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भारत-पाकिस्तान बासमती चावल के जीआई टैग को लेकर क्यों आमने-सामने हैं?

  • विशाल शुक्ला
  • बीबीसी संवाददाता
चावल

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साल 1962 की बात है. ब्रिटेन का रहने वाला एक केमिकल इंजीनियर, जो एग्रीकल्चर की फ़ील्ड में काम करता था, अमेरिका आया. अमेरिका की सुपरमार्केट्स में घूमते हुए उसे ये हैरानी हुई कि बासमती चावल यहां दुकानों में क्यों नहीं बिकता है.

अमेरिकी इसे सिर्फ़ रेस्त्रां में ही क्यों खाते हैं? लंदन में अक्सर बासमती चावल का लुत्फ़ उठानेवाले इस शख़्स के ज़ेहन में ये ख़याल घर कर गया, पर फिर वो चावल पर रिसर्च के अपने कामकाज में मसरूफ़ हो गया.

1987 में उसने अमेरिका के टेक्सस में 'फ़ार्म्स ऑफ़ टेक्सस' नाम की कंपनी जॉइन की, जो 1990 में राइसटेक (RiceTec, Inc) के नाम से जानी गई. ये शख़्स सिर्फ़ चावल बेचने वाली 100 कर्मचारियों की इस कंपनी का पहला सीईओ था.

राइसटेक में रहते हुए इस शख़्स ने टेक्सस के लंबे दाने वाले चावल और भारत के बासमती चावल को मिलाकर एक हाइब्रिड बीज तैयार किया और इसे नाम दिया 'टेक्समती', अमेरिका का अपना बासमती.

चावल

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वैसे तो ये चावल पकने के बाद कहीं से बासमती की बराबरी नहीं करता था, लेकिन तब अमेरिका में दूसरे देशों से चावल आयात करने का चलन आज जितना नहीं था. मार्केट में कोई प्रतिद्वंद्वी तो था नहीं, ऐसे में देखते ही देखते इस चावल ने सुपरमार्केट्स की शेल्फ़ में अपनी जगह बना ली.

राइसटेक का चावल दूसरी क़िस्मों के मुक़ाबले चार से पांच गुना क़ीमत पर बिक रहा था और कंपनी हर साल क़रीब 70 लाख डॉलर का चावल बेच रही थी.

मज़े की बात ये है कि राइसटेक टेक्समती को 'एलिफ़ैन्ट', 'टिल्डा' और 'लाल क़िला' जैसे ब्रैंड नेम से बेच रही थी. बैंगनी रंग के इसके कुछ डिब्बों पर ताज महल भी बना होता था. सफलता का आलम ये था कि सीईओ ने राइसटेक को 'चावल का स्टारबक्स' क़रार दे दिया था.

राइसटेक को इस मक़ाम तक पहुंचाने वाले सीईओ का नाम था रॉबिन एंड्रयूस. ब्रितानी नफ़ासत से भरे शख़्स, जो जैगुआर से चलते थे और चाय के शौक़ीन थे.

चावल

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यहां तक की कहानी कड़ी मेहनत और लगन से हासिल हुई कामयाबी की इबारत लगती है, पर साल 1997 से रॉबिन और राइसटेक के सफ़ाइयां देने और पीछे हटने का दौर शुरू हुआ. वजह ये थी कि उन्होंने यूएस पेटेंट ऐंड ट्रेडमार्क ऑफ़िस से इन हाइब्रिड बासमती क़िस्मों का पेटेंट ले लिया था. फिर भारत-पाकिस्तान से शुरू हुआ इसका विरोध दुनियाभर में फैला और जो नतीजा आया, वो भारत-पाकिस्तान के साथ-साथ सभी विकासशील देशों के हक़ में था.

ये वाक़िआ जानकर ये बात और दिलचस्प लगती है कि जो भारत और पाकिस्तान 1947 तक एक ही ज़मीन थे... जो भारत और पाकिस्तान मानते हैं कि बासमती उन्हीं के यहां से पैदा होना शुरू हुआ... जो भारत और पाकिस्तान मानते हैं कि उनके यहां पैदा हुए बासमती से अच्छा बासमती कहीं और का हो ही नहीं सकता... आज 2021 में वही भारत और पाकिस्तान बासमती पर जीआई टैग हासिल करने के लिए एक-दूसरे के ख़िलाफ़ खड़े हैं.

