महाराष्ट्र सरकार गठन: शरद पवार ने इस तरह अमित शाह की रणनीति को मात दी


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'महाराष्ट्र के चाणक्य शरद पवार ने दूसरे सभी चाणक्यों को हरा दिया है.'
महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पद से देवेंद्र फडणवीस के इस्तीफ़े के बाद यह बात एनसीपी नेता नवाब मलिक ने कही.
महाराष्ट्र की सियासत में चार दिन पहले आए अप्रत्याशित सियासी मोड़ का पटाक्षेप आख़िरकार मंगलवार को हो गया और एनसीपी को तोड़कर सरकार बनाने की बीजेपी की कोशिशें विफल हो गईं.
सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर बुधवार को विधानसभा में बहुमत परीक्षण होना था लेकिन उससे पहले ही मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस और उपमुख्यमंत्री अजित पवार ने इस्तीफ़ा दे दिया.
इस तरह महाराष्ट्र में ग़ैर-बीजेपी सरकार बनने का रास्ता साफ़ हो गया है.
इस सरकार में मुख्यमंत्री की कुर्सी शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे संभालेंगे लेकिन बहुत से जानकार इस पूरे घटनाक्रम का सबसे बड़ा विजेता शरद पवार को मान रहे हैं.
अमित शाह के नेतृत्व में बीजेपी के सामने ये पहला मौक़ा है, जब वह इतनी ज़्यादा सीटें हासिल करने के बाद भी सत्ता से बाहर हो गई है.
इससे पहले बीजेपी गोवा और हरियाणा जैसे राज्यों में बहुमत से दूर रहने के बावजूद सरकार बनाने में सफल रही थी.
कर्नाटक में सरकार बनाने के लिए भी बीजेपी ने कोई कसर नहीं छोड़ी थी.
महाराष्ट्र में भी अजित पवार को साथ लेकर अलसुबह देवेंद्र फडणवीस को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला ही दी गई थी, लेकिन शरद पवार की आक्रामकता और परिपक्वता ने उसके अरमानों पर पानी फेर दिया.

हारी हुई बाजी कैसे जीते पवार

वरिष्ठ पत्रकार सुजाता आनंदन कहती हैं कि उन्होंने अपने पत्रकारीय करियर में ऐसा राजनीतिक खेल कभी नहीं देखा था.
वह कहती हैं, "जब भी कोई पार्टी सरकार बनाने का दावा पेश करती है तो उनके पास नंबर्स होते हैं. इस खेल के पटाक्षेप से साफ़ हुआ कि अजित पवार के साथ दस-बारह विधायक ही थे और बाद में वे भी नहीं रहे. शरद पवार ने अपने 54 में से 53 विधायकों को अपने पक्ष में दर्शा दिया. सिर्फ अजित पवार बचे थे तो उन्होंने मंगलवार को उपमुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़ा दे दिया. शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस अपने विधायकों को साथ रखने में कामयाब हुए."
सुजाता आनंदन मानती हैं कि इस खेल में ज़्यादा नुकसान बीजेपी और देवेंद्र फडणवीस का हुआ क्योंकि 'अजित पवार तो सेफ़ गेम खेल रहे थे'.
बीजेपी और एनसीपी के बीच तनातनी का सिलसिला महाराष्ट्र चुनाव से पहले ही शुरू हो गया था.
चुनाव प्रचार अपने चरम पर था. लेकिन इसके साथ ही प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) की टीमें शरद पवार के भतीजे अजित पवार के ख़िलाफ़ छापे मार रही थीं. इसके बाद अजित पवार ने विधायक पद से इस्तीफ़ा भी दे दिया था.
महाराष्ट्र चुनाव प्रचार के दौरान ही ईडी ने एनसीपी चीफ़ शरद पवार के ख़िलाफ़ भी मनी लॉन्ड्रिंग का मुक़दमा दर्ज किया.
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इस सबके बीच ये माना जा रहा था कि शरद पवार की बढ़ती उम्र के साथ एनसीपी अपने अंत की ओर बढ़ रही है.
लेकिन शरद पवार ने अपने दम पर महाराष्ट्र चुनाव में भारी मेहनत करते हुए 100 से ज़्यादा सभाएं कीं.
कांग्रेस के साथ गठबंधन करके पवार ने 125 टिकट हासिल किए जिसका कांग्रेस में विरोध भी हुआ.
सुजाता आनंदन बताती हैं, "जब सोनिया गांधी को पता चला कि कांग्रेस के अंदर एनसीपी को 125 सीटें दिए जाने का विरोध किया जा रहा है. क्योंकि कांग्रेस के कुछ नेता कह रहे थे कि सोनिया गांधी ने आख़िर किस आधार पर एनसीपी को 125 सीटें दे दीं जबकि एनसीपी 100 सीटों पर भी तैयार हो जाती."
"विरोध के इन स्वरों पर कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी ने कांग्रेस नेताओं से कहा कि अगर वे महाराष्ट्र में शरद पवार के क़द का कोई नेता लाकर खड़ा कर दें तो वे उनकी बात मान लेंगी. इसके बाद कांग्रेस नेताओं को कोई ऐसा नेता नहीं मिला. इस तरह ये विरोध ख़त्म हुआ. सोनिया गांधी ने महाराष्ट्र चुनाव को लेकर शरद पवार पर पूरा भरोसा भी किया."
"वहीं, शरद पवार ने भी अपनी 125 सीटों के साथ-साथ कांग्रेस की सीटों पर भी उतनी तत्परता के साथ चुनाव प्रचार किया जितना उन्होंने एनसीपी की सीटों पर किया था. इसके बाद चुनावी नतीजे आए जिनमें एनसीपी को 54 और कांग्रेस को 44 सीटें मिलीं. वहीं, बीजेपी को 105 और शिव सेना को 56 सीटें मिलीं."
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'तीन बार पंगा'

