यरुशलम का शेख़ जर्राह, इसराइल-फ़लस्तीनियों के बीच विवाद की जड़ कैसे बना
- पॉल एडम्स
- कूटनातिक संवाददाता, यरुशलम
समीरा दजानी और आदिल बुदेरी का बगीचा रेत के मैदान के बीच बसे किसी मरु उद्यान की तरह दिखता है. इसराइल और फ़लस्तीनियों के बीच हिंसा भड़काने वाली ज़मीन के केंद्र में बसे उनके शांत दिखने वाले बगीचे में चारों तरफ बोगेनविलिया (कागज़ के फूल) की लताएँ, लैवेन्डर और कई तरह के फलों के पेड़ लगे हुए हैं.
पूर्वी यरुशलम के शेख़ जर्राह में रहने वाले इस फ़लस्तीनी दंपति का एक मंज़िला घर उन 14 घरों में से एक है, जिनमें रहने वाले 28 परिवारों के सिर पर घर छोड़ कर जाने की तलवार लटक रही है.
इसराइली सुप्रीम कोर्ट तक पहुँचे एक मामले के बाद यहूदियों की बस्तियों के लिए इस इलाक़े के 14 घरों रहने वाले क़रीब 300 लोगों को यहाँ से निकाला जाना है.
ग़ज़ा पट्टी में फ़लस्तीनी चरमपंथी समूह हमास और इसराइल के बीच लड़ाई छिड़ने से पहले यरुशलम में हिंसा भड़की थी, जिस कारण इस प्रक्रिया को बीच में ही रोक दिया गया था.
लेकिन इनके सिर से ख़तरा अभी पूरी तरह टला नहीं है.
समीरा जिस वक्त अपने बगीचे में बागवानी कर रही थीं, उस वक्त आदिल मुझे 1950 और 60 के दशक की अपने ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीरें दिखा रहे थे. ये तस्वीरें उस दौर की थीं, जब समीरा और आदिल की मुलाक़ात भी नहीं हुई थी.
आदिल कहते हैं, "ये बेहद मुश्किल है. हमें लगता है कि इस घर में हमने अपनी ज़िंदगी का अहम वक़्त गुज़ारा है, वो सब ख़त्म होने वाला है. हमें लगता है कि हम दूसरी बार शरणार्थी बन जाएँगे."
1948 में जब तीन सालों की लड़ाई के बाद इसराइल अस्तित्व में आया था, तब दोनों के परिवारों को पश्चिमी यरुशलम में बने अपने घरों को छोड़ कर जाना पड़ा था.
देखा जाए तो जहाँ समीरा और आदिल रहते हैं, वहाँ से बस कुछ किलोमीटर की दूरी पर उनका पुराना घर है, लेकिन इसराइली क़ानून के अनुसार अब वो घर उनका कभी नहीं हो सकता.
1950 में संयुक्त राष्ट्र ने शेख़ जर्राह में विस्थापित फ़लस्तीनियों के लिए घर बनाने से जुड़े जॉर्डन की एक परियोजना को हरी झंडी दी थी.
लेकिन इसराइल के अस्तित्व में आने से पहले इनमें से कुछ ज़मीन उस समय यहूदियों के दो एसोसिशन के पास थी.
1967 में हुए छह दिन के युद्ध के बाद जब इसराइल ने जॉर्डन से पूर्वी यरुशलम के इस हिस्से को जीत लिया, तब इन दो एसोसिएशन ने अपनी ज़मीन पर क़ब्ज़े के लिए क़ानूनी कार्रवाई शुरू की.
ये विवादित ज़मीन शिमोन हात्ज़ादिक (सिमोन, द राउटूअस) के मक़बरे के नज़दीक है. जूडेया (माना जाता है कि प्राचीन जूडेया वही जगह है, जिसे आज यरूशलम कहते हैं) की पुरानी कहानियों के अनुसार माना जाता है कि शिमोन यरुशलम के एक पुजारी थे, जो यीशू के जन्म के 40 दिन बाद उनसे मिले थे.
शेख़ जर्राह की इस ज़मीन पर दावा करने वालों का कहना है कि फ़लस्तीनियों ने उनकी ज़मीन पर क़ब्ज़ा किया है.
