भीमा कोरेगांव हिंसा के 2 साल बाद आज क्या हो रहा


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महाराष्ट्र के उप मुख्यमंत्री अजित पवार और प्रकाश आंबेडकर ने बुधवार भीमा कोरेगांव युद्ध में मरने वाले योद्धाओं को पुणे स्थित भीमा कोरेगांव में बने विजय स्तंभ पर जाकर श्रद्धांजलि दी.
इस दौरान पवार ने लोगों से शांति बनाए रखने की अपील की है.
उन्होंने कहा है, "इस स्तंभ का अपना इतिहास है. हर साल लाखों लोग यहां आते हैं. दो साल पहले कुछ दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं सामने आई थीं. लेकिन सरकार हर तरह की सावधानी बरत रही है और पुलिस का बंदोबस्त ठीक है ताकि किसी भी तरह की दुर्भाग्यपूर्ण घटना न हो."
दो साल पहले ठीक आज के ही दिन यानी 1 जनवरी 2018 को महाराष्ट्र के भीमा कोरेगांव में पेशवा बाजीराव पर ब्रिटिश सैनिकों की जीत जश्न मनाया जा रहा था, तब हिंसा भड़क उठी जिसमें एक शख़्स की जान गई और उस दौरान कई वाहन भी फूंके गए थे.
हर साल पहली जनवरी को भीमा कोरेगांव में दलित समुदाय बड़ी संख्या में जुटकर उन दलितों को श्रद्धांजलि देते हैं जिन्होंने 1818 में पेशवा की सेना के ख़िलाफ़ लड़ते हुए अपने प्राण गंवाये थे.



कोरेगांव में भड़की हिंसा के बाद क्या हुआ?

2018 में पहली जनवरी को क्या हुआ था?

2018 का साल का इस आयोजन के लिए बेहद ख़ास था क्योंकि उस दिन भीमा कोरेगांव की लड़ाई के दो सौ साल पूरे हो रहे थे.
पहली जनवरी को भीमा नदी के किनारे स्थित मेमोरियल के पास दिन के 12 बजे जब लोग अपने नायकों को श्रद्धांजलि देने इकट्ठा होने लगे तभी हिंसा भड़की.
पत्थरबाज़ी हुई और भीड़ ने खुले में खड़ी गाड़ियों को आग के हवाले कर दिया. स्थानीय पत्रकार ध्यानेश्वर मेडगुले ने बताते हैं, "कुछ ही देर में हालात बेक़ाबू हो गए. इलाक़े में बड़ी तादाद में लोग मौजूद थे और जल्द ही पुलिसवाले भीड़ की तुलना में कम पड़ गए. भगदड़ की स्थिति बन गई."
पुणे ग्रामीण के पुलिस सुपरिटेंडेंट सुवेज़ हक़ ने बीते वर्ष बीबीसी को बताया, "दो गुटों के बीच झड़प हुई और तभी पत्थरबाज़ी शुरू हो गई. पुलिस फौरन हरकत में आई. हालात पर काबू पाने के लिए हमें आंसू गैस और लाठी चार्ज का इस्तेमाल करना पड़ा. इसमें एक व्यक्ति की मौत हुई और 80 गाड़ियों को नुक़सान पहुंचा है."

सांकेतिक तस्वीरइमेज कॉपीरइटALASTAIR GRANT/AFP/GETTY IMAGES
Image captionसांकेतिक तस्वीर

भीमा कोरेगांव में दलित क्यों मनाते हैं जश्न?

साल के पहले दिन हज़ारों दलित पुणे के भीमा कोरेगांव में स्थित वॉर मेमोरियल पर इकट्ठा होते हैं. इस जगह को दलित अपने लिए पवित्र मानते हैं.
कहा जाता है कि भीमा कोरेगांव की लड़ाई 1 जनवरी, 1818 को ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना और पेशाओं के नेतृत्व वाली मराठा सेना के बीच हुई थी.
इस लड़ाई में मराठाओं की हार हुई और जीत का सेहरा ईस्ट इंडिया कंपनी की महार रेजिमेंट के सिर बंधा. महार समुदाय उस वक्त महाराष्ट्र में अछूत समझा जाता था.

भीमा कोरेंगाव

माना जाता है कि ब्रिटिश सेना में शामिल दलितों (महार) ने मराठों को नहीं बल्कि ब्राह्मणों (पेशवा) को हराया था.
इतिहासकार और आलोचक प्रो. रुषिकेश काम्बले कोरेगांव भीमा का दावा है कि महारों ने मराठों को नहीं बल्कि ब्राह्मणों को हराया था.
ब्राह्मणों ने छुआछूत जबरन दलितों पर थोप दिया था और वो इससे नाराज़ थे. जब महारो ने ब्राह्मणों से इसे ख़त्म करने को कहा तो वे नहीं माने और इसी वजह से वो ब्रिटिश फ़ौज से मिल गए.
ब्रिटिश फ़ौज ने महारों को ट्रेनिंग दी और पेशवाई के ख़िलाफ़ लड़ने की प्रेरणा दी. मराठा शक्ति के नाम पर जो ब्राह्मणों की पेशवाई थी ये लड़ाई दरअसल, उनके ख़िलाफ़ थी और महारों ने उन्हें हराया. ये मराठों के ख़िलाफ़ लड़ाई तो कतई नहीं थी.
काम्बले कहते हैं कि महारों और मराठों के ख़िलाफ़ किसी तरह का मतभेद या झगड़ा था, ऐसा इतिहास में कहीं नहीं है. अगर ब्राह्मण छुआछूत ख़त्म कर देते तो शायद ये लड़ाई नहीं होती.



दलितों के गीतों में ज़िंदा हैं अंबेडकर

वो कहते हैं कि मराठों का नाम इसमें इसलिए लाया जाता है क्योंकि ब्राह्मणों ने मराठों से पेशवाई छीनी थी. ये आखिरी पेशवा ताकत थी और ब्रिटिश उन्हें हराना चाहते थे. इसीलिए ब्रितानी फ़ौज ने महारों को साथ लिया और पेशवा राज ख़त्म कर दिया.
साल 1927 में भीमराव आंबेडकर ने इस वॉर मेमोरियल का दौरा किया और इन सैनिकों को श्रद्धांजलि दी. और इसके बाद महार समुदाय ने अगड़ी जाति के पेशवाओं पर मिली जीत की याद में इस दिन को मनाना शुरू किया.
हर साल यहां विशेष समारोह आयोजित किए जाते हैं और देश भर से हज़ारों लोग इसमें शरीक होते हैं.



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