भारत के लिए प्रोपेगैंडा करने के अंतरराष्ट्रीय नेटवर्क में भारत की एक न्यूज़ एजेंसी का नाम आया

 


  • आबिद हुसैन और श्रुति मेनन
  • बीबीसी उर्दू, बीबीसी रियलिटी चेक
संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार काउंसिल की बैठक
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साल में तीन बार संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार काउंसिल की बैठक होती है जिसमें मावाधिकार सुनिश्चित करने के संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देशों के रिकॉर्ड्स की समीक्षा की जाती है

यूरोपीय यूनियन में फ़ेक न्यूज़ पर काम करने वाले एक संगठन 'ईयू डिसइन्फ़ोलैब' ने दावा किया है कि पिछले 15 सालों से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक नेटवर्क काम कर रहा है जिसका मक़सद अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पाकिस्तान को बदनाम करना और भारत के हितों को फ़ायदा पहुँचाना है.

ईयू डिसन्फ़ोलैब ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि इस काम के लिए कई निष्क्रिय संगठनों और 750 स्थानीय फ़र्ज़ी मीडिया संस्थानों का इस्तेमाल किया गया. जाँच में ये बात भी सामने आई है कि इसके लिए एक मृत प्रोफ़ेसर की पहचान भी चुराई गई.

इस दुष्प्रचार अभियान के लिए जिस व्यक्ति की पहचान चुराई गई उन्हें अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार क़ानून के जनक में से एक माना जाता है. इनकी मौत साल 2006 में हुई, उस वक़्त वो 92 साल के थे.

जाँच करने वाली संस्था ईयू डिसइन्फ़ोलैब के कार्यकारी निदेशक ऐलेक्ज़ान्द्रे अलाफ़िलीप ने कहा, "अब तक जितने नेटवर्क के बारे में हमें पता चला है, उनमें से यह सबसे बड़ा है."

'इंडियन क्रोनिकल्स' के नाम से बनी इस जाँच रिपोर्ट को इसी बुधवार प्रकाशित किया गया था.

ईयू डिसइन्फ़ोलैब का कहना है कि "पाकिस्तान को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बदनाम" करने और संयुक्त राष्ट्र की मानवाधिकार काउंसिल और यूरोपीय संसद में फ़ैसलों को प्रभावित करने के इरादे से इस नेटवर्क को बनाया गया था.

बीते साल ईयू डिसइन्फ़ोलैब ने आंशिक तौर पर इस नेटवर्क का पर्दाफ़ाश किया था लेकिन अब संस्था का कहना है कि ये अभियान पहले उन्हें जितना शक था उससे कहीं अधिक बड़ा और विस्तृत है.

अब तक इस बात के कोई सबूत नहीं मिले हैं कि इस नेटवर्क का भारत सरकार से कोई सीधा संबंध है. लेकिन जाँच में काफ़ी हद तक उन ख़बरों पर निर्भर किया गया है जिनमें भारत के सबसे बड़े वायर सेवा में से एक एशियन न्यूज़ इंटरनेशनल (एएनआई) की मदद से फ़र्ज़ी मीडिया संस्थानों पर दिखाईं गईं थीं. एएनआई इस पूरी जाँच का एक ख़ास बिंदु था.

ब्रसेल्स स्थित ईयू डिसइन्फ़ोलैब के शोधकर्ताओं का मानना है कि इस नेटवर्क का उद्देश्य भारत के पड़ोसी पाकिस्तान (जिसके साथ भारत के तनावपूर्ण रिश्ते हैं) के ख़िलाफ़ प्रोपगैंडा फैलाना था. वैसे दोनों ही देश एक दूसरे के ख़िलाफ़ नैरेटिव को नियंत्रित करने की कोशिश करते रहे हैं.

बीते साल शोधकर्ताओं को दुनिया के 65 देशों में भारत का समर्थन करने वाली 265 वेबसाइट्स के बारे में पता चला था. इन वेबसाइट्स को ट्रेस करने पर पता चला कि इनके तार दिल्ली स्थित एक भारतीय कंपनी श्रीवास्तव ग्रूप से जुड़े हैं.

