नागरिकता संशोधन बिल पेश करते हुए गृह मंत्री अमित शाह ने लोकसभा में एक ऐसी बात कह दी, जिसकी गूंज काफ़ी समय तक सुनाई देगी. उन्होंने कहा, "यह बिल पेश करने की ज़रूरत इसलिए पड़ी क्योंकि कांग्रेस ने धर्म के आधार पर विभाजन स्वीकार कर लिया था. अगर कांग्रेस ने ऐसा नहीं किया होता, तो इस बिल की ज़रूरत नहीं होती." अमित शाह की यह बात अपनी पाकिस्तान यात्रा के दौरान दिए गए गृह मंत्री लालकृष्ण आडवाणी के जिन्ना वाले बयान जैसी ही है, जिसमें उन्होंने जिन्ना को सेकुलर कहा था. ख़ुद को आज़ादी के आंदोलन का एकमात्र उत्तराधिकारी बताने वाली कांग्रेस, देश में पहली बार दो क़ौम का सिद्धांत देने वाले सावरकर के उत्तराधिकारी के इस बयान पर क्या प्रतिक्रिया देते हैं, यह देखने की चीज़ होगी. अब उनकी प्रतिक्रिया चाहे जो हो, जिन्ना की आत्मा अगर कहीं होगी तो बहुत ख़ुश होगी (निश्चित रूप से ख़ुद को सेक्युलर कहे जाने से भी ज़्यादा खुश) कि आज़ादी के 72 साल बाद ही सही, लेकिन हिन्दुस्तान की संसद ने भी हिन्दू-मुसलमान भेद को क़ानूनी रूप में मान लिया और हिन्दुस्तान में ग़ैर-मुसलमानों को ख़ास दर्जा दे दिया.

अमित शाह को विभाजन के लिए कांग्रेस को ज़िम्मेदार बताने की ज़मीन किसने दी- नज़रिया


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नागरिकता संशोधन बिल पेश करते हुए गृह मंत्री अमित शाह ने लोकसभा में एक ऐसी बात कह दी, जिसकी गूंज काफ़ी समय तक सुनाई देगी.
उन्होंने कहा, "यह बिल पेश करने की ज़रूरत इसलिए पड़ी क्योंकि कांग्रेस ने धर्म के आधार पर विभाजन स्वीकार कर लिया था. अगर कांग्रेस ने ऐसा नहीं किया होता, तो इस बिल की ज़रूरत नहीं होती."
अमित शाह की यह बात अपनी पाकिस्तान यात्रा के दौरान दिए गए गृह मंत्री लालकृष्ण आडवाणी के जिन्ना वाले बयान जैसी ही है, जिसमें उन्होंने जिन्ना को सेकुलर कहा था.
ख़ुद को आज़ादी के आंदोलन का एकमात्र उत्तराधिकारी बताने वाली कांग्रेस, देश में पहली बार दो क़ौम का सिद्धांत देने वाले सावरकर के उत्तराधिकारी के इस बयान पर क्या प्रतिक्रिया देते हैं, यह देखने की चीज़ होगी.
अब उनकी प्रतिक्रिया चाहे जो हो, जिन्ना की आत्मा अगर कहीं होगी तो बहुत ख़ुश होगी (निश्चित रूप से ख़ुद को सेक्युलर कहे जाने से भी ज़्यादा खुश) कि आज़ादी के 72 साल बाद ही सही, लेकिन हिन्दुस्तान की संसद ने भी हिन्दू-मुसलमान भेद को क़ानूनी रूप में मान लिया और हिन्दुस्तान में ग़ैर-मुसलमानों को ख़ास दर्जा दे दिया.
और ग़ैर मुसलमान की संघ परिवार की व्याख्या क्या है और वह किस तरह मुसलमान विरोधी राजनीति को सूट करती है, यह बताने की ज़रूरत नहीं है.
कम लोग जानते हैं कि दो क़ौम सिद्धांत (टू नेशन थ्योरी) अल्लामा इक़बाल ने दिया, मुस्लिम लीग ने स्वीकार किया और भारी हंगामे और मारकाट और करोड़ों लोगों के जीवन में उथल-पुथल मचाते हुए इसे अंग्रेजों के सहयोग से मोहम्मद अली जिन्ना ने लागू करवा लिया.
लेकिन सच यही है कि इस सिद्धांत के जनक विनायक दामोदर सावरकर थे.