पहले बात कर लेते हैं जीआई टैग जैसी टेक्निकल चीज़ की. फिर आगे की कहानी.

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चावल के 4042 दानों पर लिख दी गीता

जीआई टैग क्या है?

19वीं सदी में यूरोप के कुछ देशों को ये ख़याल आया कि उनके यहां खाने-पीने की जो सबसे उम्दा चीज़ें पैदा होती हैं या जिन्हें वो बनाते हैं, उन चीज़ों को एक तरह का संरक्षण मिलना चाहिए. ताकि कोई और उन्हीं का प्रोडक्ट बनाना, बेचना या उनके नाम पर बेवकूफ़ बनाना न शुरू कर दे. ये विचार कई देशों को रास आया.

फिर 20वीं सदी में फ़्रांस वो पहला देश था, जिसने जीआई सिस्टम शुरू किया और अपनी वाइन को ये सर्टिफ़िकेट दिया. जीआई यानी जियोग्राफ़िक इंडिकेशन टैग.

ये टैग बताता है कि फ़लां चीज़ किस देश में या किस जगह पैदा होती है या बनाई जाती है. किसी चीज़ के साथ जगह या देश का नाम जुड़ने का मतलब है कि वहां पैदा हुई या बनाई गई चीज़ का स्वाद ही सर्वश्रेष्ठ होगा. जैसे स्विट्ज़रलैंड का चीज़, फ़्रांस की वाइन, कोलंबिया की कॉफ़ी या दार्जिलिंग की चाय. ये एक क़िस्म का पेटेंट लेने जैसा है.

फिर जैसे-जैसे देश और दुनिया आगे बढ़े, तो व्यवस्था भी अडवांस हुई. अब जीआई टैग वर्ल्ड ट्रेड ऑर्गनाइज़ेशन (WTO) के 'अग्रीमेंट ऑन ट्रेड-रिलेटेड आस्पेक्ट्स ऑफ़ इंट्लेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट्स' (TRIPS) के ज़रिए हासिल किया जाता है. साथ ही, कई देशों में अपनी संस्थाएं भी हैं, जो घरेलू स्तर पर चीज़ों को जीआई टैग देती हैं. धीरे-धीरे ये व्यवस्था ऐसी बनी कि वैश्विक जीआई टैग हासिल करने के लिए पहले अपने ही देश में उस चीज़ को जीआई टैग मिलना ज़रूरी है.

मान लीजिए भारत किसी चीज़ के लिए जीआई टैग के लिए आवेदन करता है, तो बाक़ी देशों के पास इसके ख़िलाफ़ दावा करने के लिए तीन महीने का समय होता है. अगर किसी देश ने जीआई टैग के लिए आवेदन किया है या ले लिया है और किसी अन्य देश को इससे आपत्ति है, तो इस मामले में WTO में ले जाया जा सकता है और TRIPS के तहत कार्रवाई की जा सकती है.

जीआई टैग का मक़सद आज भी वही है. चीज़ों की गुणवत्ता बरक़रार रखना. फ़र्ज़ी दावों से चीज़ों की बिक्री रोकना. उत्पादकों के हितों और ग्राहकों को मिलने वाली गुणवत्ता की रक्षा करना.

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सांबर कहां से आया, किसने पहले बनाया?

तो भारत-पाकिस्तान जीआई टैग पर कहां लड़ लिए?

हुआ यूं कि भारत ने अपने यहां पैदा होने वाले बासमती को जीआई टैग देने के लिए ईयू में आवेदन किया. इस बारे में पता तब चला, जब 11 सितंबर 2020 को ईयू का एक आधिकारिक जर्नल प्रकाशित हुआ. जर्नल प्रकाशित होने तक ईयू में भारतीय बासमती को टैग दिए जाने को लेकर आंतरिक मूल्यांकन हो चुका था.

ये ख़बर सामने आने पर पाकिस्तान में हलचल मच गई, क्योंकि बासमती वहां भी पैदा होता है. भारत के बासमती को जीआई टैग मिलने का मतलब है कि फिर दुनियाभर में यही माना जाएगा कि असली और सबसे अच्छी गुणवत्ता का बासमती सिर्फ़ भारत में पैदा होता है. इसका असर पाकिस्तान के बासमती निर्यात पर पड़ेगा.

