रविशंकर प्रसाद ने वापस लिया अपना 'फ़िल्मी' बयान
केंद्रीय क़ानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने अर्थव्यवस्था में लगातार जारी गिरावट को ख़ारिज करते हुए फ़िल्मों की कमाई पर जो टिप्पणी की थी उस पर खेद जताते हुए वापस ले लिया है.
रविशंकर प्रसाद ने कहा था कि तीन फ़िल्मों की कमाई एक दिन में 120 करोड़ हो रही है तो मंदी कहां है? रविशंकर प्रसाद की इस टिप्पणी की चौतरफ़ा आलोचना हो रही थी.
अपनी टिप्पणी की सफ़ाई में क़ानून मंत्री ने ट्विटर पर एक प्रेस स्टेटमेंट जारी किया है.
इसमें उन्होंने लिखा है, ''मैंने शनिवार को मुंबई में तीन फ़िल्मों की एक दिन में 120 करोड़ कमाई की बात कही थी, जो कि अब तक की सबसे बड़ी कमाई है. यह तथ्यात्मक रूप से सही है. मुंबई फ़िल्मों की राजधानी है और मैंने वहीं ये बात कही थी. हमें अपनी फ़िल्म इंडस्ट्री पर बहुत गर्व है जिससे लाखों लोगों को रोज़गार मिला हुआ है. टैक्स कलेक्शन में भी इस इंडस्ट्री का बड़ा योगदान है.''
प्रसाद ने लिखा है, ''मैंने अर्थव्यवस्था को मज़बूती देने के लिए सरकार की ओर से उठाए जा रहे क़दमों की बात भी कही थी. नरेंद्र मोदी की सरकार हमेशा आम लोगों की फ़िक्र करती है. मीडिया से बातचीत का पूरा वीडियो मेरे सोशल मीडिया पर मौजूद है. मुझे दुख है कि मेरे बयान के एक हिस्से को संदर्भों से काटकर दिखाया गया. एक संवेदनशील व्यक्ति होने के नाते मैं अपना बयान वापस लेता हूं.''
क्या कहा था पहले?
रविशंकर प्रसाद ने शनिवार को कहा था कि एनएसएसओ (नेशनल सैंपल सर्वे ऑफ़िस) के बेरोज़गारी से जुड़े आंकड़े पूरी तरह ग़लत हैं.
मुंबई में पत्रकारों से बातचीत के दौरान उन्होंने ये भी कहा कि अगर फ़िल्में करोड़ों का कारोबार कर रही हैं तो फिर देश में मंदी कैसे है?
उन्होंने कहा, "मैं एनएसएसओ की रिपोर्ट को ग़लत कहता हूं और पूरी ज़िम्मेदारी के साथ कहता हूं. उस रिपोर्ट में इलेक्ट्रॉनिक मैन्युफ़ैक्चरिंग, आईटी क्षेत्र, मुद्रा लोन और कॉमन सर्विस सेंटर का ज़िक्र नहीं है. क्यों नहीं है? हमने कभी नहीं कहा था कि हम सबको सरकारी नौकरी देंगे. हम ये अभी भी नहीं कह रहे हैं. कुछ लोगों ने आंकड़ों को योजनाबद्ध तरीके से ग़लत ढंग से पेश किया. मैं ये दिल्ली में भी कह चुका हूं."
रविशंकर प्रसाद ने भारतीय अर्थव्यवस्था में सुस्ती के बारे में पूछे जाने पर इसे फ़िल्मों से जोड़ दिया. उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा,"दो अक्टूबर को तीन फ़िल्में रिलीज़ हुई थीं: वॉर, जोकर और सायरा. बॉक्स ऑफ़िस के कारोबार पर नज़र रखने वाले विशेषज्ञ कोमल नहाटा के मुताब़िक उस दिन इन फ़िल्मों ने 120 करोड़ रुपये से भी ज़्यादा की कमाई की थी. यानी देश की अर्थव्यवस्था ठीक है. तभी तो फ़िल्में इतना अच्छा बिज़नस कर रही हैं."
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रविशंकर प्रसाद ने ये भी कहा था कि वो अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में भी सूचना प्रसारण मंत्री थे इसलिए उनका फ़िल्मों से लगाव है.
सोशल मीडिया पर प्रतिक्रिया
रविशंकर प्रसाद के इस बयान पर सोशल मीडिया में भी ख़ासी प्रतिक्रिया देखी गई. उनके इस बयान पर चुटकुले और मीम्स भी बने.
'The Lying Lama नाम के एक ट्विटर यूज़र ने लिखा, ''सर, कोमल नहाटा को वित्तमंत्री बना देते हैं. क्या कहते हैं?"
Soul of India नाम के ट्विटर हैंडल से ट्वीट किया गया है, आज ये लोग बॉक्स ऑफ़िस के आंकड़ों का हवाला दे रहे हैं. कल बोलेंगे थियेटर के बाहर ब्लैक करना भी रोज़गार है. पक्का बोलेंगे.