सुजाता कहती हैं कि बीजेपी को एनसीपी से तीन बार 'पंगा लेना' भारी पड़ गया.
वह कहती हैं, "चुनाव से पहले उन्होंने एनसीपी के बड़े नेताओं को तोड़ लिया. फिर ईडी का केस दर्ज कर दिया और तीसरी बार उनके परिवार में ही फूट डाल दी. पवार चुप नहीं बैठने वाले थे. उन्होंने संवैधानिक और क़ानूनी तरीक़े से बीजेपी को मात दे दी."
सुजाता मानती हैं कि शरद पवार की कामयाबी के पीछे बीजेपी की ग़लतियां भी थीं. वो कहती हैं कि बीजेपी ने ज़मीनी हालात की अनदेखी की और शिवसेना को ज़रूरी सम्मान नहीं दिया.
उनके मुताबिक, "हमने अपेक्षा की थी कि नतीजों में कांग्रेस को 10-15 और एनसीपी को 20-22 सीटों से ज़्यादा नहीं मिलेंगी. लेकिन उन्हें इससे कहीं ज़्यादा सीटें इसलिए आईं क्योंकि उनका वोट पूरी तरह ग़ैर-हिंदुत्व वोट था. जब बीजेपी 105 सीटों पर सिमट गई थी तो उसे शिव सेना की मांगों का सम्मान करना चाहिए था."

क्या पवार ने शाह को दी शह और मात

राजनीतिक गलियारों में इस समय चर्चा चल रही है कि क्या राजनीति की शतरंज में शरद पवार ने अमित शाह को शह और मात दे दी है.
महाराष्ट्र की राजनीति को करीब से समझने वाले वरिष्ठ पत्रकार गिरीश कुबेर इससे सहमत नज़र आते हैं.
वे कहते हैं, "ये बात सही है कि शरद पवार ने बेहद राजनीतिक समझदारी से इस गठबंधन को बनाने में सफलता हासिल की है. अमित शाह अरुणाचल प्रदेश, मिज़ोरम, सिक्किम और गोवा के हिसाब से महाराष्ट्र में भी सरकार बनाना चाह रहे थे. लेकिन उन्होंने महाराष्ट्र को समझा ही नहीं. वो ऐसे खेल रहे थे जैसे यह बच्चों का खेल हो और वो जो चाहे कर सकते हैं. महाराष्ट्र में यह नहीं चल सकता था क्योंकि यहां प्रतिरोध की राजनीति की एक परंपरा रही है."
गिरीश कुबेर मानते हैं कि इस घटनाक्रम से सबसे ज़्यादा फायदा एनसीपी को हुआ है और आगे भी होगा.
वे कहते हैं, "ये पूरी बात तब शुरू हुई जब चुनावी नतीजे आने के बाद शरद पवार अपनी गाड़ी में बैठकर बारामती की ओर जा रहे थे. इस दौरान रास्ते में ही उन्हें संजय राउत का फ़ोन आया जिसमें उन्होंने कहा कि फिलहाल तो शिवसेना बीजेपी के साथ ही जा रही है, लेकिन क्या ये संभव है कि एनसीपी-कांग्रेस और शिवसेना साथ मिलकर सरकार बना सकें."
"पवार और राउत के बीच इस चर्चा के कुछ दिन बाद देवेंद्र फडणवीस ने सार्वजनिक तौर पर अगले पाँच सालों के लिए बीजेपी का मुख्यमंत्री रहने पर बात कर दी. ये वो घटना थी जिसने इस समय जो गठबंधन शक्ल ले रहा है, उसकी एक तरह से नींव रख दी. इसके बाद पवार धीरे-धीरे अपना क़द बढ़ाते चले गए. उन्होंने खुलकर कभी कुछ नहीं कहा लेकिन इस पूरी कवायद में सबसे बड़ा फायदा उनकी पार्टी को ही मिल रहा है."
गिरीश कुबेर कहते हैं कि नतीजों के बाद बीजेपी के लोग एक अघोषित अभियान के तहत पहले से ही कहने लगे थे कि शरद पवार उनके साथ आने वाले हैं. लेकिन शरद पवार के कई दशकों का राजनीतिक इतिहास सेक्युलर रहा है. उन्हें समझने में बीजेपी से चूक हो गई. और पहली बड़ी चूक शिवसेना को सम्मान न देने की हुई.
वो कहते हैं, "वो न अपने दोस्त को समझ सके, न दुश्मन को. महाराष्ट्र में दो ही नेता ऐसे हुए हैं जिन्हें पूरे महाराष्ट्र की शानदार समझ रही. शरद पवार और प्रमोद महाजन. महाराष्ट्र की राजनीति की समझ में बीजेपी कच्ची रह गई."
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तीन गुटों की सरकार कितनी स्थिर होगी?