इसी के मद्देनज़र 5 अक्टूबर, 2020 को पाकिस्तान ने एलान किया कि वो भारत के दावे का विरोध करेगा. फिर 7 दिसंबर 2020 को पाकिस्तान ने ईयू में भारतीय दावे के ख़िलाफ़ नोटिस दिया. उस समय पाकिस्तान के साथ दिक़्क़त ये थी कि उनके यहां घरेलू स्तर पर जीआई टैग देने वाली संस्था नहीं थी. जैसा हमने आपको पहले बताया कि ईयू में आवेदन देने से पहले उत्पाद को अपने देश में जीआई टैग मिलना ज़रूरी है.

ऐसे में पहले वहां 2020 में जियोग्राफ़िकल इंडिकेशन (रजिस्ट्रेशन ऐंड प्रोटेक्शन) ऐक्ट बनाया गया. फिर 27 जनवरी 2021 को बासमती चावल को जीआई टैग दिया गया. इसके बाद पाकिस्तान ने ईयू में अपने बासमती को जीआई टैग देने के लिए आवेदन किया. राइस एक्सपोर्टर्स असोसिएशन ऑफ़ पाकिस्तान (REAP) के मुताबिक़ उनका आवेदन 5 मार्च, 2021 को स्वीकार कर लिया गया था.

ईयू के निर्देशों के हिसाब से 6 मई तक भारत और पाकिस्तान को ये मसला आपस में सुलझा लेना था, लेकिन ऐसा हुआ नहीं. ईयू से मिली मियाद ख़त्म होने के बाद भारत ने आवेदन किया कि अभी तक कोई समझौता नहीं हुआ है, तो इसके लिए तीन महीने का वक़्त और दिया जाए.

मार्च 2021 में भारत के केंद्रीय मंत्री हरदीप सिंह पुरी ने लोकसभा में एक लिखित जवाब में बताया था कि भारत ने 19 विदेशी ज्यूरिसडिक्शंस में बासमती को जीआई सर्टिफ़िकेशन के लिए आवेदन दिया है. उनके जवाब के मुताबिक़ ब्रिटेन, दक्षिण अफ़्रीका, न्यूज़ीलैंड और केन्या में भारतीय बासमती को जीआई मार्क और लोगो मिल भी गया है.

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चावल की ऐसी क़िस्म, जिसे पकाने के लिए उबालने की ज़रूरत नहीं पड़ती

कहां से आया है बासमती, जिस पर दोनों देश झगड़ रहे हैं?

वरिष्ठ कृषि विशेषज्ञ देवेंद्र शर्मा बीबीसी से बातचीत में याद करते हैं कि जब भारत राइसटेक कंपनी के ख़िलाफ़ अमेरिका में क़ानूनी लड़ाई लड़ रहा था, तब अपने दावे के पक्ष में भारत ने 50 हज़ार पन्नों के दस्तावेज़ पेश किए थे. इन पन्नों में एक ज़िक्र ये भी था कि बासमती भारत में सोहनी-महिवाल के वक़्त से उगाया जा रहा है. सोहनी-महिवाल सिंध-पंजाब प्रांत की एक दुखद प्रेम कहानी है, जिसका ज़िक्र 18वीं सदी से मिलता है.

भाषाविद् बताते हैं कि बासमती शब्द संस्कृति के वस (Vas) और मायप (mayup) शब्दों से मिलकर बना है. वस का अर्थ 'सुगंध' और मायप का अर्थ है 'गहरे तक जमा हुआ'. बताते हैं कि ये 'मायप' बाद में 'मती' हो गया, जिससे चावल को 'बासमती' नाम मिला. 'मती' का एक अर्थ 'रानी' भी बताया जाता है, जिससे बासमती का अर्थ बनता है 'सुगंध की रानी'. ऑक्सफ़र्ड डिक्शनरी में दर्ज 'Basmati' हिंदी के 'बासमती' से लिया गया है, जिसका शाब्दिक अर्थ 'सुगंध' होता है.

ऐतिहासिक दस्तावेज़ों की मानें, तो बासमती चावल भारतीय धरती पर सदियों से उगाया जाता रहा है. अरोमैटिक राइसेस (Aromatic Rices) किताब में इंडियन एग्रीकल्चरल रिसर्च इंस्टिट्यूट के वीपी सिंह अथर्ववेद में बासमती चावल का ज़िक्र होने की बात लिखते हैं. वो किताब में ये भी लिखते हैं कि हड़प्पा-मोहनजोदड़ो की खुदाई में इसके पुरातात्विक सुबूत मिलते हैं. ये जगह अब पाकिस्तान के पंजाब और सिंध प्रांत में है.