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Image captionविनायक दामोदर सावरकर

दो राष्ट्र सिद्धांत

सावरकर हिन्दू महासभा के नेता थे और भले आज़ादी की लड़ाई में हिंदूवादी और इस्लामी धारा हाशिए पर ही रही पर हिंदूवादी धारा के प्रमुख सावरकर ही थे जो इस सिद्धांत पर अमल होने, दंगों और विभाजन वाले दौर तक जेल से बाहर आ चुके थे.
वे माफ़ी मांगकर बाहर आए थे और उनकी अधिकांश गतिविधियां अंग्रेजी हुकूमत के अनुकूल दिखती हैं.
पर दो क़ौमी नज़रिया और दंगे तथा विभाजन के लिए सावरकर और उनकी हिंदुत्व मंडली (जिसमें तब का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक छोटा खिलाड़ी था) भर को ज़िम्मेदार बताना उनको ज्यादा ही 'यश' देना हो जाएगा.



बहुत दर्दनाक था मोहम्मद अली जिन्ना का अंत

इसका मुख्य श्रेय तो जिन्ना को, लीग को और सत्ता के लिए बेचैन हो गए कांग्रेसियों को ही देना होगा जिसके आगे गांधी और ख़ुद को उनका अनुयायी बताने वाले कांग्रेसी भी (जिनमें तब के कांग्रेस अध्यक्ष जेबी कृपलानी भी शामिल हैं) विभाजन मानने को विवश हुए और अकेले ख़ान अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ान ने ही विभाजन के ख़िलाफ़ मत दिया.
जिन्ना-लियाक़त के ख़िलाफ़ तो ग्रंथ ही ग्रंथ लिखे गए हैं, कांग्रेसियों में कौन कहां था, किसने बड़ा गुनाह किया- किसने छोटा, यह भी मौलाना आज़ाद की किताब 'इंडिया विन्स फ़्रीडम' आने के बाद कई किताबों की चर्चा का विषय बना.
डॉ. लोहिया की किताब 'भारत विभाजन के अपराधी' का फोकस कांग्रेसी गुनाहगारों पर है, तो जेबी कृपलानी ने अपनी आत्मकथा में काफ़ी जगह आज़ाद की बातों के खंडन-मंडन में लगाया है.
राजमोहन गांधी ने तो 'इंडिया विन्स एरर' में आज़ाद की किताब को लगभग षडयंत्र बता दिया है.

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Image captionराम मनोहर लोहिया

लीग और कांग्रेस के अलावा भी दुअन्नी-चवन्नी हैसियत वाले विभाजनकारी या दो क़ौमी नज़रिए को बढ़ाने वाले लोग हैं. इनमें ही संघ परिवार है, रजवाड़े थे, कम्युनिस्ट थे, सिखों का प्रतिनिधि होने का दावा करने वाले कुछ थे.
रजवाड़े आख़िर तक दांव-पेंच चलते रहे और आज तक कश्मीर के सवाल में उलझे रहने में उसके राजा की भूमिका की ढंग से चर्चा भी नहीं होती-अन्य दसियों रजवाड़े भी खेल करते रहे जिसे सरदार पटेल ने बखूबी संभाला.
कामरेड लोग भी दो क़ौमी नज़रिए को सही मानते थे, अब चाहे उसे ऐतिहासिक भूल बताएं.
और यह दिलचस्प 'संयोग' है कि जिन्ना-लियाक़त-लीग की सक्रियता बढ़ना और कांग्रेस के अंदर गांधी का अनादर-विरोध बढ़ना, संघ परिवार, कुछ दलित गुटों की सक्रियता, रजवाड़ों का षडयंत्र जैसी सारी बातें नमक सत्याग्रह में गांधी के प्रयोग की सफलता के बाद ही शुरू हुईं.
इस सत्याग्रह में गांधी के लोगों को काफ़ी कष्ट उठाना पडा, फ़ौज की हवाई बमबारी तक झेलनी पड़ी पर यह साफ़ हो गया कि अब ब्रिटिश हुकूमत चलाना कठिन हो गया है.

