उदारीकरण के 30 साल: नरसिंह राव-मनमोहन सिंह ने कैसे खोजा था आपदा में अवसर

 


  • ज़ुबैर अहमद
  • बीबीसी संवाददाता
मनमोहन सिंह

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मनमोहन सिंह

24 जुलाई 1991, इसे भारत की आर्थिक आज़ादी का दिन कहा जाए तो ग़लत न होगा. तीस साल पहले 24 जुलाई को पेश किए गए बजट ने भारत में एक नई खुली हुई अर्थव्यवस्था की नींव रखी.

भारत की बंद अर्थव्यवस्था में सरकार ही सब कुछ तय करती थी. सरकार तय करती थी कि किस सामान का उत्पादन कितना होगा, उसे बनाने में कितने लोग काम करेंगे और उसकी क़ीमत क्या होगी.

इस सिस्टम को लाइसेंस परमिट राज के नाम से जाना जाता है.

इसके विपरीत खुली अर्थव्यवस्था में निजी कंपनियों की आज़ादी, निजी उद्यम का प्रोत्साहन, सरकारी निवेश कम करने, खुले मार्केट को बढ़ावा देने का फ़ैसला किया गया.

तीस साल पहले भारत ने खुली अर्थव्यवस्था के रास्ते पर चलने के लिए अनेक आर्थिक सुधार की योजनाओं की घोषणा की जो 24 जुलाई 1991 के बजट का अहम हिस्सा थीं.

पीवी नरसिंह राव

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पीवी नरसिंह राव

बजट की ख़ास बातें

  • घरेलू बाज़ार में कंपनियों के बीच प्रतिस्पर्धा बढ़ाने की घोषणा
  • लाइसेंसिंग राज का अंत, कंपनियों को कई तरह की प्रतिबंधों से मुक्त किया गया
  • बजट ने आयात-निर्यात नीति में बदलाव की शुरुआत की, जिसका उद्देश्य आयात लाइसेंसिंग में ढील और निर्यात को बढ़ावा देना था
  • बजट में विदेशी निवेश का स्वागत किया गया, इसमें कहा गया कि प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से रोज़गार पैदा होंगे
  • बजट में सॉफ्टवेयर के निर्यात के लिए आयकर अधिनियम की धारा 80एचएचसी के तहत टैक्स में छूट की घोषणा

इस महत्वपूर्ण बजट को आधुनिक भारत के इतिहास में सबसे बड़ी घटनाओं में से एक माना जाता है.

इसका श्रेय उस समय के प्रधानमंत्री नरसिंह राव और उनके वित्त मंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह की जोड़ी को दिया जाता है. डॉक्टर सिंह ने उस बजट को पेश करते हुए फ़्रांसीसी थिंकर विक्टर ह्यूगो के शब्दों का इस्तेमाल करत्ते हुए संसद में कहा था, "पृथ्वी की कोई भी शक्ति उस विचार को नहीं रोक सकती जिसका समय आ गया हो."

डॉक्टर सिंह के कहने का मतलब ये था कि भारत का एक प्रमुख वैश्विक शक्ति और एक आर्थिक ताक़त के रूप में उभरना एक ऐसा विचार है जिसका समय आ गया था और उसे कोई रोक नहीं सकता.

मनमोहन सिंह के आत्मविश्वास से भरे शब्दों के विपरीत आर्थिक सुधार लाने का फैसला भारत की एक मजबूरी थी, जो अपने इतिहास के सबसे बड़े आर्थिक संकट से गुज़र रहा था.

प्रसार भारती के पूर्व चेयरमैन सूर्य प्रकाश उस समय इंडियन एक्सप्रेस अख़बार में एक सीनियर पत्रकार थे.

वो बीबीसी से बातें करते हुए कहते हैं, "मुझे लगता है वो एक मजबूरी थी लेकिन एक राष्ट्र के जीवन में जब मजबूरी आती है तो वो एक चुनौती होती है. उस चुनौती को स्वीकार करें तो हम एक बदलाव और प्रगति की तरफ़ जा सकते हैं. तो 1991 का जो संकट था वो उसी प्रकार का संकट था. दूसरी बात ये इस देश का सौभाग्य था कि नरसिंह राव जैसे एक वरिष्ठ नेता हमें उस समय प्रधानमंत्री के रूप में मिले, उन्होंने बहुत सोच-समझ कर जो क़दम उठाए उससे देश की दशा और दिशा सब कुछ बदल दिया."