अहम बात ये है कि 1947 तक भारत और पाकिस्तान अलग-अलग नहीं थे. यही वजह है कि भारत के बासमती के लिए जीआई टैग का आवेदन करने पर पाकिस्तान की ओर से ये भी कहा गया कि ये सिर्फ़ विवाद बढ़ाने वाली बात है, क्योंकि भारत के पंजाब से पांच किलोमीटर दूर भी तो ये चावल सदियों से उगाया ही जा रहा है.

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चावल के ज़रिए यह शख़्स कैसे प्रकृति को बचा रहा है?

भारत-पाकिस्तान, दोनों के लिए इतना अहम क्यों है बासमती?

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अंतरराष्ट्रीय संबंधों के प्रोफ़ेसर रहे पुष्पेश पंत इतिहासकार भी हैं. दुनियाभर के व्यंजनों और खाने को लेकर उनका विद्या-रसिक व्यक्तित्व किसी ख़ज़ाने की तरह है. दोनों देशों के लिए बासमती की अहमियत के सवाल पर वो कहते हैं कि आप ये देखिए कि दोनों मुल्कों में बासमती का उत्पादन कब बढ़ा और फिर उसका इस्तेमाल क्या हुआ.

इसका जवाब है 1990 के बाद से उत्पादन और निर्यात में बढ़ोतरी. भारत में चावल उत्पादन और निर्यात ने 1990 के बाद ज़ोर पकड़ा. वहीं पाकिस्तान और पहले से चावल निर्यात कर रहा था, लेकिन इसमें मज़बूती 1990 के बाद आई.

दुनिया में जितना चावल पैदा होता है, उसका 90 फ़ीसदी उत्पादन और खपत एशिया में होती है. चावल की पैदावार में भारत दुनिया में दूसरे और निर्यात करने में पहले नंबर पर है. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक़ पिछले एक दशक से भारत दुनिया में सबसे ज़्यादा चावल निर्यात कर रहा है. वहीं पाकिस्तान भी 1990 के बाद से चावल निर्यात करनेवाले टॉप-5 देशों में लगातार बना हुआ है.

बासमती का हाल भी इससे अलग नहीं है. दुनिया में बासमती पैदा करने वाले दो ही मुख्य देश हैं- भारत और पाकिस्तान. भारत दुनिया का क़रीब 65 फ़ीसदी बासमती निर्यात करता है, जबकि बचे हुए मार्केट पर पाकिस्तान का क़ब्ज़ा है.

2019-20 में भारत ने कुल 44.5 लाख टन बासमती 31 हज़ार करोड़ रुपए में बेचा था. 2020-21 में अप्रैल से फ़रवरी के बीच भारत ने 41.5 लाख टन बासमती क़रीब 27 हज़ार करोड़ रुपए में बेचा था. संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक़ पाकिस्तान 2.2 बिलियन डॉलर क़ीमत का चावल निर्यात करता है. वहीं पाकिस्तानी मीडिया संस्थान डॉन के मुताबिक़ पाकिस्तान 800 मिलियन से एक बिलियन डॉलर क़ीमत तक का बासमती निर्यात करता है.

चावल

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जो बात इस आंकड़ेबाज़ी में छिपी है, वो ये है कि बासमती दोनों देशों की अर्थव्यवस्था में बेहद अहम योगदान अदा करता है. चूंकि इस मार्केट में भारत-पाकिस्तान के अलावा कोई और खिलाड़ी है नहीं, इसलिए दोनों देशों के बीच बाज़ार में बड़े क़ब्ज़े की होड़ भी है.

जीआई टैग का संघर्ष इसी होड़ का नतीजा है. ऐसा न होता, तो लाहौर की अल-बरकत राइस मिल के सह-मालिक ग़ुलाम मुर्तज़ा भारत के आवेदन पर ये न कहते कि 'ये तो हमारे ऊपर एटम बम गिराने जैसा है.'

बासमती जितना लोकप्रिय है, क्या उतना अच्छा भी है?

बासमती के मुरीद इसके लंबे दानों, महक और पकने पर हर दाना अलग-अलग रहने की तारीफ़ करते नहीं थकते हैं.