हालांकि बुधवार को प्रकाशित हुई रिपोर्ट 'इंडियन क्रोनिकल्स' के अनुसार श्रीवास्तव ग्रूप द्वारा चलाया जा रहा ये अभियान कम से कम 116 देशों में फैला है, और इसमें यूरोपीय संसद के कई सदस्यों और संयुक्त राष्ट्र के कई कर्मचारियों को निशाना बनाया गया है. इस रिपोर्ट के सामने आने के बाद अब ये सवाल उठने लगे हैं कि यूरोपीय यूनियन और संयुक्त राष्ट्र से जुड़े लोग इस ग्रूप के बारे में कितना जानते थे और क्या वो इसकी हरकतों को रोकने के लिए पहले ही कुछ क़दम उठा सकते थे, ख़ास कर बीते साल की रिपोर्ट आने के बाद.

अलाफ़िलीप का कहना है कि ईयू डिसइन्फ़ोलैब के शोधकर्ताओं ने अलग-अलग स्टेकहोल्डर्स के बीच इससे पहले दुष्प्रचार के लिए इस तरह का समन्वय नहीं देखा.

उन्होंने कहा, "बीते 15 सालों से और पिछले साल एक्सोपज़ होने के बाद भी ये नेटवर्क कारगर तरीक़े से काम कर रहा है, यह इस बात को दर्शाता है कि इंडियन क्रोनिकल्स के पीछे जो लोग हैं वो कितने बारीक तरीक़े से काम करते हैं और कितने ऊर्जावान हैं."

वो कहते हैं, "इस तरह की योजना बनाने और उसके कार्यान्वयन के लिए आपको कुछ कंप्यूटर्स के अलावा और बहुत कुछ चाहिए."

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हालांकि शोधकर्ताओं ने चेतावनी दी है कि इस मामले में अभी और अधिक जाँच पड़ताल किए बग़ैर इंडियन क्रोनिकल्स को भारतीय ख़ुफ़िया एजेंसी जैसे संगठनों से जोड़ना सही नहीं है.

डिसइन्फॉर्मेशन नेटवर्क के जानकार बेन निम्मो ने बीबीसी को बताया कि अब तक उन्होंने जो देखा है "उसमें ये सबसे अधिक जटिल और लगातार काम करने वाला अभियान है." हालांकि वो भी इसे किसी ख़ास संगठन के साथ जोड़ कर देखने से परहेज़ करने की बात कहते हैं.

डिजिटल मॉनिटरिंग कंपनी ग्राफ़िका के जाँच निदेशक निम्मो इंटरनेट पर इस तरह के बड़े ट्रोलिंग अभियानों के उदाहरण देते हैं जो निजी तौर पर चलाए गए थे. वो कहते हैं, "केवल इसलिए कि ये व्यापक तौर पर चलाया गया अभियान है, इसका मतलब ये नहीं कि ये सरकार प्रायोजित है."

इस रिपोर्ट के लिए बीबीसी ने भारत सरकार से संपर्क करने की भी कोशिश की लेकिन इस पर कोई जवाब नहीं मिल सका.

फ़र्ज़ी पहचान और काम बंद कर चुके एनजीओ

सार्वजनिक रूप से उपलब्ध जानकारियों की मदद से की गई जाँच पड़ताल के महत्वपूर्ण निष्कर्षों में से एक ये है कि इसमें श्रीवास्तव ग्रूप और संयुक्त राष्ट्र मान्यता प्राप्त कम से कम दस संगठनों समेत कई और संगठनों के बीच सीधे संपर्क को स्थापित किया गया है, जिनका इस्तेमाल अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पाकिस्तान की आलोचना करने और भारत के हितों को बढ़ावा देने के लिए किया जाता रहा है.

रिपोर्ट के अनुसार, "जिनेवा में मौजूद ये थिंक टैंक और एनजीओ लॉबी करते हैं, संयुक्त राष्ट्र की अहम बैठकों के दौरान विरोध प्रदर्शन और प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान सवाल पूछने का इंतज़ाम करते हैं और और मान्यता प्राप्त संगठनों की तरफ़ से संयुक्त राष्ट्र के मंच पर उन्हें बोलने का मौक़ा भी दिया जाता था."

जाँच से पता चलता है कि श्रीवास्तव ग्रूप के इस अभियान की शुरूआत संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार संगठन यूएनएचसीआर के मौजूदा स्वरूप के अस्तित्व में आने के कुछ महीनों बाद साल 2005 में हुई.