भारतीय अर्थव्यवस्था

भारत यहाँ तक पहुंचा कैसे?

भारत को आज़ादी के बाद से ही आर्थिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा था, आर्थिक सुधार की ज़रुरत महसूस हुई लेकिन इस पर सियासी पार्टियों में कभी आम सहमति नहीं बन सकी. इंदिरा गांधी ने 1966 में सुधार की एक नाकाम कोशिश की. राजीव गाँधी कंप्यूटर और कलर टीवी लेकर आए लेकिन आर्थिक सुधार के रास्ते पर कभी ठीक से नहीं चले.

इस बीच भारत की आर्थिक समस्याएं बढ़ती गईं. 1980 के दशक में ये समस्याएँ और भी बढ़ीं और 1990 तक इन समस्याओं ने एक गंभीर आर्थिक संकट का रूप ले लिया था. उस समय वित्त मंत्री थे यशवंत सिन्हा और प्रधानमंत्री थे चंद्रशेखर.

बीबीसी हिंदी से एक ख़ास बातचीत में तत्कालीन वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा उस काल को याद करते हुए कहते हैं, "मैं आपको याद दिलाना चाहूंगा कि जाने-माने अर्थशास्त्री आईजी पटेल ने 1991 में बेंगलुरु में एक लेक्चर के दौरान कहा था कि 80 के दशक में, ख़ास तौर से आखिर के पांच सालों में सरकार ने ऐसे ख़र्च किया कि किसी को कोई चिंता ही नहीं थी."

वरिष्ठ पत्रकार शंकर अय्यर के मुताबिक़ 1988 में प्रधानमंत्री राजीव गांधी से अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने कहा था कि भारत आर्थिक संकट की तरफ़ तेज़ी से बढ़ रहा है जिससे बचने के लिए आप एक लोन ले लें. राजीव गांधी इस मशवरे से सहमत थे लेकिन आम चुनाव नज़दीक होने के कारण उन्होंने इस पर ध्यान नहीं दिया, उस समय उनकी पार्टी के वरिष्ठ नेता भी इसके लिए तैयार नहीं थे.

भारतीय अर्थव्यवस्था

साल 1989 के आम चुनाव में विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार बनी, जिसके बारे में कहा जाता था कि ये दो बैसाखियों पर टिकी एक सरकार है यानी कांग्रेस और बीजेपी के समर्थन से उनकी सरकार चल रही थी. वीपी सिंह जब प्रधानमंत्री के पद पर बैठे तो उन्होंने अपने शुरू के दिनों के बयानों में कहा था कि सरकारी खज़ाना ख़ाली है.

वीपी सिंह की सरकार आरक्षण के मुद्दे को लेकर एक बड़े सियासी संकट में घिरी और डेढ़ साल बाद उनकी सरकार गिर गई. चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बने, उनके वित्त मंत्री बने यशवंत सिन्हा और उनके आर्थिक सलाहकार बने डॉक्टर मनमोहन सिंह.

तब तक देश का आर्थिक संकट और भी गंभीर हो चुका था, डॉक्टर सिंह ने उस काल को याद करते हुए सालों बाद वरिष्ठ पत्रकार शेखर गुप्ता को दिए एक इंटरव्यू में कहा था, "भारत संकट में था. चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बने. उन्होंने मुझे आर्थिक सलाहकार की हैसियत से मदद करने को कहा. मैंने सोचना शुरू कर दिया कि क्या किया जाए."

सियासी और आर्थिक अनिश्चितता से भरे इस माहौल में नए वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा की चुनौतियाँ और भी बढ़ीं. उन्होंने इस बारे में बीबीसी हिंदी से कहा, "जब मैं दिसंबर 1990 में वित्त मंत्री बना तो उस समय भारत में विदेशी मुद्रा भंडार घटकर केवल दो अरब डॉलर तक रह गया था. इसका मतलब ये हुआ कि सामान्य परिस्थिति में भारत के पास विदेशी मुद्रा का इतना ही भंडार था जिससे कि दो हफ़्ते के आयात का बिल हम भर सकते थे."

