हमारी न्यायपालिका ध्वस्त हो गई है, हम गर्दन गहरी मल में हैं -- बिलकुल उसी तरह जैसे कि भारत के सारे शौचालय ध्वस्त हो गए हों।
Krishnaraj Rao VOICE OF INDIA 3 hrs · "लंबित" या "मामलों की बकाया" जैसे शब्दों का इस्तमाल यह कहता है कि समस्या अस्थायी और अल्पकालिक है। उदाहरण के तौर पर, अगर न्यायपालिका एक साल धीमी चली है, तो संभवतः वह अगले साल तेजी से काम करके अपना निर्धारित कार्य पूरा कर सकती हैं। लेकिन भारितीय न्यायपालिका की स्थिति ऐसी नहीं है। उसकी समस्याएं स्थायी हैं, प्रणालीगत हैं । 320 लाख मामलों की मौजूदा 'बकाया' दशकों से बनाया गया है -- न केवल न्यायाधीशों के व्यवहार द्वारा, बल्कि वकीलों, पुलिस, सरकार और आम जनता के विभिन्न व्यवहार द्वारा । एक मूल कारण है हमारे कानून और हमारे न्यायशास्त्र की संरचना । मामलों से निपटने की हमारी प्रणाली भारतीय लोगों के स्वभाव और संस्कृति के साथ बेमेल हैं। क्या यह सब अगले महीने या साल भर में बदल सकता है ? क्या हमारे पास इन सभी कारकों को बदलने के कोई भी यथार्थवादी सुझाव या तरीके है? क्या सरकार में या न्यायपालिका में इन समस्याओं पर कोई भी अपना मन लगा रहा है ? जवाब है -- बिलकुल नहीं। इसलिए