ये कहना ग़लत नहीं होगा कि शेख़ जर्राह की ज़मीन किसकी है और इस पर कौन दावा कर रहा है, इसे लेकर हुए विवाद ने कई बार हिंसा का रूप लिया है.
यहाँ से बाहर की सड़कों की तरफ देखें, तो वहाँ काफ़ी ख़ामोशी दिखती है. इसराइल और हमास के बीच शुरू हुए 11 दिन के युद्ध या फिर युद्ध से पहले रमाज़ान के दौरान हुई हिंसा के वहाँ कोई निशान नहीं दिखते.
लेकिन इस पूरे इलाक़े में हर गली में पुलिस ने बैरिकेडिंग की है. यहूदी यहाँ आज़ादी से घूम सकते हैं, लेकिन अगर आप फ़लस्तीनी हैं और यहाँ नहीं रहते, तो आप इस गलियों में प्रवेश तक नहीं कर सकते.
पास की दीवार पर 1948 के पहले के फ़लस्तीनी इलाक़े का एक मैप बना है, जिसे कफ़िया (सिर में पहनने वाला सूती कपड़े से बना एक तरह का पारंपरिक अरबी कपड़ा) से ढँका गया है. दीवार पर एक स्लोगन भी लिखा है, "शेख़ जर्राह के इस मोहल्ले में आपका स्वागत है."
और आगे जाने पर सड़क की दूसरी तरफ़ की एक और दीवार पर उन 28 परिवारों के नाम लिखे हैं, जिन्हें यहाँ से विस्थापित किया जाना है.
इस दीवार के सामने के घर पर क़रीब 10 साल पहले इसराइली लोगों ने क़ब्ज़ा कर लिया था. यहाँ अब कई इसराइली झंडे लगे हुए हैं.
- ये भी पढ़ें- कैसे बना था इसराइल यहूदियों का मुल्क
घर से ऊपर स्टार ऑफ़ डेविड और कई सुरक्षा कैमरे भी लगे हैं. आधुनिक यहूदी स्टार ऑफ़ डेविड को अपनी पहचान मानते हैं और इसराइल इस निशान का इस्तेमाल अपने राष्ट्रीय ध्वज में करता है.
इसराइली अधिकारियों के अनुसार शेख़ जर्राह का मामला "ज़मीन के एक विवाद" से अधिक कुछ नहीं और यहाँ का क़ानून उनके पक्ष में है, जिनकी ये ज़मीन है.
साल 2003 में इन दोनों यहूदी एसोसिएशन ने इस ज़मीन का मालिकाना हक़ नहालत शिमोन लिमिटेड को बेच दिया. अमेरिका में मौजूद ये संगठन उन कई संगठनों में से एक है, जो यरुशलम में फ़लस्तीनी इलाक़ों में बसने के लिए जा रहे यहूदी लोगों की मदद करता है.
1987 में आए कोर्ट के एक फ़ैसले का हवाला देते हुए यरुशलम की एक डिप्टी मेयर फ्लूर हसन-नाहूम कहती हैं, "किराया न देने के लिए इन परिवारों को यहाँ से निकाला जाएगा."
कोर्ट के इस फ़ैसले में इस ज़मीन पर यहूदी एसोसिएशन के अधिकार को मान्यता दी गई थी और यहाँ रहने वाले फ़लस्तीनियों को किराएदार कहा गया था.
फ्लूर हसन-नाहूम कहती हैं, "आप समझ सकते हैं कि ये केवल ज़मीन से जुड़ा एक मामला है, जिसे राजनीतिक विवाद बना दिया गया है ताकि लोगों को भड़काया जा सके."
यूरोप को यहूदियों से आज़ाद करने की नाज़ियों की ओर से चलाई मुहिम की तरफ़ इशारा करते हुए वो कहती हैं, "मुझे कोई कारण नहीं दिखता कि जूडेया के दौर को पूर्वी यरुशलम से क्यों न जोड़ा जाए."
- ये भी पढ़ें- मुस्लिम देशों की आंखों में क्यों चुभता है इसराइल
इस साल रमाज़ान के दौरान शेख़ जर्राह में लोगों के बीच तनाव बना हुआ था. 10 सालों से ज़मीन को लेकर जो विवाद था, उसके कारण स्थितियों ने अचानक हिंसक रूप अख़्तियार कर लिया था.