यशवंत सिन्हा

सोने को गिरवी रखने का मामला

उस समय भारत एक बड़ा कर्ज़दार देश था लेकिन उसे और भी क़र्ज़ों की ज़रुरत थी. भारत पर कई देशों का शॉर्ट टर्म लोन का बोझ था जिसकी किस्तें 5 अरब डॉलर के करीब थीं. कर्ज़ पर ब्याज चुकाने के लिए पैसे नहीं थे.

यशवंत सिन्हा कहते हैं, "मेरे वित्त मंत्री बनने से पहले 5 अरब डॉलर का शार्ट टर्म क़र्ज़ लिया गया था. शार्ट टर्म क़र्ज़ का मतलब होता है 30 दिन से 90 दिनों तक का क़र्ज़. समय समाप्त होने के बाद आपको इसकी भरपाई करनी होती है. हमारे पास विदेशी मुद्रा भंडार न के बराबर रह गया था तो हमें लगा कि कहीं हम डिफॉल्टर न बन जाएँ."

उनके अनुसार गंभीर आर्थिक संकट की शुरुआत बैलेंस ऑफ़ पेमेंट में असंतुलन से हुई और बाद में चालू खाते में असंतुलन से मामला और भी गंभीर हो गया. ऐसे में केंद्र सरकार ने तस्करों से ज़ब्त किए हुए सोने को स्विट्ज़रलैंड के एक बैंक में गिरवी रख दिया, ये सब चुपके से किया गया लेकिन इस विवादास्पद कदम से देश को कुछ ख़ास आर्थिक राहत नहीं मिली.

कुछ महींनों बाद नरसिम्हा राव सरकार ने आरबीआई में रखे देश के गोल्ड रिज़र्व को दो विदेशी बैंकों में गिरवी रख दिया, सोने के ट्रांसफर को गुप्त रखा गया लेकिन 'इंडियन एक्सप्रेस' के एक खोजी पत्रकार ने इसका पर्दाफ़ाश कर दिया. जैसे हर्षद मेहता घोटाले में वरिष्ठ पत्रकार सुचेता दलाल का नाम लिया जाता है उसी तरह 1990-91 के गंभीर आर्थिक संकट का सच सामने लाने के लिए पत्रकार शंकर अय्यर का नाम लिया जाता है. भारत सरकार के इस विवादास्पद क़दम पर से पर्दा हटाने का काम उन्होंने ही किया था.

बीबीसी से बातें करते हुए वो कहते हैं, "एक परिवार में जब कोई बड़ा आर्थिक संकट आता है तो आख़िरी क़दम के तौर पर परिवार अपनी औरतों के गहने गिरवी रख देता है. मेरी रिपोर्ट का असर ये हुआ कि लोगों को पहली बार अंदाज़ा हुआ कि देश का आर्थिक संकट कितना गंभीर है."

देश का सोना केवल 40 करोड़ डॉलर के लिए गिरवी रखा गया था. ये राशि आज के उद्योगपतियों के लिए एक छोटी-सी रक़म है. उस समय विपक्ष के नेताओं और मीडिया ने यशवंत सिन्हा और चंद्रशेखर को खूब लताड़ा.

यशवंत सिन्हा उन दिनों को याद करते हुए कहते हैं, "मुझे अब भी याद है. मैं पटना में था, चुनाव लड़ने गया था. वित्त मंत्रालय का एक अधिकारी मेरे पास आया मेरा दस्तखत लेने. सोने को गिरवी रखने का फैसला सरकार का था और सरकार से बाहर राजीव गांधी भी इससे सहमत थे तो मैंने दस्तखत कर दिया.''

लेकिन उस समय उनकी बड़ी बदनामी हुई थी जैसा कि वो ख़ुद कहते हैं, "हमारे जो विरोधी रहे हैं उन्होंने अपने चुनावी भाषणों में इसका खूब उल्लेख किया है कि ये वही आदमी है जिसने देश के सोने को गिरवी रखने का काम किया था."

पीवी नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह

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पीवी नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह

खाड़ी युद्ध और तेल संकट

भारत सरकार को सोने गिरवी रखने से भी कुछ ख़ास फ़ायदा नहीं हुआ. आर्थिक संकट बढ़ता ही गया. ऐसे में खाड़ी युद्ध शुरू हो गया, जिसके भारत के लिए दो परिणाम हुए-पहला, राजनयिक तौर पर भारत को ये तय करना पड़ा कि वो अपने क़रीबी दोस्त इराक का साथ दे या अमेरिका का.