एक अन्य ट्विटर यूज़र ने लिखा है, ''ई गोला मा अब नहीं रहना.''
बेरोज़गारी के आँकड़े
इस साल फ़रवरी में एनएससओ के लीक हुए आंकड़ों के अनुसार साल 2017-18 में बेरोज़गारी की दर 6.1 फ़ीसदी थी जो कि पिछले 45 साल में सबसे ज़्यादा थी.
ये आंकड़े बाहर आने पर सरकार की काफ़ी किरकिरी हुई थी. हाल के दिनों भी बेरोज़गारी और आर्थिक सुस्ती के सवालों को लेकर सरकार को कड़े सवाल झेलने पड़े हैं.
कुछ समय पहले वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा था कि भारतीय युवा गाड़ियां खरीदने के बजाय ओला-ऊबर से जाना पसंद करते हैं इसलिए ऑटो सेक्टर में गिरावट आई है.
वित्त मंत्री के इस बयान की भी काफ़ी आलोचना हुई थी.
रविशंकर प्रसाद बोले- फ़िल्में जब करोड़ों रुपये कमा रही हैं तो अर्थव्यवस्था सुस्त कैसे?
केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने कहा है कि एनएसएसओ (नेशनल सैंपल सर्वे ऑफ़िस) के बेरोज़गारी से जुड़े आंकड़े पूरी तरह ग़लत हैं. उन्होंने ये बयान शनिवार को मुंबई में पत्रकारों से बातचीत के दौरान दिया.
रविशंकर प्रसाद ने ये भी कहा कि अगर फ़िल्में करोड़ों का कारोबार कर रही हैं तो फिर देश में मंदी कैसे है?
उन्होंने कहा, "मैं एनएसएसओ की रिपोर्ट को ग़लत कहता हूं और पूरी ज़िम्मेदारी के साथ कहता हूं. उस रिपोर्ट में इलेक्ट्रॉनिक मैन्युफ़ैक्चरिंग, आईटी क्षेत्र, मुद्रा लोन और कॉमन सर्विस सेंटर का ज़िक्र नहीं है. क्यों नहीं है? हमने कभी नहीं कहा था कि हम सबको सरकारी नौकरी देंगे. हम ये अभी भी नहीं कह रहे हैं. कुछ लोगों ने आंकड़ों को योजनाबद्ध तरीके से ग़लत ढंग से पेश किया. मैं ये दिल्ली में भी कह चुका हूं."
रविशंकर प्रसाद ने भारतीय अर्थव्यवस्था में सुस्ती के बारे में पूछे जाने पर इसे फ़िल्मों से जोड़ दिया. उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा,"दो अक्टूबर को तीन फ़िल्में रिलीज़ हुई थीं: वॉर, जोकर और सायरा. बॉक्स ऑफ़िस के कारोबार पर नज़र रखने वाले विशेषज्ञ कोमल नहाटा के मुताब़िक उस दिन इन फ़िल्मों ने 120 करोड़ रुपये से भी ज़्यादा की कमाई की थी. यानी देश की अर्थव्यवस्था ठीक है. तभी तो फ़िल्में इतना अच्छा बिज़नस कर रही हैं."
ये भी पढ़ें: 'मोदी सरकार की इस चूक से लगा अर्थव्यवस्था पर ब्रेक'
रविशंकर प्रसाद ने ये भी कहा कि वो अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में भी सूचना प्रसारण मंत्री थे इसलिए उनका फ़िल्मों से लगाव है.
सोशल मीडिया पर प्रतिक्रिया
रविशंकर प्रसाद के इस बयान पर सोशल मीडिया में भी ख़ासी प्रतिक्रिया देखी जा रही है. लोग उनके इस बयान पर चुटकुले और मीम्स भी बना रहे हैं.
'The Lying Lama नाम के एक ट्विटर यूज़र ने लिखा, ''सर, कोमल नहाटा को वित्तमंत्री बना देते हैं. क्या कहते हैं?"
Soul of India नाम के ट्विटर हैंडल से ट्वीट किया गया है, आज ये लोग बॉक्स ऑफ़िस के आंकड़ों का हवाला दे रहे हैं. कल बोलेंगे थियेटर के बाहर ब्लैक करना भी रोज़गार है. पक्का बोलेंगे.
एक अन्य ट्विटर यूज़र ने लिखा है, ''ई गोला मा अब नहीं रहना.''
इस साल फ़रवरी में एनएससओ के लीक हुए आंकड़ों के अनुसार साल 2017-18 में बेरोज़गारी की दर 6.1 फ़ीसदी थी जो कि पिछले 45 साल में सबसे ज़्यादा थी.
