अफ़ग़ानिस्तान की सरकार और तालिबान के बीच क्या चीन 'मध्यस्थ' की भूमिका निभा सकता है?

 


  • सरोज सिंह
  • बीबीसी संवाददाता
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चीन और पाकिस्तान ने अफ़ग़ानिस्तान को 'आतंकवाद का गढ़' नहीं बनने देने के लिए वहाँ के आतंकवादी ताक़तों के ख़िलाफ़ 'संयुक्त कार्रवाई' करने का फ़ैसला किया है.

पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद क़ुरैशी सोमवार को चीन के दौरे पर थे, जहाँ उन्होंने चीन के विदेश मंत्री वांग यी से मुलाक़ात की.

उस मुलाक़ात के बाद चीन के विदेश मंत्रालय की तरफ़ से संवाददाता सम्मेलन में ये ऐलान किया गया.

हाल ही में तालिबान के प्रवक्ता सुहैल शाहीन ने कहा था कि वे चीन को अफ़ग़ानिस्तान के एक दोस्त के रूप में देखते हैं.

उन्हें उम्मीद है कि चीन से जितनी जल्दी हो सके, पुनर्निर्माण कार्य में निवेश करने पर बातचीत होगी. तालिबान यह भी कह चुका है कि वो अब शिनजियांग से चीन के वीगर अलगाववादी लड़ाकों को अफ़ग़ानिस्तान में प्रवेश करने की अनुमति नहीं देगा

ये दोनों बयान ऐसे वक़्त में आए हैं, जब अमेरिका, रूस के साथ-साथ अफ़ग़ानिस्तान सरकार और तालिबान के बीच सुलह सफ़ाई के लिए कई अलग-अलग प्रयास चल रहे हैं.

दोहा और मॉस्को के अलावा शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की बैठक में भी अफ़ग़ानिस्तान मुद्दे पर चर्चा हो चुकी है. लेकिन ठोस कुछ भी नहीं निकला है.

ग़ौर करने वाली बात ये भी है कि पाकिस्तान और चीन के विदेश मंत्रियों की बैठक में जब अफ़ग़ानिस्तान का मुद्दा उठा है, उसके ठीक एक दिन बाद अमेरिका के विदेश मंत्री एंथनी ब्लिंकेन भारत आ रहे हैं.

उम्मीद जताई जा रही है कि अमेरिका और भारत के विदेश मंत्रियों के बीच बातचीत में भी अफ़ग़ानिस्तान के ताज़ा हालात पर चर्चा हो सकती है.

सवाल उठता है कि अगर चीन, अफ़ग़ानिस्तान में पाकिस्तान के साथ मिलकर 'संयुक्त कार्रवाई' की बात करता है, तो भारत के लिए इसमें चिंता की कोई बात है या नहीं? क्या चीन अफ़ग़ानिस्तान सरकार और तालिबान के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभा सकता है?

आमतौर पर मध्यस्थता वही करता है, जो विवाद में पड़े दोनों पक्षों का एक बराबर दोस्त हो.

पहले ये जानना ज़रूरी है कि चीन के क्या वाक़ई में अफ़ग़ान सरकार और तालिबान दोनों के साथ दोस्ताना संबंध हैं?

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अफ़ग़ानिस्तान सरकार और तालिबान के साथ चीन के रिश्ते

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में स्कूल ऑफ़ इंटरनेशनल स्टडी के प्रोफ़ेसर स्वर्ण सिंह कहते हैं, "चीन हमेशा से अफ़ग़ान सरकार और तालिबान दोनों के साथ संपर्क में रहा है. 1996 में जब तालिबान, अफ़ग़ानिस्तान पर काबिज़ था, उस वक़्त दोनों के बीच औपचारिक रिश्ता न होते हुए भी चीन तालिबान के साथ संपर्क में था. इसकी एक वजह है चीन के शिनजियांग प्रांत में वीगर इस्लामिक आतंकवाद का डर. अफ़ग़ान सरकार के साथ चीनी सरकार की औपचारिक बैठकें भी होती हैं. एससीओ की बैठक इसका उदाहरण है. ऐसे में अगर चीन मध्यस्थ की भूमिका में ख़ुद को देख रहा है तो कोई बड़ी बात नहीं है."

वो आगे कहते हैं, "इस भूमिका में पाकिस्तान को साथ रखना चीन के लिए फ़ायदेमंद है. ऐसा इसलिए क्योंकि पाकिस्तान का दोनों तरफ़ के लिए रुझान रखता है. अमेरिका के साथ मिल कर एक तरफ़ वो तालिबान से लड़ भी रहा है और दूसरी तरफ़ तालिबान की आर्थिक मदद भी कर रहा है. चीन जिस स्तर पर मध्यस्थता की कोशिश करेगा, उसमें पाकिस्तान का तालिबान के साथ दोस्ताना संबंध उसके लिए मददगार होंगे."

"मध्यस्थ के रूप में एक और काम है जो सिर्फ़ चीन कर सकता है और दूसरे देश नहीं कर सकते - वो है आर्थिक मदद. चीन अपनी बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) के तहत अफ़ग़ानिस्तान को अच्छा ऑफ़र दे सकता है."