हालांकि, सच ये भी है कि लेखक हमेशा ही अपनी रुचियों के मुताबिक़ पसंदीदा चावलों का अतिरेकपूर्ण चित्रण करते रहे हैं. जैसे किसी चावल के पकने पर पूरे मोहल्ले को पता चल जाना, खाने पर सबसे अलग स्वाद महसूस होना या किसी चावल से ख़ास स्वास्थ्य लाभ होना. हालांकि, जानकार बासमती की लोकप्रियता पर सवाल भी उठाते हैं.

पुष्पेश पंत कहते हैं, "जीआई टैग तो फिर भी सॉफ़्ट पावर बनने का मसला है, लेकिन बासमती ओवररेटेड चावल है. वैदिक साहित्य में 'शालि' को सबसे अच्छी कोटि का चावल बताया गया है. वैसे भी छत्तीसगढ़ को तो हमारे यहां धान का कटोरा कहा जाता है, जहां धान की दो हज़ार से ज़्यादा वेरायटी हैं, लेकिन बासमती तो उनमें से एक नहीं है. गोविंदभोग बेहतरीन चावल है. बिहार में काला जीरा सबसे अहम चावल है. हां, देहरादून के बासमती को अच्छा माना जाता है, लेकिन इसके नाम पर बेवकूफ़ भी ख़ूब बनाया जाता है."

वरिष्ठ कृषि विशेषज्ञ देवेंद्र शर्मा भी ऐसी ही राय रखते हैं. वो कहते हैं, "भारत में 500 सेंटेड राइस हैं, लेकिन वरीयता हमेशा बासमती को दी जाती है. इसकी दो वजहें हैं. एक तो ये पकने पर लंबा हो जाता है और दूसरा इसकी मार्केटिंग ख़ूब की गई है. देश के अलग-अलग इलाक़ों में कई अच्छे सेंटेड राइस हैं. काला नमक ऐसा ही एक बढ़िया चावल है. सरकार और निर्यातक कंपनियों को इन चावलों को भी प्रमोट करना चाहिए. सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) के तहत हम क्यों नहीं पंजाब का चावल असम भेजते हैं."

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बांग्लादेश के इस कदम से भारत को होगा बंपर फायदा?

कहां जाता है भारत-पाकिस्तान का बासमती?

इस सवाल के जवाब से बासमती की राजनीति और व्यापार की एक और परत खुलती है. दुनिया का 65 फ़ीसदी बासमती निर्यात करनेवाले भारत की सबसे बड़े ग्राहक खाड़ी देश हैं. पिछले चार बरसों में ईरान, सऊदी अरब, इराक़, संयुक्त अरब अमीरात, कुवैत और यमन ने भारत से सबसे ज़्यादा बासमती ख़रीदा था. यही आंकड़े ये भी बताते हैं कि भारत के शीर्ष पांच आयातक यानी खाड़ी देश भारत का क़रीब 70 फ़ीसदी बासमती ख़रीदते हैं. वहीं पाकिस्तान का 40 फ़ीसदी बासमती यूरोप जाता है और बाक़ी ऑस्ट्रेलिया और खाड़ी देशों में निर्यात होता है.

पिछले कुछ बरसों में यूरोप में पाकिस्तानी बासमती की खपत बढ़ी है और इसकी बड़ी वजह पेस्टिसाइड्स हैं.

2018 में ईयू ने फ़सलों में इस्तेमाल होने वाले पेस्टिसाइड्स की मात्रा में बदलाव किया था. तो ईयू के पैमानों के हिसाब से भारत के बासमती में ट्राइसाइक्लाज़ोल (Tricyclazole) की मात्रा काफ़ी ज़्यादा पाई गई. ये फ़ंगस रोकने के लिए छिड़का जाता है. वहीं पाकिस्तान के बासमती में इसकी मात्रा कम थी, इसलिए यूरोपीय देश पाकिस्तान से ज़्यादा बासमती मंगाने लगे.