ये आंकड़े बाहर आने पर सरकार की काफ़ी किरकिरी हुई थी. हाल के दिनों भी बेरोज़गारी और आर्थिक सुस्ती के सवालों को लेकर सरकार को कड़े सवाल झेलने पड़े हैं.
कुछ समय पहले वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा था कि भारतीय युवा गाड़ियां खरीदने के बजाय ओला-ऊबर से जाना पसंद करते हैं इसलिए ऑटो सेक्टर में गिरावट आई है.
वित्त मंत्री के इस बयान की भी काफ़ी आलोचना हुई थी.
मोदी सरकार की इस चूक से लगा अर्थव्यवस्था पर ब्रेक': नज़रिया
याद कीजिए जब चन्द्रशेखर प्रधानमंत्री थे, तब खस्ता आर्थिक हालात में रिज़र्व बैंक में जमा सोना गिरवी रखा गया था.
तब ये सवाल उठा था कि क्या भारत की अर्थव्यवस्था पूरी तरह खोखली हो चुकी है. सवाल इसलिए उठा था क्योंकि चन्द्रशेखर फ़रवरी 1991 में देश का बजट तक नहीं रख पाए थे.
विश्व बैंक और आईएमएफ़ ने उस समय हर सुविधा-मदद खींच ली थी. 67 टन सोना (40 टन बैंक ऑफ़ इंग्लैड में और 20 टन यूनियन बैंक ऑफ़ स्विट्ज़रलैंड में ) गिरवी रखकर 6 करोड़ डॉलर लिए गए.
इसी के एवज में आईएमएफ़ से 22 लाख डॉलर का कर्ज़ मिला. तब महंगाई दर 8.4 फ़ीसदी पर आ गई थी.
12 नंवबर 1991 को जारी की गई वर्ल्ड बैंक की रिपोर्ट, 'इंडिया- स्ट्रक्चल एडजस्टमेंट क्रेडिट रिपोर्ट' के मुताबिक इसी के बाद भारत में सत्ता परिवर्तन के बाद पीवी नरसिम्हा राव ने बतौर प्रधानमंत्री आईएमएफ-वर्ल्ड बैंक की नीतियों को अपनाने पर हरी झंडी दी.
राव की सत्ता के वक्त वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने उदारवादी इकॉनमी के ज़रिये तीन क़दम उठाए- ग्लोबलाइज़ेशन, बाज़ार अर्थव्यवस्था और पूंजी का वितरण. और इन्हीं तीन तरीकों के आसरे तब विश्व बैंक और आईएमएफ़ से बड़े लोन लिए गए.
विश्व बैंक की तमाम शर्तें मान ली गईं और पूंजी में ढांचागत परिवर्तन की शुरुआत हुई. विदेशी निवेश भारत में आने लगा. लाइसेंसी राज को ख़त्म करने के लिए उद्योगों को रियायत दी जाने लगी.
औद्योगिक उदारवाद तेज़ी से फैला. सार्वजनिक उपक्रम के डिसइन्वेस्टमेंट की सोच शुरू हुई और देखते ही देखते भारतीय इकॉनमी पटरी पर दौड़ने लगी.
आर्थिक सुधार के इस पहले फ़ेज़ को बाद की सरकार ने भी जारी रखा. भारत में 1991 से शुरू हुए आर्थिक विकास की रफ़्तार को परखें तो 1991 से 2010 तक विकास दर दुनिया के अन्य देशों से एक तरफ़ कहीं बेहतर रही, वहीं आर्थिक विकास के इस ढांचे ने भारत के उस तबके में भी जान फूंक दी जो टैक्स के दायरे में नहीं था.
या कहें जो क्षेत्र मॉनीटाइज़ेशन से दूर थे या फिर इनफ़ॉर्मल सेक्टर थे, वहां भी लोगों की बाज़ार से खरीदने की ताक़त बढ़ती रही. ख़ासकर इन्फ्रास्ट्रक्चर के क्षेत्र में जुड़ा मज़दूर तबका, जो पूरी तरह असंगठित क्षेत्र का था, उसे मिल रहे काम और मज़दूरी ने जीडीपी ग्रोथ को बढ़ाने में मदद की.
ध्यान दें तो तीन स्तर पर भारत का आर्थिक विकास हुआ. भारतीय कंपनियों की शुमारी बहुराष्ट्रीय कंपनियों में होने लगी. बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने भारत में पैसा लगाना शुरू किया. मध्यम शहरी तबके की आय के इज़ाफे में तेज़ी आई.
आगे भी जारी रहे यही सुधार
फिर अटल बिहारी वाजपेयी के दौर (1998-2004) को याद कीजिए. स्वर्ण चतुष्कोणीय सड़क योजना ने शहर से जुड़े ग्रामीण भारत की तस्वीर को बदलना शुरू किया. नेशनल हाइवे का निर्माण जिस तरह शहर के बाहरी इलाकों में देश भर में होना शुरू हुआ, उसने सड़क किनारे ज़मीन का मॉनिटाइज़ेशन जिस रफ़्तार से किया, उसका सीधा लाभ उस बाज़ार और उस उद्योग को मिला, जो प्रॉडक्ट व उत्पादन से जुड़ा था.
