चीन और भारत की तनातनी में क्या करेगा रूस, किसका देगा साथ


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दो लोगों के बीच लड़ाई होती है, तो अक्सर बीच बचाव की कोशिश एक ऐसे तीसरे दोस्त को करनी होती है, जो दोनों का अच्छा दोस्त रहा हो.
भारत-चीन तनाव के बीच में रूस भी ऐसा ही दोस्त साबित होगा, इस पर चर्चा शुरू हो गई है.
भारत और चीन के बीच फ़िलहाल सीमा पर तनाव है. जून में गलवान घाटी में था. फ़िलहाल पैंगोंग त्सो के दक्षिणी तट पर दोनों देशों के सैनिकों के बीच तनाव बना हुआ है.
ऐसे में कुछ भारतीय मीडिया चैनलों में रिपोर्ट है कि चीन के रक्षा मंत्री वेई फ़ेंघे ने भारत के रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह से बातचीत का समय माँगा है. राजनाथ सिंह इस समय शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की बैठक में हिस्सा लेने के लिए मॉस्को में हैं.
एससीओ में विदेश मंत्रियों की बैठक में भी भारत-चीन के विदेश मंत्रियों के बीच बातचीत हो सकती है, इसकी भी सुगबुगाहट तेज़ है.
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पिछले तीन महीने में ये दूसरा मौक़ा है जब भारत के रक्षा मंत्री रूस गए हैं. इससे पहले जून में भी रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह तीन दिवसीय रूस यात्रा पर थे. मौक़ा था दूसरे विश्व युद्ध में नाज़ी जर्मनी पर सोवियत विजय की 75वीं वर्षगांठ का.
उस वक़्त भी दोनों देशों के प्रतिनिधियों के मिलने की बात हुई थी. लेकिन बातचीत नहीं हुई. ये महज़ संयोग हो सकता है कि जब जब राजनाथ सिंह रूस जाते हैं, बातचीत की परिस्थितियाँ बनती नज़र आती हैं.
कोरोना के दौर में जब तमाम मंत्री बहुत कम विदेश यात्रा कर रहे हैं, तब भी तीन महीने में भारत के रक्षा मंत्री दो बार रूस ही गए, ये भी संयोग हो सकता है.
क्या इन दोनों संयोग के बीच ऐसा प्रयोग हो सकता है कि रूस दोनों देशों के तनाव को कम करने में कोई भूमिका निभाए? इस सवाल के जवाब के लिए पिछले कुछ दशकों के इतिहास को टटोलने की ज़रूरत होगी.
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1962 से 2020 तक

1962 के भारत-चीन युद्ध में रूस दोनों देशों में से किसी के साथ खड़ा नहीं था. तब सोवियत संघ का पतन नहीं हुआ था और वैचारिक स्तर पर चीन-रूस काफ़ी क़रीब थे. उस युद्ध को रूस ने भाई और दोस्त के बीच की लड़ाई कहा था. रूस ने चीन को भाई कहा था और भारत को दोस्त. आज की तारीख़ में जब एक बार फिर से चीन और भारत के बीच तनाव है तब सोवियत संघ कई देशों में बंट चुका है.
जब तक सोवियत संघ रहा तब तक दुनिया दो ध्रुवीय रही. आज की तारीख़ में भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर के शब्दों में कहें तो दुनिया मल्टी पोलर' हो गई है. यानी एक साथ कई ध्रुव बन गए हैं.
अमरीका अपना प्रभाव बरक़रार रखने के लिए एशिया प्रशांत में अपना दबदबा क़ायम रखना चाहता है. दूसरी तरफ़ चीन है जो अमरीका को कई मोर्चों पर चुनौती दे रहा है. तीसरी तरफ़ रूस भी सीरिया और यूक्रेन में अपनी भूमिका को लेकर यूरोप और अमरीका के निशाने पर है. एक चौथा मोर्चा अरब देशों का है जिनमें आपस में फ़िलहाल ख़ुद ही मतभेद चल रहे हैं, लेकिन कुछ ईरान के साथ हैं तो कुछ को सऊदी अरब अपने साथ रखने की कोशिश कर रहा है.
अमरीका और चीन की बन नहीं रही. चीन-भारत तनाव में अमरीका खुल कर भारत के साथ खड़ा है. इसलिए वो बीच में मध्यस्थता कर नहीं सकता. चीन की पाकिस्तान से बनती है, जो भारत का पहले से ही दुश्मन देश है. इसलिए पाकिस्तान के बीच-बचाव की कोशिश का सवाल ही नहीं उठता.
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मध्यस्थ की भूमिका