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एक एनजीओ जिस पर शोधकर्ताओं का ध्यान गया वो था कमीशन टू स्टडी द ऑर्गेनाइज़ेशन ऑफ़ पीस (सीएसओपी). ये संगठन साल 1930 में बना और 1975 में इसे संयुक्त राष्ट्र से मान्यता भी मिली लेकिन 1970 के दशक के आख़िरी सालों में इस संगठन ने अपना काम बंद कर दिया था.

जाँच में पता चला कि सीएसओपी के एक पूर्व चेयरमैन प्रोफ़ेसर लुई बी शॉन का नाम साल 2007 में हुए यूएनएचसीआर के एक कार्यक्रम के सत्र में सीएसओपी के प्रतिभागी, लुई शॉन के तौर पर लिखा था. साल 2011 में वॉशिगटन में हुए एक और कार्यक्रम में भी उनका नाम था.

उनका नाम देख कर शोधकर्ताओं को आश्चर्य हुआ क्योंकि उनकी मौत साल 2006 में हो चुकी थी.

लुई 20वीं सदी के अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार क़ानूनों के जानकारों में अग्रणी थे और 39 सालों तक हावर्ड लॉ फ़ैकल्टी के सदस्य रहे थे.

प्रोफ़ेसर लुई बी शोहन
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प्रोफ़ेसर लुई बी शोहन

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शोधकर्ताओं ने अपनी रिपोर्ट प्रोफ़ेसर लुई को समर्पित की है और कहा है कि "फ़र्ज़ी तत्वों ने उनके नाम का इस्तेमाल किया."

उनका कहना है, "हमने अपनी पहली जाँच में जिन लोगों के नाम लिए थे उन्हीं लोगों ने सीएसओपी को दोबारा सक्रिय किया और साल 2005 में उनकी पहचान पर क़ब्ज़ा कर लिया."

जाँच से ये भी पता चला है कि भारत का पक्ष रखने वाली सैकड़ों ग़ैर-मान्यता प्राप्त एनजीओ को बार-बार मान्यता प्राप्त संगठनों की तरफ़ से यूएनएचसीआर के मंच पर जाने की इजाज़त मिली. और उन सबका केवल एक ही उद्देश्य था, पाकिस्तान को बदनाम करने की कोशिश.

कई और मौक़ों पर ऐसे एनजीओ और संगठन जिनका उन्हीं के ऑब्जेक्टिव्स के अनुसार न तो पाकिस्तान से कोई लेना-देना था और न ही भारत से, उन्हें यूएनएचसीआर के मंच से पाकिस्तान के विरोध में बोलने का मौक़ा दिया गया.

मार्च 2019 में यूएनएचसीआर के 40वें सत्र के दौरान एक और संयुक्त राष्ट्र मान्यता प्राप्त संगठन, यूनाइटेड स्कूल्स इंटरनेशनल (यूएसआई, जिसका सीधा नाता श्रीवास्तव ग्रूप से है) ने एम्स्टरडैम स्थित थिंक टैंक यूरोपियन फाउंडेशन फ़ॉर साउथ एशियन स्टडीज़ (ईएफ़एसएएस) की रिसर्च एनालिस्ट योआना बाराकोवा को अपनी जगह पर बोलने का मौक़ा दिया.

सत्र के दौरान योआना ने 'पाकिस्तान द्वारा की जा रही ज्यादतियों' के बारे में बात की. उन्होंने बीबीसी को बताया कि ईएफ़एसएएस, यूनाइटेड स्कूल्स इंटरनेशनल (यूएसआई) की पार्टनर है और "संस्थाओं के बीच के संगठनात्मक साझेदारी के लिए वो ज़िम्मेदार नहीं है."

बीबीसी ने ईएफ़एसएएस के निदेशक से संपर्क करने की कोशिश की लेकिन इस मामले में कोई जवाब नहीं मिला. ईएफ़एसएएस के निदेशक ने भी इसी सत्र में यूनाइटेड स्कूल्स इंटरनेशनल का प्रतिनिधित्व किया था और पाकिस्तान की आलोचना की थी.

रिपोर्ट के अनुसार जाँच में पता चला है कि भारत के पक्ष वाली ख़बरों की पैकेजिंग और उसे बढ़ावा देने की ज़िम्मेदारी समाचार एजेंसी एएनआई की है जो कि श्रीवास्तव ग्रुप से जुड़ी हुई है.