कहीं ज़मीन से मिले मुआवज़े से कमाई हुई तो कहीं मुख्यधारा की इकॉनमी के क़रीब होने के लाभ ने देश के क़रीब तीन हज़ार गांवों की तस्वीर बदल दी.
योजना आयोग की 2001-02 की रिपोर्ट के मुताबिक इस पूरी प्रक्रिया में अंसगठित क्षेत्र से जुड़े 40 करोड़ लोग भी उपभोक्ता में तब्दील हो गए. किसान-मज़दूर भी खेती ना होने के मौसम में या खेती बर्बाद होने पर गांवों से शहरों में मज़दूरी के लिए निकले और कमाई से उनकी ख़रीद क्षमता भी बढ़ी. देशी कंपनियों के उत्पाद की मांग बिस्कुट-ब्रेड से लेकर साबुन और दोपहिया वाहन तक जा पहुंची.
आंकड़ों के लिहाज़ से देश में 10 करोड़ के मध्यम वर्ग का दायरा 15 करोड़ तक जा पहुंचा और संगठित या अंसगठित क्षेत्र में काम ना मिलने के तनाव से मुक्ति मिली.
इसका प्रभाव बैंको पर भी पड़ा. 2003-04 की रिजर्व बैंक की रिपोर्ट के मुताबिक बचत खातों में 17 फ़ीसदी की बढ़ोतरी वाजपेयी काल में दर्ज की गई. और सच यही है कि राव-मनमोहन की जोड़ी के उदारवादी अर्थव्यवस्था के चेहरे को ही वाजपेयी सरकार ने अपनाया. उसे 'आर्थिक सुधार का ट्रैक-टू' नाम दिया गया.
और याद कीजिए, तब संघ परिवार ने चमक-दमक की इकॉनमी का विरोध किया था. बीएमएस-स्वदेशी जागरण मंच ने देसी अर्थव्यवस्था की वकालत की. वाजपेयी सरकार से दो-दो हाथ किए. तब के वित्त मंत्री यशंवत सिन्हा को कुर्सी छोड़नी पड़ी लेकिन वाजपेयी सरकार ने आर्थिक विकास की इस छलांग में ही शाइनिंग इंडिया के राग गाए.
हालांकि वाजपेयी चुनाव हार गए लेकिन थ्योरी यही निकली कि संघ ने साथ नहीं दिया. और वाजपेयी के दौर के आर्थिक सुधार को वामपंथियों के सहयोग से बनी मनमोहन सरकार ने जारी रखा.
समानांतर अर्थव्यवस्था
हालांकि, वामपंथी नेता ए.बी. वर्धन ने डिसइन्वेस्टमेंट का खुला विरोध किया. और सबसे बडी बात तो ये है कि आर्थिक सुधार में 2010 तक कोई रुकावट आई नहीं और इनफॉर्मल सेक्टर को सरकार ने छुआ भी नहीं.
2010 में जारी एनएसएसओ के आंकड़ों के मुताबिक बाज़ार से कमाई के बाद असगंठित क्षेत्र से जुड़े 40 करोड़ से ज़्यादा लोगों की कमाई न तो किसी टैक्स के दायरे में थी और ना ही वह रकम किसी को कोई धंधा करने से रोकती या धंधा करने पर सरकार की निगरानी में आती.
यानी फ़ॉर्मल सेक्टर के समानांतर एक इनफ़ॉर्मल इकॉनमी थी जो सरकार की इकॉनमी के समानांतर थी. और उसी के दायरे में छोटे और मंझोले उद्योग पनपे. रियल एस्टेट भी चमका.
कह ये भी सकते हैं कि इसी दायरे में वह कालाधन भी खपा जो भ्रष्टाचार से जुड़ा था. यानी सरकारी बाबुओं से लेकर निजी क्षेत्र के कर्मचारियों की वह रकम जो सरकार की नज़र में नहीं थी, उसने एक समानांतर अर्थव्यवस्था ऐसी बना ली थी जिसने 2008-09 में भी भारत को दुनिया में आई मंदी की चपेट में नहीं आने दिया.
इसलिए सार्वजनिक सेक्टर हो या निजी सेक्टर, घाटा या डूबने के हालात इस दौर में इक्का-दुक्का ही आए. ये सिलसिला 2010 तक जारी रहा, इससे इनकार भी नहीं किया जा सकता है.
मनमोहन सिंह के आर्थिक सुधार में कुछ रुकावट मनरेगा और शिक्षा की गारंटी सरीखी योजनाओं से इसलिए आई क्योंकि वैकल्पिक खाका कैसे खड़ा हो, इस पर काम नहीं किया गया था.
