही शिवसेना सांसद संजय राउत के बयान से दोनों दलों के बीच विवाद और बढ़ गया है.
दूसरी तरफ, एनसीपी प्रमुख शरद पवार भी वहां की वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में बेहद सक्रिय हैं. दो दिन पहले सोमवार को पवार ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से दिल्ली में मुलाक़ात की. कांग्रेस-एनसीपी नेताओं के शिवसेना के समर्थन में सरकार गठन को लेकर दिए गए कुछ सकारात्मक प्रतिक्रियाओं को देखते हुए शरद पवार और सोनिया गांधी के बीच हुई वो मुलाक़ात बेहद अहम मानी जा रही थी लेकिन बुधवार को पवार ने एक बार फिर यह स्पष्ट कर दिया कि उनकी पार्टी को विपक्ष में बैठने का मौका मिला है.
साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि राज्य की वर्तमान राजनीतिक स्थिति पर कुछ कहने के लिए नहीं है. इसी पार्टी लाइन पर वो चुनाव के बाद से लगातार टिके हुए दिख रहे हैं.
हालांकि यह भी तथ्य है कि पांच साल पहले जब 2014 में चुनाव हुए थे तो ये शरद पवार ही थे जिन्होंने बीजेपी को राज्य में सरकार बनाने के लिए समर्थन दिया था.
तो फिर क्या वजह है कि वे इस पर एक अलग और कड़ा रुख अपनाए हुए हैं? साथ ही यह भी जानते हैं कि 2014 से 2019 के दरम्यान शरद पवार की महाराष्ट्र की राजनीति में भूमिका क्यों और कैसे बदली?
राज्य की वर्तमान स्थिति
24 अक्तूबर को राज्य विधानसभा चुनाव के परिणाम के आने पर बीजेपी को 105, शिवसेना को 56, एनसीपी को 54 और कांग्रेस को 44 सीटों पर जीत हासिल हुई.
बीजेपी-शिवसेना की महायुति को राज्य की 288 सीटों में से 161 सीटों पर जीत के साथ स्पष्ट बहुमत मिली लेकिन 50:50 के फॉर्मूले को लेकर दोनों दलों के बीच पेंच फंसा हुआ है.
ऐसी परिस्थिति में, महाराष्ट्र में नई संभावनाओं को लेकर नए समीकरणों पर भी बात की जा रही है. ऐसे कयास निकाले जा रहे हैं कि क्या एनसीपी और कांग्रेस की महाअघाड़ी शिवसेना को समर्थन दे सकती है? 2014 के विधानसभा चुनाव परिणाम आने के बाद जिस तरह शरद पवार ने बीजेपी को समर्थन दिया था, यह चर्चा उसी पृष्ठभूमि पर हो रही है.
2014 में क्या हुआ था?
महाराष्ट्र में सभी प्रमुख दल 2014 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के दौरान अपने दम पर मैदान में उतरे थे. उस समय बीजपी को 123, शिवसेना को 63, कांग्रेस को 42 और एनसीपी को 41 सीटें मिली थी. बीजेपी अकेले अपने दम पर सरकार बनाने से 22 सीट दूर रह गई थी. उस समय, शरद पवार ने सार्वजनिक रूप से बीजेपी के लिए समर्थन की घोषणा करते हुए कहा था, "महाराष्ट्र के हित के लिए राज्य में एक स्थिर सरकार होनी चाहिए."
2014 में पवार के बीजेपी को समर्थन देने पर, वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक अभय देशपांडे कहते हैं, "2014 में सभी दल स्वतंत्र रूप से मैदान में उतरे थे. हालांकि, शिवसेना को पता था कि वह चुनाव के बाद बीजेपी के साथ जाएगी. लेकिन शरद पवार का मानना था कि बीजेपी को समर्थन देने से जहां शिवसेना समझौते के लिए झुकेगी वहीं दोनों पार्टियों के बीच कुछ दरार भी पैदा होगी."
"इसके अलावा, उनका उद्देश्य अपनी पार्टी को एकजुट रखने का भी था, क्योंकि पवार को ऐसा लगा होगा कि बीजेपी बहुमत के लिए उनकी पार्टी को तोड़ देगी. इसलिए उन्होंने बीजेपी को समर्थन देने की घोषणा कर दी थी."
वहीं राजनीतिक विश्लेषक नितिन बिरमल कहते हैं, "शरद पवार ने महसूस किया कि 2014 में बीजेपी के सत्ता में आने से उनके स्थानीय हित बहुत अधिक प्रभावित नहीं होंगे और बीजेपी एनसीपी को परेशान भी नहीं करेगी."
2014 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी का समर्थन करने के कारण शरद पवार का बीजेपी के केंद्रीय नेतृत्व के साथ अच्छा संबंध है. इसे बारामती के एक कार्यक्रम से समझा जा सकता है.
फ़रवरी 2015 में, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बारामती में कृषि विज्ञान केंद्र भवन का उद्घाटन करने आए थे.