ऐसे में रूस इकलौता ऐसा देश बचता है, जो चीन और भारत दोनों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध हैं. इन्हीं संभावनाओं के बारे में बीबीसी ने बात की जेएनयू के प्रोफ़ेसर संजय पांडे से. प्रोफेसर संजय पांडे सेंटर फॉर रसियन स्टडी में प्रोफ़ेसर हैं.
बीबीसी से बातचीत में उन्होंने कहा कि भारत तनाव में रूस बिलकुल भूमिका निभा सकता है लेकिन खुल कर नहीं, केवल परोक्ष रूप से.
प्रोफेसर पांडे कहते हैं, "2017 में डोकलाम विवाद के समय भी रूस ने परोक्ष रूप से चीन को ये सलाह दी थी कि बातचीत के माध्यम से इस विवाद को सुझलाना चाहिए."
पिछले तीन महीने से पूर्वी लद्दाख सीमा पर जो कुछ चल रहा है उसमें तो आधिकारिक तौर पर रूस का स्टैंड है कि ये दो देशों के बीच का आपसी मसला है, दोनों हमारे मित्र हैं और इसलिए दोनों इसे ख़ुद सुलझाए.
प्रोफेसर संजय कहते हैं कि परोक्ष रूप से रूस की तरफ़ से कोशिशें जारी हैं. केवल भारत के रक्षा मंत्री के रूस के दो दौरों पर ही नहीं बल्कि दूसरे स्तर की बातचीत में भी भारत के साथ चीन के सीमा तनाव की चर्चा हुई है. हालाँकि ऐसी कोई बातचीत किसी भी स्तर पर रूस और चीन के बीच अभी नहीं हुई है.
लेकिन वो ये भी साफ़ कहते हैं कि रूस, चीन के विरुद्ध नहीं जाएगा. बिना चीन के विरुद्ध गए वो भारत की जितनी मदद कर सकता है वो ज़रूर करेगा. रूस ने ख़ुद इस बात का भरोसा भारत को दिलाया है.
भारत को सुखोई और मिग-21 दोनों की सप्लाई में रूस ने तेज़ी लाने का वादा भी किया है. प्रोफ़ेसर संजय कहते हैं कि ये अपने आप में दिखाता है कि रूस भारत की परोक्ष रूप से मदद करने को तैयार है. चीन की सरकार ने रूस के इस क़दम पर कोई आपत्ति भी नहीं जताई है.
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रूस और भारत के रिश्ते

भारत और रूस हमेशा से दोस्त रहे हैं. स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट (SIPRI) की वार्षिक रिपोर्ट के मुताबिक़ भारत सैन्य उत्पादों की सबसे ज़्यादा ख़रीदारी रूस से करता है. उसके बाद अमरीका, इसराइल और फ़्रांस का नंबर आता है.
पिछले कुछ सालों में रूस से ख़रीददारी में कुछ कमी ज़रूर आई है, लेकिन अमरीका हमेशा चाहता है कि भारत रूस से ज़्यादा सामान अमरीका से ख़रीदे. इसी वजह से रूस से एस400 ख़रीदने में भी भारत की डील में देरी हुई.
अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार और ऑब्ज़र्वर रिसर्च फ़ाउंडेशन में स्ट्रैटेजिक स्टडी प्रोग्राम के हेड, प्रोफ़ेसर हर्ष पंत के अनुसार दोनों देशों के रिश्तों में चीज़ें इतनी सपाट नहीं हैं, जितनी दिखती है. जून के महीने में राजनाथ सिंह के रूस दौरे पर प्रोफ़ेसर हर्ष पंत ने बीबीसी से बात की थी.
प्रोफ़ेसर हर्ष के अनुसार 'रूस में अच्छे तरीक़े से यह समझ है कि भारत एक लोकतांत्रिक देश है, जबकि चीन सर्वसत्तावादी या कहें एक क़िस्म की तानाशाही वाला देश है, इसलिए रूस भारत के साथ अपने संबंध ज़्यादा प्रेमपूर्ण मानता है और यही भारत और रूस के पुराने-घनिष्ट संबंधों का आधार है. लेकिन बीते एक दशक में परिस्थितियाँ बदली हैं, देखा गया है कि चीन के साथ रूस के संबंध मज़बूत होते जा रहे हैं.'
वो कहते हैं, "रूस के लिए भी परिस्थितियाँ कम चुनौतीपूर्ण नहीं हैं. आबादी पाकिस्तान से भी कम है और क्षेत्रफल बहुत ज़्यादा जो यूरोप से एशिया तक फैला है. फिर अमरीका तो दुनिया भर में बेस बना लेता है, लेकिन रूस के लिए चुनौती है कि इतना बड़ा क्षेत्रफल है जिसकी तकनीक की मदद से रक्षा करनी है और अपनी सीमाओं के चारों ओर दुश्मनी का माहौल वो बर्दाश्त नहीं कर सकता. रूस की पूर्वी सीमा जो चीन से मिलती है, वहाँ रूस तनाव बिल्कुल नहीं चाहता और चीन इस बात का फ़ायदा उठाता है. दूसरी ओर रूस की अमरीका और उसके सहयोगी कुछ यूरोपीय देशों से भी खींचतान है. ऐसे में रूस के पास भी सीमित विकल्प बचते हैं."
मॉस्को में मौजूद भारतीय राजदूत ने भी रूस के सामने भारत की चिंताएं कुछ वक़्त पहले रखी थीं और रूस ने पूरा आश्वासन दिया था कि चीन के साथ भारत का विवाद यदि बढ़ता है तो उसे शांतिपूर्ण ढंग से हल करने की तमाम कोशिशें की जाएंगी.
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चीन और रूस के रिश्ते