यानी मनरेगा से ग्रामीण भारत पर ख़र्च की जाने वाली रकम और शिक्षा की गारंटी योजना को लागू किए जाने की प्रकिया से निजी क्षेत्र को अलग रखा गया जबकि सीएसआर की रकम और शिक्षा में निजी पूंजी के ज़रिये विस्तार दिया जा सकता था.
लेकिन फिर भी ध्यान दें तो 2014 में मनमोहन सिंह की हार के बाद मोदी सरकार को सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनिया घाटे में नहीं मिली थीं.
2014 में निजी या सार्वजनिक क्षेत्र कोई बहुत फ़ायदे में नहीं थे तो घाटे में भी नहीं थे. और यहीं से ये सवाल पैदा हुआ था कि मोदी सरकार आर्थिक सुधार के 'ट्रैक 3' या 'ट्रैक 4' (जेनरेशन 3 या 4) को अपनाती है या फिर संघ के स्वदेशी को.
मोदी सरकार ने क्या किया
ध्यान दीजिए कि स्वदेशी का राग मोदी सत्ता ने बिल्कुल नहीं गाया. लेकिन चले आ रहे आर्थिक सुधार को भ्रष्ट्राचार के नज़रिये से ही परखा और एक-एक करके कमोबेश हर क्षेत्र को सरकारी नज़र के दायरे में इस तरह लाया गया जहां सरकार से नज़दीकी रखने पर ही लाभ मिलता.
साथ ही कॉरपोरेट पॉलिटिकल फ़ंडिंग सबसे ज़्यादा ना सिर्फ़ मोदी सत्ता के दौर में हुई बल्कि 90 फ़ीसदी बीजेपी को हुई. लेकिन वक्त के साथ सरकार सेलेक्टिव भी होती गई और जो प्रतिस्पर्धा निजी क्षेत्र में होनी चाहिए थी, वह सरकार की मदद से बढ़ती कंपनियों ने खत्म कर दी.
साथ ही सार्वजनिक क्षेत्र से प्रतिस्पर्धा करने वाली निजी कंपनियों को सरकार ने ही सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियो को ख़त्म करने की क़ीमत पर बढ़ाया. बीएसएनएल और जियो इसका बेहतरीन उदाहरण है.
ये सब इस हद तक खुले तौर पर हुआ कि रिलायंस ने अपनी कंपनी जियो के प्रचार प्रसार का एंबेसडर और किसी को नहीं, प्रधानमंत्री मोदी को ही बना दिया. दूसरी ओर तिल-तिल मरते बीएसएनएल के कर्मचारियों को वेतन तक देने की स्थिति में सरकार नहीं आ पाई.
इसी तरह अडानी ग्रुप को बिना किसी अनुभव के सिर्फ़ सत्ता से क़रीबी की वजह से जिस तरह पोर्ट और एयरपोर्ट दिए गए, उससे भी आर्थिक विकास की प्रतिस्पर्धा वाली सोच खारिज हो गई. लेकिन सबसे व्यापक असर पड़ा नोटबंदी और जीएसटी से.
'नोटबंदी-जीएसटी की मार'
नोटबंदी ने उस असंगठित क्षेत्र की कमर तोड़ दी जो समानांतर अर्थव्यवस्था को बरकरार रखे हुए था. वहीं जीएसटी ने आर्थिक सुधार के नज़रियों को ताबूत बनाकर उस पर कील ठोंक दी. इससे इनफ़ॉर्मल सेक्टर सरकार की निगाह में आया जहां सरकार इससे वसूली करती दिखती.
खेती की ज़मीन का मॉनिटाइज़ेशन शुरू हुआ तो छोटे-मंझोले उद्योग धंधे भी जीएसटी के दायरे में आए. और जीएसटी की उलझन के कारण उत्पादन बाज़ार तक नहीं पहुंचा. जो बाज़ार तक पहुंचा, वह बिका नहीं. यानी आर्थिक सुधार की जो रफ़्तार देश में हर तबके को उपभोक्ता बनाकर उसकी खरीद की ताक़त को बढ़ा रही थी, उस पर ब्रेक लग गया.
असंगठित क्षेत्र के 45 करोड़ से अधिक लोगों के सामने रोज़गार का संकट उभरा तो संगठित क्षेत्र से जुड़े लोगों के सामने ये उलझन पैदा हो गई कि वो बिना पूंजी कैसे आगे बढ़े. और इस प्रकिया में रियल एस्टेट से लेकर हर उत्पाद कारखाने में ही सिमटकर रह गया.
ग्रामीण भारत को नोटबंदी ने रुलाया तो जीएसटी ने शहरी भारत को. सबसे बड़ा सवाल इस प्रक्रिया में यही उभरा कि अगर आर्थिक सुधार को मोदी सत्ता ने क्रोनी कैपिटलिज़्म और भ्रष्टाचार के नज़रिये से देखा तो उस व्यवस्था को ख़त्म करने के लिए समानांतर कोई दूसरी व्यवस्था खड़ी क्यों नहीं की?