महाराष्ट्र में बनने जा रही नई सरकार के घटक दल राजनीतिक विचारधारा और हानि-लाभ के आधार पर एक दूसरे से काफ़ी दूर हैं.
शिवसेना राम मंदिर से लेकर तमाम दूसरे मुद्दों पर हिंदुत्व वोटबैंक को अपनी ओर खींचने की कोशिश करती हुई दिख रही है.
वहीं, एनसीपी ने अतीत में कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी को विदेशी मूल की महिला कहकर उनका विरोध किया है.
कांग्रेस की राजनीति धर्मनिरपेक्षता के मुद्दे पर केंद्रित रही है.
ऐसे में सवाल उठता है कि विरोधाभासी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं और विचारधाराओं वाली इन तीन पार्टियों की साझा सरकार कितने दिन चल पाएगी. और अगर ऐसा हुआ भी तो इससे किसको फ़ायदा होगा और किसको नुक़सान.
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गिरीश कुबेर इस सवाल के जवाब में कहते हैं कि ये सरकार रहे या गिर जाए लेकिन शिवसेना को इसका नुक़सान होना तय है.
वे बताते हैं, "शिवसेना का जन्म ही हुआ था कांग्रेस के विरोध में. और इस सरकार के भविष्य पर सवाल उठाया जाना लाज़मी है क्योंकि सरकार चलाना सिर्फ़ अंकगणित का खेल नहीं है. इसके लिए सामंजस्यता और तालमेल की ज़रूरत होती है."
वो कहते हैं, "फर्ज कीजिए कि बीजेपी अगर महाराष्ट्र में एनआरसी का मुद्दा छेड़ती है तो इन तीनों पार्टियों का रवैया क्या होगा. क्योंकि इसके मार्फत गैर-मुस्लिम राजनीति की जा रही है. ऐसे में शिवसेना क्या करेगी?
इसे छोड़ भी दें तो शिवसेना हिंदुत्व के मुद्दे पर राजनीति कर रही है. उद्धव ठाकरे अयोध्या जाते हैं. वे खुलकर कहते हैं कि राम मंदिर बनना चाहिए. ऐसे में अगर ठाकरे आगे चलकर भी इसी तरह की बयानबाजी करते हैं तो कांग्रेस क्या करेगी? ऐसे में कांग्रेस को महाराष्ट्र के बाहर इन मुद्दों पर सवाल उठाए जाएंगे और उनके पास इन सवालों के जवाब देना मुश्किल होगा."
गिरीश कुबेर बताते हैं कि अगर किसी स्थिति में ये सरकार गिरती है तो इसमें भी एनसीपी का ही फायदा होगा क्योंकि उन्होंने महाराष्ट्र में अपनी ताक़त दिखा दी है.
वह कहते हैं, "सरकार गिरने पर बीजेपी पूरी ताक़त के साथ कहेगी कि अब हमें सरकार चलाने का मौक़ा मिलना चाहिए. और उस स्थिति में शिवसेना कहां जाएगी, ये वक़्त बताएगा. लेकिन इतना ज़रूर है कि सबसे बड़ा फ़ायदा एनसीपी को होगा."
इन तीन दलों की सरकार का भविष्य क्या होगा, ये इस बात पर तय होगा कि इन पार्टियों के कॉमन मिनिमम प्रोग्राम पर कैसा अमल होता है और ये पार्टियां सरकार चलाने को लेकर कितनी समर्पित रहती हैं.
गिरीश कुबेर इस घटना की तुलना ज्वार भाटे से करते हैं. वो कहते हैं, "महाराष्ट्र में बीजेपी के लिए ज्वार पहले हो चुका है और अब भाटे की शुरुआत है. महाराष्ट्र में बीजेपी की नाकामी का एक संदेश राष्ट्रीय स्तर पर ज़रूर जाएगा."

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