यहाँ एक बात और ग़ौर करने वाली है. आर्थिक रूप से चीन रूस से ज़्यादा समृद्ध माना जाता है. वर्तमान परिस्थिति में चीन ख़ुद को अमरीका के बराबर का सुपरपॉवर भी मानने लगा है, ऐसी स्थिति में चीन रूस की क्यों सुनेगा?
इस सवाल के जवाब में प्रोफ़ेसर संजय कहते हैं, "चीन मध्यस्थ की भूमिका में रूस के अलावा किसी तीसरे देश की सुनेगा भी नहीं. विश्व में जिस तरह का ध्रुवीकरण चल रहा है उसमें चीन को फ़िलहाल रूस की आवश्यकता है."
अमरीका से जिस तरह से चीन के संबंध कोरोना के दौर में ख़राब हुए हैं और आर्थिक,सामरिक, राजनैतिक हर क्षेत्र में चीन अमरीका के बीच तनाव बढ़ रहा है ऐसी सूरत में अमरीका से निपटने के लिए चीन को रूस के साथ ही ज़रूरत है. शीत युद्ध के बाद रूस भले अमरीका की तुलना में कमज़ोर हुआ, लेकिन अगर वो आज भी किसी देश के साथ खड़ा होता है तो अमरीका के कान खड़े हो जाते हैं. अगर ग़लती से भी रूस अमरीका के साथ चला जाए, जिसकी संभावना निकट भविष्य में ना के बराबर है, तब तो चीन की परिस्थितियाँ बिलकुल ही बदल जाएंगी.
रूस और चीन के बीच की दोस्ती कोई स्वाभाविक और पारंपरिक नहीं है. दोनों देशों के बीच सदियों के अविश्वास और संघर्ष की कड़वी यादें हैं. इनमें 1968 में दोनों देशों के बीच दमेंस्की द्वीप को लेकर सैन्य संघर्ष भी हो चुका है.
हालांकि दोनों देशों ने 4000 किलोमीटर से ज़्यादा का सीमा विवाद साल 2000 में सुलझा लिया. जिस दमेंस्की द्वीप को लेकर 1968 में चीन और रूस भिड़ चुके थे वो सीमा समझौते के तहत चीन के पास है.
पिछले कुछ दिनों में चीन और रूस के बीच भी कुछ मामलों को लेकर कर विवाद चल रहा है. ख़बरें हैं कि रूस द्वारा चीन को एस-400 मिसाइल की सप्लाई पर अस्थाई रोक लगा दी गई है. हालाँकि इसकी पुष्टि नहीं हो पाई है लेकिन इस रोक के पीछे की वजह भारत चीन सीमा तनाव नहीं बल्कि जासूसी चीन द्वारा रूस की जासूसी है.
रूस खुल कर इस बात को स्वीकार नहीं करता लेकिन उसके अंदर ये डर है कि लंबे समय में चीन उसके लिए ख़तरा बन सकता है.
रूस के चीन से जितने भी अच्छे संबंध हो लेकिन वो कभी नहीं चाहता कि चीन इस इलाक़े में महाशक्ति बने और उसकी जगह दुनिया के शक्तिशाली देशों में और रूस और निचले पायदान पर जाए. यूएन के सुरक्षा परिषद में आज भी रूस भारत का खुलकर समर्थन करता है.
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