दरअसल चीन का पहले से प्रस्ताव है कि बीआरआई परियोजना के तहत काबुल से पेशावर तक एक एक्सप्रेस-वे बनाई जाए और पेशावर में आकर सीपेक से जुड़ जाए. इससे चीन के व्यापार को बढ़ावा मिलेगा और अफ़ग़ानिस्तान का भी इसमें फ़ायदा है. इसके लिए अफ़ग़ान सरकार से चीन की बातचीत चल रही थी, लेकिन समझौते पर हस्ताक्षर नहीं हुए थे.

अगर तालिबान अफ़ग़ानिस्तान की सत्ता पर किसी भी रूप में भविष्य में आते हैं, तो चीन औरों के मुकाबले उनकी बेहतर और अलग-अलग तरीकों से (प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से) आर्थिक मदद कर सकता है. तालिबान ने पहले भी कहा है कि चीन से जितनी जल्दी हो सके, पुनर्निर्माण कार्य में निवेश करने के बारे में बातचीत करेंगे.

ऐसे में चीन के लिए मध्यस्थ की भूमिका निभाना, अफ़ग़ान सरकार और तालिबान दोनों के लिए फ़ायदे का सौदा है.

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'मध्यस्थ' की भूमिका में चीन

लेकिन सवाल ये भी है कि अमेरिका की हालात देखने के बाद चीन ऐसी भूमिका क्यों निभाना चाहेगा?

शांति मैरियट डिसूज़ा, कौटिल्य स्कूल ऑफ़ पब्लिक पॉलिसी में प्रोफ़ेसर हैं. अफ़ग़ानिस्तान में उन्होंने काम किया है और उस पर उन्होंने पीएचडी भी की है. बीबीसी से बातचीत में वो कहती हैं कि चीन के लिए तालिबान हमेशा से महत्वपूर्ण रहा है. इसके पीछे वो तीन अहम कारण गिनाती है.

पहला - चीन ने भी अफ़ग़ानिस्तान में विकास कार्यों में आर्थिक निवेश किया है. वो चाहते हैं कि उन निवेशों का उन्हें लाभ मिलता रहे, जिसके लिए तालिबान से दोस्ताना संबंध रखने होंगे.

एक अनुमान के मुताबिक चीन का अफ़ग़ानिस्तान में 400 मिलियन अमेरिकी डॉलर का निवेश है.

दूसरा - तालिबान के साथ संबंधित आतंकवादी गुट जैसे जैश, लश्कर और हक्कानी नेटवर्क की छवि अब तक 'भारत- विरोधी' रही है. चीन चाहता है कि ज़रूरत पड़ने पर भारत के ख़िलाफ़ तालिबान का रणनीतिक इस्तेमाल कर सके.

तीसरा - तालिबान की वजह से चीन के अपने शिनजिंयाग प्रांत में दिक्कतें न शुरू हो जाए. वो नहीं चाहेगा कि अफ़ग़ानिस्तान की अस्थिरता का असर चीन के बॉर्डर पर दिखे और वहाँ किसी तरह का नया आतंकवाद पैर पसारना शुरू कर दे.

प्रोफ़ेसर शांति डिसूज़ा का ये भी मानना है कि अमेरिका और रूस का हश्र देखने के बाद चीन अफ़ग़ानिस्तान में स्थिरता के लिए मध्यस्थता कर सकता है, लेकिन सैन्य हस्तक्षेप नहीं करना चाहेगा. वो तालिबान और सरकार के साथ 'बैक चैनल बातचीत' में ज़्यादा बड़ा रोल अदा कर सकता है.

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चीन का डर

चीन के शिनजियांग प्रांत की सीमा अफ़ग़ानिस्तान के साथ लगभग आठ किलोमीटर लंबी है. अफ़ग़ानिस्तान में बने हालात को देखते हुए चीन की मुख्य चिंता यह है कि अगर तालिबान वाक़ई सत्ता पर काबिज़ हो जाता है, तो चीन के शिनजियांग में सक्रिय अलगाववादी संगठन ईस्ट तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट (ईटीआईएम) को अफ़ग़ानिस्तान में पनाह और वहाँ से सहायता मिल सकती है.

पूर्वी तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट एक छोटा इस्लामिक अलगाववादी समूह है, जिसके बारे में कहा जाता है कि वह पश्चिमी चीन के शिनजियांग प्रांत में सक्रिय है और एक स्वतंत्र पूर्वी तुर्किस्तान स्थापित करना चाहता है. शिनजियांग प्रांत चीन के जातीय अल्पसंख्यक वीगर मुसलमानों का घर है.

इस डर से चीन तालिबान से हमेशा से संपर्क में रहा है.

चीन के अलावा 'मध्यस्थ की भूमिका' अब रूस और अमेरिका दोनों ही नहीं निभाना चाहते. अमेरिका तो 20 साल बाद वहाँ से लौटा ही है, रूस सैन्य सहायता देना नहीं चाहता और आर्थिक सहायता दे नहीं सकता. ये बात रूस के विदेश मंत्री पहले कह चुके हैं.