कार्यक्रम में शरद पवार और नरेंद्र मोदी एक ही मंच पर बैठे थे. उस समय, नरेंद्र मोदी ने शरद पवार की खूब प्रशंसा की थी. उसी दौरान मोदी ने कहा था कि वे राजनीति में शरद पवार की उंगली पकड़ कर आए थे. लेकिन बाद में शरद पवार बीजेपी के ख़िलाफ़ आक्रामक रूप अख्तियार करने लगे. तो क्या यह बदलाव अचानक था या ऐसा किसी कारण से हुआ?
बीते पांच वर्षों में शरद पवार की भूमिका क्यों बदल गई?
वरिष्ठ पत्रकार और सकाल के मुंबई संस्करण के पूर्व संपादक, पद्मभूषण देशपांडे कहते हैं, "2014 में महाराष्ट्र और केंद्र की सत्ता में बीजेपी के आने के बाद के कुछ सालों में, शरद पवार विभिन्न मुद्दों पर नरेंद्र मोदी से मिलने जाते थे. हालांकि, उस समय जब नोटबंदी के बाद सहकारी बैंकों का पैसा अटक गया था, पवार ने महसूस किया होगा कि मोदी एक अलग तरीके से काम करने वाले नेता हैं तो फिर वे दूर रहने लगे."
देशपांडे ने आगे कहा, "पवार ने महाराष्ट्र की राजनीति में बीजेपी और मोदी की भूमिका को समझा. यह महसूस करने के बाद कि अलग अलग युक्ति से वो कांग्रेस और एनसीपी को ख़त्म करने की कोशिश कर रहे हैं तो पवार ने बीजेपी से दूरी बनानी शुरू कर दी."
दूसरी तरफ, राजनीतिक विश्लेषक नितिन बिरमल कहते हैं, "बीजेपी ने एनसीपी को कई मुद्दों पर पीछे छोड़ दिया. जैसे मराठा आरक्षण, एनसीपी के प्रभाव वाले इलाके में घुसपैठ और प्रभावी नेताओं को अपनी तरफ खींचने की कोशिशें की. फिर भी 2014 के बाद शुरुआती कुछ वर्षों में, शरद पवार ने सोचा कि वो उन जगहों पर फिर से नियंत्रण हासिल कर लेंगे जहां जहां बीजेपी के प्रभाव में इजाफ़ा हुआ है."
फिर अंतिम वर्षों के दौरान यह महसूस करने के बाद कि वे इलाके उनके हाथों से निकल रहे हैं बीते वर्ष वह बीजेपी के ख़िलाफ़ कहीं अधिक आक्रामक रूप में सामने आए.
नितिन बिरमल कहते हैं, "खासकर (2019) लोकसभा चुनाव के बाद, उन्होंने देखा होगा कि पार्टी ख़तरे में थी. उन्होंने देखा होगा कि उनके कई कार्यकर्ताओं के बीजेपी में जाने के बाद उनकी पार्टी ख़तरे में है."
'शिवसेना-बीजेपी के बीच खाई बढ़ाने की राजनीति'
कहा जाता है कि शरद पवार ने शिवसेना की 'सौदेबाजी की शक्ति' को यह कहकर कम कर दिया था कि जनता ने हमें विपक्ष में बैठने की नसीहत दी है. दूसरी तरफ पवार के दिल्ली जाकर सोनिया गांधी से बात करने की बात कहने में बीजेपी के लिए भी एक चेतावनी थी.
इस बारे में, पद्मभूषण देशपांडे कहते हैं, "शिवसेना-बीजेपी के बीच की खाई को चौड़ा करने की मौजूदा राजनीति जारी है. इसमें पवार का राजनीतिक फायदा है. यही उन्होंने 2014 में भी किया था. तब उन्होंने अपनी भूमिका नहीं बदली थी बल्कि वो भी उनकी राजनीति का ही हिस्सा था. यह वैचारिक नहीं बल्कि उनकी व्यावहारिक राजनीति का हिस्सा है."
लेकिन अभय देशपांडे के अनुसार, "अब भी, शिवसेना को समर्थन नहीं देना बीजेपी को अप्रत्यक्ष समर्थन देना है. इसका मतलब है कि बीजेपी का बहुत विरोध नहीं है."
"शरद पवार का कहना है कि शिवसेना उनके कंधे पर बंदूक रख कर न चलाए, अगर समर्थन मांगना है तो खुल कर मांगे. ऐसा कहकर उन्होंने यह बताने की कोशिश की है कि आने वाले वक्त में बीजेपी और शिवसेना के बीच दूरियां और बढ़ेंगी."
हालांकि, 2014 में, जब शरद पवार ने बीजेपी को समर्थन दिया था और अब आक्रामक रूप से बीजेपी के ख़िलाफ़ सड़कों पर उतरे हैं तो पद्मभूषण देशपांडे कहते हैं, "शरद पवार एक राजनेता हैं, वे एक नेहरूवादी हैं. भले ही बीते पांच वर्षों के दौरान बीजेपी के साथ उनके संबंधों में उतार चढ़ाव आया हो लेकिन दिल से वे पक्के नेहरूवादी और कांग्रेसी हैं.
"नामदेव अंजना
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