एशियन न्यूज़ इंटरनेशनल (एएनआई) साल 1971 में बनी थी और ख़ुद को "दक्षिण एशिया की सबसे प्रमुख मल्टीमीडिया न्यूज़ एजेंसी" होने का दावा करती है जिसके "दुनिया भर में सौ से अधिक ब्यूरो हैं". भारतीय न्यूज़ मीडिया ख़ास कर टीवी चैनल एएनआई के ज़रिए दिए गए कंटेन्ट पर ही बहुत हद तक निर्भर करते हैं.

ईयू डिसइन्फ़ोलैब ने अपने शोध में पाया कि कम से कम 13 बार एएनआई ने पाकिस्तान या कभी-कभी चीन विरोधी यूरोपीय संसद के सदस्यों के लेख को फिर से छापा है. ये लेख सबसे पहले ईयू क्रोनिकल में छपे थे जो श्रीवास्तव ग्रूप से जुड़ी एक फ़र्ज़ी वेबसाइट है.

ईयू क्रोनिकल इसी साल मई में अस्तित्व में आई थी. इससे पहले की डिसइन्फॉर्मेशन रिपोर्ट में ईपी टूडे का नाम आया था जिसके बाद या तो इसका नाम बदल दिया गया या फिर इसे बंद कर दिया गया. इसके बाद ही ईयू क्रोनिकल को बनाया गया.

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जेनिवा में यूएनएचआरसी के बाहर बीते साल हुए पाकिस्तान विरोधी प्रदर्शन

ईयू डिसइन्फ़ोलैब ने अपनी रिपोर्ट में कहा है, "इस अभियान को अंजाम देने वालों ने दूसरों के नाम चुराए, ईयू ऑब्ज़रवर जैसी दिखने वाली मीडिया बनाई, यूरोपीय संसद के लेटरहेड का इस्तेमाल किया, ग़लत फ़ोन नंबर इस्तेमाल कर फ़र्ज़ी वेबसाइट बनाई, संयुक्त राष्ट्र को फ़र्ज़ी पते दिए, और थिंक टैंक की किताबें प्रकाशित करने के लिए फ़र्ज़ी पब्लिशिंग कंपनियां बनाईं."

"उन्होंने कई परतों में ऐसी फ़र्ज़ी मीडिया तैयार की जो एक दूसरे की ख़बरें प्रकाशित करती थीं. उन्होंने महिला अधिकारों और अल्पसंख्यकों के अधिकारों के लिए काम करने वाले सच्चे राजनेताओं का इस्तेमाल किया और अपने उद्देश्यों के लिए धुर-दक्षिणपंथी राजनेताओं को मंच दिया."

ऐलेक्ज़ान्द्रे अलाफ़िलीप ने कहा कि "नज़रिए को प्रभावित करने वाले इस पूरे अभियान" को "वैधता देने और अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाने" के लिए किसी और न्यूज एजेंसी की तुलना में न्यूज़ एजेंसी एएनआई का इस्तेमाल किया गया.

मुख्यधारा के कई भारतीय न्यूज़ चैनलों और वेबसाइट में एएनई की रिपोर्टों को जगह मिलती है. शोधकर्ताओं के अनुसार एक बार मेनस्ट्रीम में आ जाने के बाद उन ख़बरों को 95 देशों की 500 से अधिक फ़र्ज़ी वेबसाइट पर दोबारा छापा गया.

जाँच रिपोर्ट के अनुसार यूरोप में श्रीवास्तव ग्रूप से जुड़े समूहों द्वारा आयोजित विरोध प्रदर्शनों पर एएनआई और ग्रूप से जुड़े फ़र्ज़ी मीडिया वेबसाइट ने रिपोर्ट छापी थीं.

यूरोपीय यूनियन और संयुक्त राष्ट्र पर फ़ोकस

जाँच के निष्कर्षों के अनुसार अपने प्रभाव को बढ़ाने के लिए इस नेटवर्क ने दोतरफ़ा रणनीति तैयार की. एक योजना जिनेवा के लिए थी और दूसरी योजना ब्रसेल्स के लिए.