और दूसरा युद्ध की वजह से कच्चे तेल की बढ़ती कीमतों से भारत कैसे निपटे. युद्ध से पहले भारत तेल के आयात पर हर महीने 500 करोड़ खर्च कर रहा था लेकिन युद्ध शुरू होने के बाद हर महीने 1200 करोड़ रुपये खर्च करने पड़ रहे थे.

चन्द्रशेखर सरकार को आर्थिक संकट से निपटने के लिए अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष का दरवाज़ा खटखटाना पड़ा, जैसा कि शंकर अय्यर कहते हैं, "अल्पमत सरकार होने के बाद भी उन्होंने (चंद्रशेखर) एक हिम्मतवाला फ़ैसला लिया, आईएमएफ़ में हमें अमेरिका का सहयोग नहीं मिल रहा था. उस समय सुब्रमण्यम स्वामी वाणिज्य मंत्री थे, चंद्रशेखर ने उनसे कहा कि आप अमेरिका के विदेश मंत्रलय से बात करें और उनका सहयोग हासिल करें."

अमेरिका को खाड़ी युद्ध में लड़ाकू विमानों में दोबारा तेल भरने के लिए भारत के हवाई अड्डों के इस्तेमाल की इजाज़त चाहिए थी. स्वामी इसके लिए तैयार हो गए. शंकर अय्यर कहते हैं, "जिस दिन समझौता हुआ और पहला विमान भारत में उतरा उसके चार-पांच दिन बाद आईएमएफ़ ने भारत के बेल आउट समझौते पर हस्ताक्षर कर दिया."

ये चंद्रशेखर और सुब्रह्मण्यम स्वामी की सूझ-बूझ का नतीजा कम और भारत की मजबूरी का इससे लेना-देना अधिक था. आईएमएफ़ के अलावा उसे कोई क़र्ज़ देने को तैयार नहीं था.

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बढ़ती महंगाई से किस तरह पिस रहा आम आदमी?

डॉक्टर मनमोहन सिंह की भूमिका

आईएमएफ़ के क़र्ज़ हासिल करने की कुल 25 शर्तें थीं जिनमें भारत की अर्थव्यवस्था को खोलना और सरकारी कंपनियों का विनिवेश करना शामिल थे.

मई 1991 में आम चुनाव हुए. नरसिम्हा राव, जिन्हें राजीव गाँधी ने चुनाव लड़ने के लिए टिकट नहीं दिया था वो सियासत से आधे रिटायर हो चुके थे. लेकिन नियति को कुछ और ही मंज़ूर था. चुनावी मुहिम के दौरान राजीव गांधी की हत्या कर दी गई. नरसिम्हा राव नेता चुने गए. उन्होंने बहुमत के लिए कम पड़ रहे सांसद जुटाए और सरकार बनाई.

वित्त मंत्री के पद के लिए उनकी पहली पसंद अर्थशास्त्री आईजी पटेल थे. लेकिन उन्होंने राव की पेशकश को अस्वीकार किया तो प्रधानमंत्री की निगाह मनमोहन सिंह पर पड़ी जो थोड़े समय पहले ही चंन्द्रशेखर के आर्थिक सलाहकार रह चुके थे, बाद में वो यूनिवर्सिटी ग्रांट्स कमीशन (यूजीसी) के चेयरमैन बने थे.

शंकर अय्यर के अनुसार डॉक्टर सिंह की साख अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं में अच्छी थी और प्रधानमंत्री राव का उन्हें वित्त मंत्री बनाने के पीछे उद्देश्य ये था कि अंतरराष्ट्रीय बैंकों से क़र्ज़ आसानी से मिल सके.

एक बार डॉक्टर सिंह वित्त मंत्री बने तो नरसिम्हा राव ने उनका साथ कभी नहीं छोड़ा. सूर्य प्रकाश कहते हैं, "हर हफ़्ते ये वामपंथी सांसद मनमोहन सिंह पर हमला करते थे अर्थव्यवस्था को खोलने के कारण, लेकिन नरसिम्हा राव उनके पीछे खड़े रहे, उन्होंने कहा तुम डटे रहो हम

तुम्हारे साथ हैं. पांच साल वो वित्त मंत्री रहे और नरसिम्हा राव उनके साथ खड़े रहे."