अगर भारत को जीआई टैग मिलता है, तो क्या यूरोपीय देशों जैसी जगहों पर बासमती निर्यात करने के लिए पेस्टिसाइड का छिड़काव कम करना होगा? इस सवाल के बदले में कृषि विशेषज्ञ देवेंद्र शर्मा बेहद मज़बूती से कहते हैं कि "ये असली सवाल नहीं है. असली सवाल ये है कि हमारे अपने खाने के लिए अच्छी क्वॉलिटी के खाने का इंतज़ाम क्यों नहीं होता? यूरोपीय देश पेस्टिसाइड ज़्यादा होने की वजह से जो चावल नहीं ख़रीद रहे हैं, उसे हम क्यों खा रहे हैं? हमें भारत में बासमती बेचनेवाली कंपनियों पर दबाव बनाना चाहिए कि वो न्यूनतम पेस्टिसाइड वाला अनाज मुहैया कराएं."

वहीं निर्यात की पॉलिटिक्स के सवाल पर पुष्पेश पंत कहते हैं कि "हमें समझना चाहिए कि बासमती जा कहां रहा है. अगर यूरोप में ब्रिटेन और ब्रिटेन में भी लंदन में ज़्यादा बासमती जा रहा है, तो इसकी एक वजह ये भी है कि वहां मुस्लिमों की अच्छी-ख़ासी तादाद है. वहीं बासमती का सबसे ज़्यादा इस्तेमाल बिरयानी और पुलाव में होता है. वो अलग बात है कि भारत का बासमती खाड़ी देशों में ज़्यादा जाता है, लेकिन जब बासमती का इस्तेमाल केवड़ा, केसर, दूध और गरम मसाले डालकर बिरयानी बनाने में किया जाता है, तो उसकी अपनी महक और स्वाद का कोई ख़ास महत्व रह नहीं जाता है."

बासमती की खेली

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कहां-कहां उगाया जाता है बासमती?

भारत के सीड्स ऐक्ट, 1966 में बासमती की 29 क़िस्में दर्ज हैं. हालांकि, देशभर में क़रीब 33 तरह के बासमती उगाए जाते हैं.

भारत सरकार की एग्रीकल्चर ऐंड प्रॉसेस्ड फ़ूड प्रॉडक्ट्स एक्सपोर्ट डिवेलपमेंट अथॉरिटी (APEDA) ने मई, 2010 में हिमालय के इर्द-गिर्द बसे सात राज्यों जम्मू-कश्मीर, पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, दिल्ली और पश्चिमी उत्तर प्रदेश (26 ज़िले) को जीआई टैग दिया था.

यूं तो इसके अलावा भी कई भारतीय राज्यों में बासमती उगाया जाता है. मध्य प्रदेश में उगाए जा रहे बासमती को जीआई टैग मिलने को लेकर काफ़ी विवाद भी रहा, लेकिन जीआई टैग पाए राज्यों की पैदावार को सबसे अच्छा माना जाता है.

भारत से निर्यात होने वाला 80 फ़ीसदी बासमती पंजाब और हरियाणा में पैदा होता है. वहीं पाकिस्तान में बासमती का सबसे ज़्यादा उत्पादन पंजाब प्रांत के 18 ज़िलों में होता है. बलूचिस्तान में भी बासमती का कुछ उत्पादन होता है.

भारत के सीड्स ऐक्ट, 1966 में बासमती की 29 क़िस्में दर्ज की गई हैं. सीड्स ऐक्ट के मुताबिक़ बासमती चावल पकने से पहले कम से कम 6.61 मिमी लंबा और 2 मिमी चौड़ा होना चाहिए. पकने के बाद ये कम से कम 12 मिमी लंबा होना चाहिए. वहीं एनालिसिस से पहले ये तीन महीने सुरक्षित वातावरण में सामान्य तापमान पर रखा होना चाहिए.

दुनिया की बात करें, तो इंडोनेशिया में वेस्ट जावा और सेंट्रल कलीमंटन नाम का स्थानीय बासमती उगाया जाता है, जिसे 2007 में पाकिस्तान से ले जाया गया था. नेपाल और श्रीलंका में भी बासमती पैदा किया जाता है. केन्या में पिशोरी नाम का एक बासमती उगाया जाता है, जो पेशावर से आयात किया गया था.

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दुनिया की सबसे बड़ी चैरिटी रसोई, जहां रोज़ बनता है 17 लाख से ज़्यादा बच्चों के लिए खाना..

जीआई टैग की लड़ाई पर पाकिस्तान का पक्ष क्या है?