जिनेवा में थिंक टैंक और एनजीओ का मुख्य काम होता था, लॉबी करना और विरोध प्रदर्शन आयोजित करना. इसके अलावा मान्यता प्राप्त संगठनों की तरफ़ से यूएनएचआरसी के मंच पर अपनी बात रखना.

जबकि ब्रसेल्स में उनका सारा ज़ोर यूरोपीय संसद के सदस्यों पर केंद्रित था. शोधकर्ताओं के अनुसार यूरोपीय संसद के सदस्यों को अंतरराष्ट्रीय दौरे पर ले जाया जाता था, उनसे ईयू क्रोनिकल जैसे फ़र्ज़ी मीडिया आउटलेट के लिए एक्सक्लूसिव आर्टिकल लिखवाया जाता था और फिर उन्हें एएनआई जैसी समाचार एजेंसी की मदद से ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुँचाया जाता था.

इस जाँच रिपोर्ट में यूरोपीय संसद के कुछ सदस्यों का नाम बार-बार आता है. इनमें से एक हैं फ्रांस के थीर्री मारियानी, जिनके दो लेख ईयू क्रॉनिकल में छपे थे. बीते साल भारत प्रशासित कश्मीर के विवादित दौरे पर आने वाले यूरोपीय संसद के सदस्यों में ये भी शामिल थे.

फ्रांस के धुर-दक्षिणपंथी नेशनल रैली पार्टी के नेता मारियानी ने बीबीसी को बताया, "अगर अख़बार [ईयू क्रॉनिकल] के पीछे भारत सरकार का हाथ है तो ये मेरी समस्या नहीं है."

"मैं वही कहता और करता हूं जो मुझे सही लगता है, जो मेरी राय होती है. भारत की सत्ताधारी पार्टी बीजेपी के नेताओं से मेरा संपर्क है और मैं (नरेंद्र मोदी) सरकार का समर्थन करता हूं."

कश्मीर दौरे के दौरान की एक तस्वीर
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साल 2019 के कश्मीर दौरे के दौरान ली गई एक तस्वीर

रिपोर्ट के अनुसार दो और नेता, बुल्गारिया के एंजेल ज़ाम्बाज़्की और पोलैंड के गर्ज़ेगोर्ज़ ने इस बात से इनकार किया है कि ईयू क्रॉनिकल में उनके लेख छपे थे.

उनके नाम से लिखे वो लेख बाद में एएनआई ने छापे थे.

यूरोपीय यूनियन के विदेशी मामलों के प्रवक्ता पीटर स्टानो से जब ये पूछा गया कि वो डिसइन्फॉर्मेशन नेटवर्क के ख़िलाफ़ क्या कर रहे हैं तो उन्होंने कहा कि बीते साल ईपी टुडे का पर्दाफ़ाश करने के लिए क़दम उठाए गए थे.

उन्होंने बीबीसी को बताया, "दुष्प्रचार के इस नेटवर्क और इसे चलाने वाले के बारे में जानकारी सार्वजनिक करना हमारे लिए बेहद अहम है. हम उनकी पहचान करना और उनको सार्वजनिक करना जारी रखेंगे."

हालांकि वो कहते हैं कि जिन एनजीओ का पंजीकरण ब्रसेल्स में हुआ है उनकी आर्थिक स्थिति और पारदर्शिता के बारे में बेल्जियम प्रशासन को जवाब देना चाहिए.

यूएनएचआरसी के प्रवक्ता रोनाल्डो गोमेज़ ने बीबीसी को बताया कि किसी भी एनजीओ को यह हक़ है कि वो अपनी पसंद का मुद्दा उठाए या फिर वो किसी और को अपनी जगह पर सवाल पूछने का मौक़ा दें.

वो कहते हैं, "ऐसा कोई स्पष्ट नियम नहीं है कि एनजीओ किसी ख़ास मुद्दे पर ही बात कर सकते हैं. ऐसा करना उनके अभिव्यक्ति की आज़ादी के अधिकार को छीनने जैसा होगा."

ईयू डिसइन्फ़ोलैब के प्रबंध निदेशक गैरी मचाडो ने कहा कि उन्हें लगता है कि डिसइन्फ़ॉर्मेशन नेटवर्क की जानकारी को लेकर अधिक प्रतिक्रिया इसलिए नहीं हुई क्योंकि ये काफ़ी हद तक 'भारतीय स्टेकहोल्डर्स द्वारा चलाया जा रहा था.'