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Image captionमहाराजा हरि सिंह

इसके दो नतीजे आए. गांधी इर्विन समझौता और ऐसे सारे समूहों की गतिविधियां बढ़ना जिसमें कांग्रेस के अन्दर के सत्ता के लोभी लोगों का व्यवहार बदलना भी शामिल है. साफ लगता है कि इन सबको उन ब्रिटिश अधिकारियों और तंत्र से मदद और उकसावा मिला.
गांधी के अपने लोग उनसे दूर होने लगे और शासन ने गांधी-इर्विन समझौते को तो दरकिनार किया ही (जो कहीं न कहीं ब्रिटिश सत्ता द्वारा गांधी और कांग्रेस को मुल्क के लोगों का प्रतिनिधि कबूल कर लेना था), बल्कि ऐसी हर ताक़त को उकसाना शुरू किया जो गांधी को, कांग्रेस को और मुल्क को नुक़सान पहुंचाती है.
आज़ादी के बाद कांग्रेसी हुकूमत ने तब के दस्तावेज़ सार्वजनिक नहीं किए वरना इन सबके चेहरे सामने आ गए होते.
संभव है सत्ता में बैठे कुछ चेहरे भी इस आंच में झुलसते. इस चक्कर में गांधी हत्या पर बनी कपूर कमेटी की रिपोर्ट भी दबी रही.

महात्मा गांधीइमेज कॉपीरइटKEYSTONE/GETTY IMAGES
Image caption30 जनवरी 1948 को नाथूराम गोडसे ने महात्मा गांधी को गोली मार दी थी

बदलाव

लेकिन इस बड़े बदलाव ने गांधी को किनारे करने में ज़्यादा वक़्त नहीं लगाया- यह अलग बात है कि गांधी मरने तक और अब भी किनारे नहीं लगाए जा सकते.
गांधी ने कांग्रेस की सदस्यता दिखावे के लिए नहीं छोडी थी. और अगर उनको कांग्रेस को नमक सत्याग्रह के लिए राज़ी करने में कुछ परेशानी हुई थी तो 'भारत छोड़ो' का प्रस्ताव पास कराने में लगभग साल भर का समय लगा.
और इस आंदोलन ने और साफ़ किया कि देश के आम लोग किधर थे और लीग-संघ, कम्युनिस्ट, रजवाड़े, कई दलित हितैषी और सत्ता के इशारे पर चलने वाले किधर.
1942 के बाद तो खुला खेल फ़र्रुख़ाबादी हो गया. जो कांग्रेसी सरकारों में गए वे किसी क़ीमत पर सत्ता से बाहर होने को तैयार न थे-उनके भी ब्रिटिश शासन से सीधे रिश्ते बन गए थे.
पर वे बेचारे तो जेल भी गए, लीग तो पूरा ही खेल शासन के और खास तौर से गोरे नौकरशाहों के सहयोग से खेलती रही और सबकी नाक में दम किया.
बाक़ी जमातों की दंगा कराने के अलावा कुछ हैसियत नहीं रही जो गांधी की हत्या और उनकी अंतिम यात्रा तक में उल्टी-सीधी नारेबाज़ी तक गई. और ऐसी जमातों से गिरफ्तारी या कष्ट सहने वालों की सूची बताने की उम्मीद कौन कर सकता है.

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Image captionअसम समेत भारत के कई पूर्वोत्तर राज्यों में नागरिकता संशोधन विधेयक का विरोध हो रहा है

लीग को एक हिस्से की सत्ता मिली और जो पाकिस्तान नहीं गए उन लीगियों ने 15 अगस्त को लीग का झंडा उतार कर तिरंगा फहरा दिया.
लेकिन संघ को तिरंगा अपनाने में ज़माना लग गया.
फिर क्या-क्या हुआ यह किस्सा बहुत बड़ा है. लेकिन भारतीय सरकार और संसद मज़हब के आधार पर नागरिकता देने में भेदभाव करने वाला बिल पास करे तो यह उसी दो क़ौमी नज़रिए का एक राष्ट्रीय स्वीकार है.
ज़ाहिर है जिन्ना के साथ विभाजनकारी ब्रिटिश हुकूमत के लोगों की आत्माएं बहुत खुश होंगी और कांग्रेसियों ने इतने लंबे शासन में इस प्रवृत्ति को मारने या नंगा करने वाली सच्चाइयों को क्यों नहीं सामने किया, यह अलग से बताने की ज़रूरत नहीं है.
इसलिए अगर आज अमित शाह विभाजन के लिए कांग्रेस को ज़िम्मेदार बताते हैं तो यह ज़मीन कांग्रेसियों ने ही उन्हें उपलब्ध कराई है.

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