1991 से 2019 तक क्या बदला
दरअसल पहले से चली आ रही व्यवस्था को ख़त्म करने के लिए कोई नई समानांतर व्यवस्था खड़ी न करने से ही संकट शुरू होता है.
1991 से शुरू हुआ आर्थिक सुधार बेशक आवारा पूंजी के रास्ते जगमगाया लेकिन जब उसे ख़त्म करने की शुरुआत हुई तो भ्रष्टाचार थमा नहीं बल्कि चंद हथेलियों में सिमट गया. और इसमें सबसे बड़ी हथेली राजनीतिक सत्ता की ही रही.
दूसरी तरफ़ वैकल्पिक अर्थव्यवस्था के किसी ढांचे को खड़ा करने की जगह मोदी उस समाजवादी रास्ते पर निकल पड़े जहां राजनीतिक तौर पर किसान-मज़दूर को लुभाने के लिए धन बांटना तो था लेकिन इस प्रक्रिया में धन आएगा कहां से, इस बारे में कुछ सोचा ही नहीं गया.
फिर आर्थिक सुधार के दौर में फ़ॉर्मल सेक्टर से जो लाभ इनफ़ॉर्मल सेक्टर को मिल रहा था, वह भी न सिर्फ़ थम गया बल्कि वहां ख़ून के आंसू बह निकले हैं.
जीडीपी अभी 5 फ़ीसदी पर आ गई है. मगर 2022 तक जब इन्फ़ॉर्मल सेक्टर की जीडीपी सामने आएगी, तब जीडीपी की रफ़्तार 2 फ़ीसदी भी रह जाए तो बड़ी बात होगी.(पांच साल में ही इनफ़ॉर्मल सेक्टर के विकास की दर की जानकारी मिलती है)
तो अब सवाल यही है कि क्या मोदी सरकार अपने किए एलान को वापस लेकर आर्थिक सुधार के रास्ते को पकड़ना चाहेगी या फिर अर्थव्यवस्था का राजनीतिक उपाय करेगी?
क्योंकि बिगड़ी अर्थव्यवस्था ने संकेत साफ़ दे दिए हैं कि पॉलिटिकल इकॉनमी के ज़रिये कॉरपोरेट को संभालना, जांच संस्थाओं के ज़रिये राजनीति को साधना और आसमान छूती बेरोज़गारी के लिए राजनीतिक राष्ट्रवाद को जगाना ही नए भारत की सोच है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)
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RBI से सरकार का पैसा लेना, कितना सही-कितना गलत
भारतीय रिज़र्व बैंक ने केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार को लगभग 1.76 लाख करोड़ रुपए लाभांश और सरप्लस पूंजी के तौर पर देने का फ़ैसला किया है.
समाचार एजेंसी पीटीआई के मुताबिक, इसमें से 28,000 करोड़ रुपए अंतरिम लाभांश के तौर पर सरकार को पहले ही दिए जा चुके हैं.
जब अर्थव्यवस्था की रफ़्तार सुस्त हो रही है, नौकरियां जा रही हैं, लोग कम खर्च कर रहे हैं, रियल स्टेट और ऑटो सेक्टर की हालत खस्ता है ऐसे में सरकार के लिए आरबीआई का ये फ़ैसला काफ़ी राहत देने वाला होगा.
ये फ़ैसला 2018 में पूर्व आरबीआई गवर्नर विमल जालान की अध्यक्षता में बनाई गई एक समिति के सिफ़ारिशों के आधार पर किया गया है.
इस समिति में विमल जालान के अलावा पूर्व उप गवर्नर डॉक्टर राकेश मोहन, आरबीआई सेंट्रल बोर्ड डायरेक्टर भरत दोशी, आरबीआई सेंट्रल बोर्ड डायरेक्टर सुधीर मानकड, सुभाष चंद्र गर्ग और आरबीआई उप गवर्नर एनएस विश्वनाथन शामिल थे.
मोटे तौर पर समझें कि रिज़र्व बैंक अपने दो रिज़र्व से एक बड़ी रक़म केंद्र सरकार को देगी.
क्या आरबीआई कमज़ोर होगा?
इस 1.76 लाख करोड़ में से लाभांश 1.2 लाख करोड़ का होगा जबकि क़रीब 52 हज़ार करोड़ कंटिंजेंसी रिज़र्व में से आएंगे. कंटिंजेंसी रिज़र्व मतलब इमर्जेंसी के दौरान इस्तेमाल होने वाली धनराशि के लिए फंड.
कई बार मनी मार्केट में एक बड़े पेमेंट के रुकने से असर कई जगहों पर पड़ता है और इससे भुगतान के रुकने का एक सिलसिला यानी एक चेन सी बन जाती है. ऐसी स्थितियों के लिए कंटिंजेंसी रिज़र्व होना ज़रूरी होता है.