उन्होंने बीबीसी को बताया, "ज़रा सोचिए अगर यही अभियान चीन या रूस द्वारा चलाया जा रहा होता तो, आपको क्या लगता है दुनिया की क्या प्रतिक्रिया होती? शायद अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इससे हलचल मच जाती, लोग कई तरह के सवाल करते, जाँच बिठा दी जाती और किसे पता शायद प्रतिबंध भी लगा दिए जाते."

इंटरनैशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ नॉन-अलाइंड स्टडीज़
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संयुक्त राष्ट्र की मान्यता प्राप्त इंटरनैशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ नॉन-अलाइंड स्टडीज़ खुले तौर पर श्रीवास्तव ग्रूप से जुड़ी है

लेकिन ऐसा नहीं है कि रिपोर्ट पर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई है. यूरोपीय संसद के जिन सदस्यों के नाम इस रिपोर्ट में हैं उनकी आलोचना की गई है.

ग्रीन पार्टी के डेनियल फ्र्यूंड ने कहा है कि साथी सदस्यों को अपने काम के बारे में खुल कर बताना चाहिए.

उन्होंने कहा, "बीते सालों में कम से कम 24 बार नियमों को तोड़ा गया है लेकिन कभी इसे लेकर प्रतिबंध नहीं लगाए गए. इसलिए नियमों को पालन करने का कोई फ़ायदा नहीं और कभी नियमों को तोड़ते हुए आप कभी पकड़े भी गए तो ज़्यादा से ज़्यादा यह होगा कि आपको बस एक डिक्लेरेशन लिख कर देना पड़ेगा."

नाम न ज़ाहिर करने की शर्त पर एक और सदस्य ने बताया कि ईयू क्रॉनिकल जैसी वेबसाइट पर लिखने वालों की पहचान "इलेक्शन टूरिस्ट" के तौर पर की जाती है.

उन्होंने बीबीसी को बताया कि, "सांसदों का एक समूह है जो ख़ुद जो करना चाहिए वो करने के बजाए दूसरे देशों की सरकारों के ज़रिए प्रायोजित दौरों पर जाना पसंद करता है. लेकिन इस तरह के लोगों से पीआर कराने का कोई फ़ायदा होगा, ऐसा कोई सोच भी कैसे सकता है."

बीबीसी ने समाचार एजेंसी एएनआई और भारत, बांग्लादेश और मालदीव के दौरा पर जाने वाले और ईयू क्रॉनिकल में लिखने वाले यूरोपीय संसद के नौ सदस्यों से संपर्क किया, लेकिन इस रिपोर्ट के छपने तक किसी से कोई उत्तर नहीं मिला.

श्रीवास्तव ग्रुप कौन हैं और आगे क्या होगा?

इस वैश्विक अभियान पर बीते साल आई आंशिक रिपोर्ट और इस साल आई जाँच रिपोर्ट के बाद पूरे विवाद की सुई अंकित श्रीवास्तव नाम के एक व्यक्ति की तरफ़ घूम जाती है.

ईयू डिसइन्फ़ोलैब के शाधकर्ताओं के अनुसार उनके निजी ईमेल एड्रेस और उनके संगठनों से जुड़े ईमेल एड्रेस के नाम पर 400 से अधिक वेबसाइट रजिस्टर हैं.

दिल्ली में श्रीवास्तव ग्रूप के दफ्तर के बाहर, गेट पर इंडियन इंस्टीट्यूट फ़ॉर नॉन-अलाइंड स्टडीजे और न्यू दिल्ली टाइम्स का नेमप्लेट लगा है. दोनों कंपनियां ही श्रीवास्तव ग्रूप से जुड़ी हैं.
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दिल्ली में श्रीवास्तव ग्रूप के दफ्तर के बाहर, गेट पर इंडियन इंस्टीट्यूट फ़ॉर नॉन-अलाइंड स्टडीजे और न्यू दिल्ली टाइम्स का नेमप्लेट लगा है. दोनों कंपनियां ही श्रीवास्तव ग्रूप से जुड़ी हैं.