पाकिस्तान के पंजाब में बासमती की खेती करनेवाले सैयद फ़ैसल हुसैन कहते हैं, "भारत के पास काग़ज़ हैं, तकनीक है और वो मार्केटिंग कर रहे हैं, लेकिन हमारे पास कुछ नहीं है. हालांकि, बासमती का मक्का पाकिस्तान ही है, क्योंकि यही इसके लिए सबसे अच्छी ज़मीन, पानी और हवा मौजूद है. वैसे भी अब हमें अपना काम करना चाहिए, क्योंकि ये भारत-पाकिस्तान के बीच जंग नहीं है. भारत हो या पाकिस्तान, ये असली बासमती और नकली बासमती की जंग है."

वहीं एक राइस मिल के एक्सपोर्ट मैनेजर राजा अर्शलान कहते हैं, "ये पाकिस्तान के लिए अच्छा है, क्योंकि इससे पाकिस्तानी बासमती का और नाम होगा, जो भारत के बासमती से अच्छा है. भारत के बासमती को यूरोप की मार्केट में जो दिक़्क़त हो रही है, वो हमारे किसानों की उपलब्धि है. यूरोप के पैमानों में जैसे-जैसे पेस्टिसाइड की मात्रा कम हो रही है, वैसे ही भारत की आपूर्ति और कम होती जाएगी."

ये तो सच है कि बासमती के नाम पर घपला ख़ूब होता है, क्योंकि बासमती और दूसरे लंबे चावलों में फ़र्क़ करना मुश्किल होता है और दोनों की कीमतों में अंतर बहुत है. बेईमान ट्रेडर्स बासमती में क्रॉसब्रीड बासमती या कोई भी लंबे चावल मिला देते हैं.

2005 में ब्रिटेन की फू़ड स्टैंडर्ड्स एजेंसी ने पाया कि वहां बेचे गए क़रीब आधे बासमती फ़र्ज़ी थे, जिसके बाद उन्होंने निर्यातकों के लिए नियम-क़ाएदे बनाए.

किसान

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नीतू देवी अपनी बेटी के साथ

अमेरिकी कंपनी से कैसे जीते थे भारत-पाकिस्तान?

2 सितंबर, 1997 को राइसटेक को अमेरिका में उगाई जा रहीं बासमती की तीन वेरायटी का पेटेंट मिला था. इसमें टेक्सस में पैदा होने वाला टेक्समती और कासमती और कैलिफ़ॉर्निया में पैदा होना वाला कैलमती शामिल था. कंपनी का तर्क था कि वो दशक से अमेरिका में इन चावलों का उत्पादन कर रही है और भारत में तो घरेलू तौर पर भी बासमती को जीआई टैग नहीं दिया गया है.

लेकिन, उनके इन तर्कों ने एक एंटी-ग्लोबलाइज़ेशन मोर्चा खड़ा कर दिया. माहौल ऐसा बना कि विकसित देश चालबाज़ी करके विकासशील देशों की संपदा पर क़ब्ज़ा जमाने की कोशिश कर रहे हैं. इसे 'पाइरेसी ऑफ़ इमर्जिंग नेशंस इंडिजिनियस प्रॉडक्ट' कहा गया. बदले में कंपनी ने तर्क दिया कि उसने 'बासमती' का पेटेंट नहीं कराया है, क्योंकि 'बासमती' एक 'जेनेरिक टर्म' है. कंपनी के मुताबिक उसने तो 'अमेरिका का अपना बासमती' पेश किया है.

पर ये नाकाफ़ी था, क्योंकि राइसटेक को तमाम एनजीओ का विरोध और क़ानूनी चुनौतियां मिलने लगी थीं. उनके उत्पादों का बॉयकॉट होने लगा था. यहां तक कि ब्रिटेन ने ये कहते हुए राइसटेक का चावल लेने से इनकार कर दिया था कि ये वो चावल है ही नहीं, जिसका कंपनी दावा कर रही है.

वहीं भारत और पाकिस्तान का तर्क था कि उनके यहां बासमती सदियों से उगाया जा रहा है और इसकी ख़ुश्बू के लिए हिमालय से निकलने वाली नदियों का पानी और मिट्टी ज़िम्मेदार है. राइसटेक ने जो किया, वो क्लोनिंग है और अमेरिका में इसे उगाने का सवाल ही नहीं उठता. भारत में बासमती को नेशनल हेरिटेज माना जाता है. ग्राहक भी बासमती को भारत और पाकिस्तान से जोड़कर देखते हैं. इस मामले ने इतना तूल पकड़ लिया था कि भारत में अमेरिकी दूतावास के बाहर विरोध प्रदर्शन तक होते थे.