रही बात पाकिस्तान की, तो उनकी अफ़ग़ान सरकार के साथ बनती नहीं है. दोहा सम्मेलन में दोनों देशो के राष्ट्राध्यक्षों की कहा-सुनी तक हो गई थी.

भारत ने तालिबान के साथ कभी दोस्ताना संबंध नहीं रखा. हाल में कुछ पर्दे के पीछे बातचीत की ख़बरें ज़रूर आई.

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भारत का डर

भारत ने अफ़ग़ानिस्तान में तीन अरब डॉलर से अधिक का निवेश का निवेश किया है.

भारत सरकार के अनुसार अफ़ग़ानिस्तान के सभी 34 प्रांतों में भारत की 400 से अधिक परियोजनाएँ चल रही हैं. अफ़ग़ानिस्तान के संसद भवन का निर्माण भारत ने किया है और अफ़ग़ानिस्तान के साथ मिलकर भारत ने एक बड़ा बाँध भी बनाया है.

भारत की तरफ़ से ये निवेश केवल आर्थिक नहीं है, बल्कि अफ़ग़ान सरकार के साथ अच्छे राजनीतिक रिश्ते बने रहें, इस लिहाज से भी किया गया है.

इसके अलावा भारत की चिंता ये भी है कि वहाँ की सरकार अपनी धरती का इस्तेमाल भारत विरोधी गतिविधियों के लिए न करने दे.

प्रोफ़ेसर शांति डिसूज़ा कहती है, "अगर चीन की मध्यस्थता से वहाँ स्थिरता आ जाती है, सुरक्षित माहौल तैयार हो जाता है, तालिबान सत्ता पर काबिज़ नहीं होता है तो भारत को चिंतित होने की ज़रूरत नहीं होगी."

लेकिन वो आगाह भी करती हैं कि आगे चल कर भारत और चीन के बीच अफ़ग़ानिस्तान प्रतिस्पर्धा का अखाड़ा भी बन सकता है. अगर चीन किसी तरह की 'बड़ी भूमिका' में वहाँ जाता है और पाकिस्तान के साथ मिलकर भारत के निवेश पर कोई ख़तरा होता है तो.

प्रोफ़ेसर शांति डिसूज़ा आगे कहती हैं कि भारत ने जो भी निवेश अफ़ग़ानिस्तान में किया है वो आर्थिक मदद के तौर पर किया है, जबकि चीन ने अफ़ग़ानिस्तान में विकास कार्यों के लिए आर्थिक मदद दी है. ये सब जानते हैं कि चीन जब भी आर्थिक मदद करता है तो अपना फ़ायदा भी देखता है.

चीन ने अफ़ग़ानिस्तान में सिक्योरिटी सेक्टर से लेकर कॉपर माइन तक में निवेश में किया है.

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'मध्यस्थ' की भूमिका में चीन के लिए चुनौती

ऐसे में एक सवाल ये भी उठता है कि मध्यस्थ की भूमिका निभाना क्या चीन के लिए आसान होगा?

इस पर स्वर्ण सिंह कहते हैं कि अमेरिका नहीं चाहेगा कि चीन ऐसी भूमिका निभाए. अमेरिका पाकिस्तान से बात करेगा और भारत से भी. उनके विदेश मंत्री भारत के दौरे पर भी है.

अमेरिका का भारत की तरफ़ हमेशा इशारा रहता है कि भारत अफ़ग़ानिस्तान में सैनिक भेजे. हालाँकि भारत की तरफ़ से इस पर कोई टिप्पणी नहीं आई है. लेकिन अपने दूतावास को सुरक्षित रखने के लिए भारत ने पहले वहाँ पैरामिलिट्री फोर्स भेजा है.

उनका कहना है कि अमेरिका अफ़ग़ानिस्तान में स्थिरता लाने में भारत के लिए बड़ी भूमिका देखता है. इस वजह से तालिबान से भारत ने पर्दे के पीछे बातचीत भी शुरू की है.

लेकिन प्रोफ़ेसर शांति, प्रोफ़ेसर स्वर्ण सिंह की राय से थोड़ा अलग सोचती हैं. उनको नहीं लगता कि सीधे तौर पर अमेरिका, अफ़ग़ानिस्तान में चीन की भूमिका के ख़िलाफ़ होगा.

उनका कहना है कि अमेरिका ज़रूर चाहेगा कि चीन अफ़ग़ानिस्तान में बड़ी भूमिका निभाए लेकिन वो सैन्य हस्तक्षेप के रूप में हो.

ऐसा भी हो सकता है कि तालिबान को लेकर अमेरिका और चीन के बीच एक रणनीतिक स्पर्धा शुरू हो जाए. एक ओर अमेरिका और तालिबान के बीच शांति समझौता है दूसरी तरफ़ अमेरिका जानता है कि चीन के पाकिस्तान से अच्छे संबंध है और पाकिस्तान और तालिबान में दोस्ती भी है.

इस लिहाज से आने वाले कुछ हफ़्ते अफ़ग़ानिस्तान, अमेरिका, चीन, पाकिस्तान और भारत सभी के लिए अहम होने वाले हैं.

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