नज़दीक में बनी अल-अक़्सा की मस्जिद में दो पक्षों के बीच विवाद बढ़ा और जल्द ही यरुशलम में जैसे चारों तरफ़ हिंसा की आग फैल गई.
ग़ज़ा पट्टी में फ़लस्तीनियों के बीच अपनी स्वीकृति बढ़ाने का मौक़ा तलाश रहे हमास के चरमपंथी भी इस विवाद में कूद पड़े और उन्होंने इसराइल की तरफ़ रॉकेट दाग़ना शुरू कर दिया.
11 दिनों की लड़ाई के बाद जब युद्धविराम की घोषणा हुई, फ़लस्तीनियों ने इसे हमास की जीत के तौर पर देखा और यरुशलम में ख़ुशियाँ मनाई गईं.
वो कहते हैं, "यहाँ रहने वाले फ़लस्तीनियों को पूरी तरह से यहाँ से निकालने की कोशिशें की जा रही हैं, ताकि यहाँ उन्हें बसाया जा सके, जिन्हें धार्मिक किताबों के अनुसार यहाँ होना चाहिए. यहाँ यही विवाद की जड़ है."
वो कहते हैं कि 1948 में हुई लड़ाई में यहूदी और अरबी दोनों समुदाय के लोग विस्थापित हुए थे और आज के दौर में इन दोनों समुदायों के बीच बस यही एक समानता है.
वो कहते हैं, "आपके पास एक शहर है, एक युद्ध है और दो समुदाय के लोग हैं, जो ज़मीन पर अपना हक़ खो रहे हैं. एक समुदाय के लोग अपनी ज़मीन को वापस लेने में कामयाब हो रहे हैं, लेकिन दूसरे समुदाय के साथ ऐसा नहीं है. असल में शेख़ जर्राह का यही गुनाह है."
पूर्वी यरुशलम में बीते तीन दशक से यहूदियों को बसाने की कोशिशों के बारे में जानकारी इकट्ठा कर रहे इसराइली वकील डेनियल सिडमैन कहते हैं, "ये कोई दुर्घटना नहीं कि इस हिंसा के पीछे टेम्पल माउंट और शेख़ जर्राह में हुआ विवाद ही था."
डेनियल सिडमैन कहते हैं कि 1967 के युद्ध के बाद यरुशलम की चार अरबी रिहाइश वाली जगहों से बड़ी संख्या में फ़लस्तीनियों को बाहर निकालना इसराइल की पहली बड़ी कोशिश थी. इनमें से दो जगहें शेख़ जर्राह में है जबकि दो दक्षिण की तरफ सिलवन में है.
वो कहते हैं ये प्रक्रिया अपने आप में आग लगाने वाली है. वो कहते हैं, "हम यरुशलम में इस विवाद को उठा रहे हैं और इसे विस्थापन के मुद्दे से जोड़ कर देख रहे हैं."
इधर अपने बगीचे में बैठे आदिल और समीरा से कहा गया है कि उन्हें अगस्त की एक तारीख़ तक अपना घर छोड़ कर नया ठिकाना तलाशना है.
जिस घर में इस दंपति ने 47 साल साथ गुज़ारे हैं, उस घर को छोड़ने के लिए अब उनके पास केवल कुछ महीनों का ही वक़्त है.
आदिल कहते हैं कि ये बराबरी की लड़ाई नहीं है.
वो कहते हैं, "ये स्पष्ट है कि हम उसने मुक़ाबला नहीं कर रहे, जो यहाँ रहने आएँगे. हम एक सरकार से लड़ रहे हैं. हमारे पास इतनी ताक़त नहीं कि हम इसराइली सरकार से लड़ सकें."
यरुशलम के भविष्य को लेकर हमास ने युद्ध को ज़रूर आगे बढ़ाया है, लेकिन शेख़ जर्राह में रहने वाले 28 परिवारों के लिए स्थिति आज भी वही है, जो पहले थी- उन्हें यहाँ से कभी भी निकाला जा सकता है.
(बीबीसी हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए आप यहां क्लिक कर सकते हैं. आप हमें फ़ेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम और यूट्यूब पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं.)
Comments