दरअसल, हर साल रिज़र्व बैंक सरकार को लाभांश देती है और अर्थशास्त्रियों के मुताबिक़ इसमें कोई हर्ज़ नहीं क्योंकि आरबीआई सरकार की एजेंसी है.
कई सालों से सरकार में ये बात चल रही थी कि आरबीआई के पास ज़रूरत से ज़्यादा पैसे इकट्ठा हो रहे हैं और हर साल आरबीआई सरकार को जो डिविडेंड या लाभांश देती है उसे बढ़ाना चाहिए.
पूर्व चीफ़ इकोनॉमिक एडवाइज़र अरविंद सुब्रमण्यम भी इसका समर्थन करते थे. उनका मानना था कि आरबीआई के 4.5 से 7 लाख करोड़ रुपए एक्स्ट्रा कैपिटल है जिसका इस्तेमाल बैंकों को रीकैपिटलाइज़ करने या उन्हें आर्थिक तौर पर बेहतर स्थिति में लाने के लिए करना चाहिए.
इस बारे में अर्थशास्त्रियों, बैंक अधिकारियों की राय बँटी थी. कुछ का मानना था कि इससे केंद्रीय बैंक की स्थिति कमज़ोर होगी.
- किस दिशा में जा रही है भारत की आर्थिक दशा ?
- भारत की अर्थव्यवस्था के फिसलकर सातवें नंबर पर जाने का क्या मतलब है?
क्या इस पैसे का इस्तेमाल वेतन देने में होगा?
इस बार लाभांश क़रीब 1.2 लाख करोड़ का है, यानी पिछली बार के सबसे ज़्यादा लाभांश का दोगुना.
साल 2017-18 में ये आंकड़ा 40,659 रुपए करोड़ था, साल 2016-17 में 30,659 करोड़ रुपए और साल 2015-16 में 65,876 करोड़ रुपए.
इसलिए चिंता ये है कि क्या सरकार रिज़र्व बैंक से बहुत ज़्यादा पैसा निकाल रही है.
कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने ट्वीट कर कहा, "ख़ुद पैदा की गई आर्थिक तबाही का क्या उपाय निकाला जाए, इस बारे में प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री को कुछ नहीं पता. आरबीआई से चोरी करके कुछ हासिल नहीं होगा. ये कुछ ऐसा है कि गोली की चोट के लिए डिस्पेंसरी से बैंड एड चोरी करना."
सवाल ये है कि सरकार इतनी बड़ी धनराशि का कैसे इस्तेमाल करेगी? क्या इसका एक हिस्सा बैंकों की आर्थिक तौर पर मज़बूत बनाने के लिए किया जाएगा?
अर्थशास्त्री पूजा मेहरा के हिसाब से अच्छा होता कि इस पैसे का इस्तेमाल मूलभूत सुविधाओं के सुधार के लिए होता.
वो कहती हैं, "मेरे हिसाब से इस पैसे का सबसे अच्छा इस्तेमाल होगा अगर ये कैपिटल एक्पेंडीचर में हो, यानी इससे मूलभूत सुविधाओं में सुधार हो, सड़कें बनें, हाइवेज़, रेलवेज़ बनें. इसका खर्च इंटरेस्ट पेमेंट में न हो, तन्ख्वाहें देने में न हो. ऐसा करने से इससे अर्थव्यवस्था को फ़ायदा पहुंचेगा और हमारे स्लोडाउन से उबरने से आसार बेहतर होंगे."
लेकिन ऐसा शायद ही हो क्योंकि सरकार के पास ये धनराशि ऐसे वक़्त आई है जब अर्थव्यवस्था की रफ्तार धीमी हो रही है, लोगों की नौकरियां जा रही हैं और ऑटो में हालात चुनौतीपूर्ण हैं.
- क्या नौकरी जाने के डर से बीजेपी नेता के बेटे ने की खुदकुशी
- भारत में ऑटो इंडस्ट्री का पहिया क्यों थम गया
अगले साल क्या होगा?
अर्थशास्त्री विवेक कौल कहते हैं कि इस बार बजट ने जितनी आमदनी आने का आकलन किया था, वो तो आने वाले है नहीं, "इसलिए सरकार के लिए ज़रूरी हो गया था कि कहीं से पैसा आए."
वो कहते हैं, "सरकार किस्मतवाली है कि उनके पास आरबीआई से इतना ज़्यादा पैसा आ रहा है, नहीं तो उसे दिक्कत होती. या तो उन्हें खर्च घटाना पड़ता, या तो और कर्ज़ लेना पड़ता जिससे ब्याज़ दर और बढ़ती."
लेकिन महत्वपूर्ण सवाल ये है कि इस साल तो आरबीआई से पैसा आ गया है लेकिन अगले साल क्या होगा, क्योंकि शायद ही कोई सरकार हो जिसका खर्च कभी कम नहीं होता है.