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इसके अलावा इस ग्रूप के पास एक संदिग्ध टेक कंपनी, अगलाया (Aglaya) भी है. इस इस साल फ़रवरी के बाद से ही कंपनी की वेबसाइट काम नहीं कर रही है. लेकिन इससे पहले कंपनी ने "हैंकिंग या जासूसी करने वाले उपकरण" और "इंफॉर्मेशन वारफेयर सर्विसेज" के विज्ञापन दिए हैं.

अगलाया के मार्केटिंग दस्तावेज़ों के अनुसार कंपनी "किसी देश की छवि को ख़राब करने" में सक्षम है और उसने अपनी कुछ सेवाओं को कथित "साइबर परमाणु" हथियार कहा है.

साल 2017 में अंकुर श्रीवास्तव नाम के एक व्यक्ति ने फोर्ब्स पत्रिका को एक इंटरव्यू दिया था जिसमें उन्होंने दावा किया था कि "वो केवल भारतीय ख़ुफ़िया एजेंसियों को अपने उत्पाद देते हैं."

अब तक ये स्पष्ट नहीं है कि अंकुर श्रीवास्तव का अंकित श्रीवास्तव से क्या नाता है.

इस मामले में एक और श्रीवास्तव का नाम सामने आया है. ये हैं अंकित की मां और ग्रूप की चेयरपर्सन डॉक्टर प्रमिला श्रीवास्तव.

पंजाब की एक बाल रोग विशेषज्ञ डॉक्टर हर्षिंदर कौर ने ईयू डिसइन्फ़ोलैब के शोधकर्ताओं को बताया कि साल 2009 में जब उन्हें जिनेवा में यूएनएचसीआर के एक कार्यक्रम में कन्या भ्रूण हत्या पर बोलने के लिए आमंत्रित किया गया था जब डॉक्टर पी श्रीवास्तव नाम की एक महिला ने उन्हें धमकाया था. डॉक्टर पी श्रीवास्तव का दावा था कि वो "भारत सरकार की एक वरिष्ठ अधिकारी हैं."

डॉक्टर कौर ने बीबीसी को बताया कि प्रमिला श्रीवास्तव ने ही उन्हें धमकी दी थी.

इस मामले में और रिपोर्ट में लगाए गए आरोपों के बारे में बीबीसी ने अंकित श्रीवास्तव को ईमेल किया था, लेकिन उनसे कोई उत्तर नहीं मिला है.

सफ़दरजंग एन्क्लेव में मौजूद ग्रूप के दफ्तर पर भी बीबीसी ने जा कर उनसे बात करने की कोशिश की, लेकिन वहां मौजूद कर्मचारी ने किसी भी सवाल का कोई जवाब नहीं दिया.

ऐसे में इस जाँच के बाद इस पूरे नेटवर्क का क्या होगा और ये आगे कैसे बढ़ेगा, इसे लेकर अभी कोई स्पष्ट जानकारी नहीं है.

'इंडियन क्रॉनिकल' के लेखकों का कहना है कि "अंतरराष्ट्रीय संस्थानों का ग़लत इस्तेमाल करने वालों के ख़िलाफ़ प्रतिबंध लगाने संबंधी ढांचा बनाने के लिए नीतिनिर्माता" उनके शोध के निष्कर्षों का इस्तेमाल कर सकते हैं.

ऐलेक्ज़ान्द्रे अलाफ़िलीप का कहना है कि साल 2019 में हुई जाँच के बाद न तो कोई आधिकारिक पत्र लिखा गया, न तो कोई प्रतिबंध लगाया गया और न ही कोई और क़दम उठाया गया. एक तरह से ऐसा संदेश दिया गया कि आपकी जानकारी सार्वजनिक हो गई है, लेकिन इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा."

उन्होंने बीबीसी को बताया, "मुझे लगता है कि ग़लत प्रचार करने वालों के ख़िलाफ कदम उठाए जाने चाहिए और हमें उम्मीद है कि कोई कार्रवाई होगी. संस्थानों की सबसे बड़ी नाकामी यह होगी कि अगर अगले साल भी इन्हीं लोगों और उनके काम करने के इन्हीं तरीक़ों के बारे में इसी तरह की एक और रिपोर्ट निकाली जाए."

उन्होंने आगे कहा, इसका ये मतलब होगा कि यूरोपियन यूनियन जैसी संस्थान विदेशी हस्तक्षेप को लेकर सहज है."

https://www.bbc.com/hindi/international-55258044

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