पहले तो भारत ने अमेरिकी पेटेंट ऑफ़िस से पुनर्विचार करने को कहा, फिर मामले को WTO ले गया. 28 अप्रैल 2000 को भारत ने अपने विरोध में दस्तावेज़ पेश किए, जिसके बाद 11 सितंबर को राइसटेक ने अपने 20 में चार क्लेम वापस ले लिए थे. इनमें से तीन तो ऐसे क्लेम थे, जो भारतीय बासमती को अमेरिकी मार्केट से बाहर तक कर सकते थे. फिर 2001 में राइसटेक ने 11 और क्लेम वापस लिए. आख़िरकार 14 अगस्त 2001 को उनके प्रॉडक्ट के नाम बासमती से बदलकर राइस लाइन्स Bas867, RT 1117 और RT1121 कर दिए गए और उनसे पेटेंट ले लिए गए.

इसी सिलसिले में 1999 में भारत जियोग्राफ़िकल इंडिकेशंस ऑफ़ गुड्स (रजिस्ट्रेशन ऐंड प्रोटेक्शन) ऐक्ट लाया, जो 2003 में लागू हुआ था. पेटेंट का ये मसला कितना बड़ा है, इसे यूं समझिए कि अब से 50 साल पहले जहां चावल का कोई पेटेंट नहीं था, वहीं आज की तारीख़ में 600 से ज़्यादा दावे हैं.

चीनी

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पर क्या भारत-पाकिस्तान के बीच विवाद बनता भी है?

पुष्पेश पंत इस बात से इत्तिफ़ाक़ नहीं रखते. वो कहते हैं कि बासमती की ओनरशिप का मसला वैसा ही है, जैसे बुद्ध के जन्मस्थान को लेकर भारत-नेपाल के बीच विवाद है. जैसे रसगुल्ले को लेकर बंगाल-ओडिशा के बीच विवाद है. जैसे लंगड़ा और दशहरी आम के बीच विवाद है.

पंत कहते हैं, "बासमती की कुल बहस राजनीति और विदेशी कंपनियों के व्यापार के हितों से जुड़ी है. रेस्त्रां में बासमती बेचनेवालों ने आर्टिफ़ीशियल मिस्ट्री बनाई है, ताकि बिक्री ज़्यादा हो. जीआई से माल बेचने में मदद मिलती है. जो चीज़ें 'बेस्ट' के नाम से बेची जा रही हैं, उन्हें ख़रीदना स्टेटस का भी मसला है. आप देखिए कि ऐतिहासिक रूप से चावल उन इलाक़ों में पैदा होता रहा है, जहां नदियां होती थीं. जैसे पाकिस्तान में लाहौर के आगे चावल खानेवाले कम मिलेंगे, जबकि बेसन और चना खानेवाले ज़्यादा मिलेंगे. तो ये बहस तो फ़ूड एन्थ्रोपॉलजी को ही ख़ारिज कर रही है. भारत के साथ भी ऐसा ही है."

वहीं देवेंद्र शर्मा कहते हैं कि अगर किसी एक देश को जीआई टैग मिलता है, तो दूसरे का मार्केट ख़राब होगा. अगर राजनीति होनी है, तो अलग बात है, वरना ये औद्योगिक मसला है, जिसे जल्द सुलझा लेना चाहिए.

इस विवाद पर हमने पाकिस्तान का पक्ष जानने के लिए राइस एक्सपोर्टर्स असोसिएशन ऑफ़ पाकिस्तान (REAP) से संपर्क किया, लेकिन उन्होंने इस मुद्दे पर किसी मीडिया संस्थान से बात न करने के फ़ैसले का हवाला देते हुए बातचीत से इनकार कर दिया.

अब देखना ये है कि जिन दो देशों ने राइसटेक के ख़िलाफ़ इकट्ठे होकर लड़ाई जीती थी, वो अपने बीच का विवाद कब तक सुलझा पाते हैं.

https://www.bbc.com/hindi/international

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"बक्श देता है 'खुदा' उनको, ... ! जिनकी 'किस्मत' ख़राब होती है ... !! वो हरगिज नहीं 'बक्शे' जाते है, ... ! जिनकी 'नियत' खराब होती है... !!"

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