विवेक कौल के मुताबिक, "जिस किस्म के स्लोडाउन में अभी हम हैं, मुझे तो नहीं लगता कि ये स्लोडाउन जल्दी ख़त्म होने नहीं वाला है. अगले साल अगर ऐसी ही कुछ हालत रही और टैक्स कलेक्शन धीमा ही रहे, तो फिर पैसा कहां से आएगा. उस हिसाब से ये (आरबीआई से इतनी बड़ी धनराशि लेना) ग़लत उदाहरण है."
वो कहते हैं, "अभी तक सरकार के पैसे नहीं होते थे तो कभी एलआईसी से जुगाड़ करके, ओएनजीसी ने एचपीसीएल को ख़रीदा जैसी तिकड़मबाज़ी करके काम चलता था. अब आप आरबीआई के आगे कहां जाएंगे."
आरबीआई की स्वायत्तता पर सवाल
अर्थशास्त्री पूजा मेहरा के मुताबिक़, सरकार की कोशिश होनी चाहिए थी कि अर्थव्यवस्था को ठीक किया जाए.
वो कहती हैं, "हर चीज़ में एक बैलेंस होना चाहिए. सरकार इतनी ज़्यादा आक्रामक तरीक़े से (पब्लिक सेक्टर कंपनियों आदि से) पैसे निकाल रही है वो शायद ठीक नहीं है, क्योंकि अगर उन कंपनियों में पैसा रहता तो अर्थव्यवस्था के लिए अच्छा होता. ये कंपनियां प्रोजेक्ट्स लगातीं, निवेश करतीं, और जीडीपी को फ़ायदा होता. ओएनजीसी जैसी कंपनियों को कमज़ोर करना अच्छी रणनीति नहीं है."
विमल जालान समिति ने ये भी सिफ़ारिश की थी कि ख़तरों से निपटने के लिए आरबीआई के पास अपनी बैलेंसशीट के 5.5 से 6.5 फ़ीसदी रक़म होनी चाहिए, यानी चुनौतियों से निपटने के लिए आरबीआई के पास कम धनराशि होगी.
पूर्व चीफ़ स्टैटिशियन ऑफ़ इंडिया प्रोनब सेन के मुताबिक, अगर ये रेंज 6 से 6.5 होती तो उन्हें "ज्यादा ख़ुशी होती."
पूर्व आरबीआई गवनर रघुराम राजन और उर्जित पटेल के जाने के बाद सवाल उठते रहे हैं कि आरबीआई अपने फ़ैसले लेने में कितनी स्वायत्त है.
कहीं ये सेल्फ़ गोल तो नहीं?
आरबीआई के पूर्व उप गवर्नर विरल आचार्य ने पिछले अक्टूबर में कहा था कि केंद्रीय बैंक की स्वायत्तता को कमज़ोर करना सेल्फ़ गोल जैसा है.
हाल ही में पूर्व आरबीआई गवर्नर डी सुब्बाराव ने कहा था कि आरबीआई के रिज़र्व पर "धावा बोलना" सरकार के "दुस्साहस" को दर्शाता है.
सरकार की मदद करने वाले आरबीआई के इस फ़ैसले को भी उसी चश्मे से देखा जा रहा है.
लेकिन पूर्व चीफ़ स्टैटिशियन ऑफ़ इंडिया प्रोनब सेन को नहीं लगता कि 'इस फैसले का आरबीआई का खुद फ़ैसले लेने के अधिकार पर असर पड़ता है.'
वो कहते हैं, "आरबीआई की स्वायत्तता की बात तब उठती है जब मुद्रा नीति पर बात हो रही होती या फिर बैंक और एनबीएफ़सी पर निरक्षण संबंधी कंट्रोल की बात हो रही है. आरबीआई ख़ुद कितना मुनाफ़ा अपने पास रखे और कितना सरकार को दे, इसे आरबीआई की स्वायत्तता के चश्मे से देखना ठीक नहीं."
प्रोनब सेन कहते हैं कि अगर सरकार को आरबीआई के हाथ मरोड़ने होते तो सरकार ने ये बहुत पहले कर दिया होता.
वो कहते हैं कि विमल जालान समिति की सिफ़ारिशों के बाद कुछ बातें साफ़ हो गई हैं कि आरबीआई अपने पास कितना रिज़र्व रख सकती है उसे कितनी धनराशि सरकार को देनी होगी लेकिन इसके लिए ज़रूरी है कि इस दस्तूर की भावना का पालन जारी रहे.
उधर विवेक कौल के अनुसार, 'आरबीआई गवर्नर के सरकार से बहुत अच्छे संबंध नहीं होने चाहिए' और 'ऐसा लगता है कि आरबीआई गवर्नर शक्तिकांत दास अभी वित्त सचिव की ही भूमिका में ही हैं.'
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