ख़ुद कई साल बाद नरसिम्हा राव ने पत्रकार शेखर गुप्ता से एक इंटरव्यू के दौरान कहा, "डॉक्टर मनमोहन सिंह ने इसे (आर्थिक सुधार को) आगे बढ़ाने की पूरी कोशिश की, उनके पीछे मैं चट्टान की तरह खड़ा था."

मनमोहन सिंह

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24 जुलाई 1991 का ऐतिहासिक दिन

नरसिम्हा राव की सरकार जून में आई और एक महीने के बाद वो मशहूर बजट पेश किया गया जिसने देश की क़िस्मत बदल दी. दिन था 24 जुलाई. साल 1991. आम तौर से एक बजट को तैयार करने में तीन महीने लगते हैं लेकिन मनमोहन सिंह के पास सिर्फ एक महीना था. उन्होंने

ने बजट पेश किया जिसने लाइसेंस परमिट राज के दौर को ख़त्म कर दिया, बंद अर्थव्यवस्था को खोल दिया, निजी कंपनियां आईं, विदेशी कंपनियों ने भी प्रवेश किया.

नरसिम्हा राव ने उद्योग मंत्रालय अपने पास रखा. इस मंत्रालय में बदलाव की सबसे अधिक ज़रुरत थी और राव ने अपने साथियों के विरोध के बावजूद एक से बढ़ कर एक रिफार्म किया.

जल्द ही इसके फायदे नज़र आने लगे. पैसे से पैसा बनने लगा. सरकारी कंपनियों का विनिवेश हुआ. विदेशी निवेश आया. डर था कि विदेशी कंपनियों के आने से भारतीय कंपनियां नाकाम हो जाएंगी या विदेशी कंपनियों के लिए केवल लोकल सप्लायर बनकर रह जाएँगी लेकिन भारतीय

कंपनियां फलने-फूलने लगीं. करोड़ों नई नौकरियां मार्केट में आईं और करोड़ों लोग ग़रीबी रेखा से पहली बार ऊपर उठे.

पीवी नरसिह्मा राव

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सही आदमी, ग़लत समय

उस समय की मीडिया ने डॉक्टर मनमोहन सिंह को हीरो बना दिया, हालांकि सूर्य प्रकाश और शंकर अय्यर कहते हैं कि आर्थिक सुधार के असल हीरो थे पीवी नरसिम्हा राव.

लेकिन अगर 1991 में चंद्रशेखर की सरकार न गिरती तो आर्थिक सुधार के हीरो चंद्रशेखर और यशवंत सिन्हा होते, यशवंत सिन्हा ने 1991 का बजट तैयार कर लिया था और आर्थिक सुधार के कई फैसले इसमें शामिल थे. बजट 28 फ़रवरी को पेश किया जाना था लेकिन सरकार ने कांग्रेस

का समर्थन खो दिया और तब यशवंत सिन्हा से केवल एक अंतरिम बजट पेश करने को कहा गया.

उस लम्हे को याद करते हुए यशवंत सिन्हा कहते हैं, "हम लोगों की योजना ये थी कि 28 फ़रवरी को बजट पेश करेंगे और आर्थिक सुधारों के क़दमों को मज़बूती से आगे बढ़ाएंगे, और फिर आईएमएफ़ के पास जाएंगे और 5-6 अरब डॉलर के क़र्ज़ की मांग करेंगे. ऐसा संभव नहीं हुआ

क्योंकि कांग्रेस ने कहा कि आप केवल तीन महीने के लिए एक अंतरिम बजट पेश करें, तो उससे संकट और गहरा हो गया."

यशवंत सिन्हा ने इस्तीफा दे दिया, वो आगे कहते हैं, "जब अंतरिम बजट पेश करने को कहा गया तो इसका मैंने ज़ोरदार विरोध किया. मैं घर लौटा और चंद्रशेखर जी को अपने हाथ से इस्तीफ़ा लिखकर भेज दिया. मैंने इस्तीफा दे दिया, घर में बैठ गया, सरकारी गाड़ी लौटा दी और ऑफिस जाना छोड़ दिया."

लेकिन चंद्रशेखर ने उन्हें मना लिया और उन्होंने अपना इस्तीफा वापस ले लिया, उन्होंने ने आख़िर अंतरिम बजट पेश किया (इसके कुछ हफ्तों बाद सरकार को इस्तीफा देना ही पड़ा).

यशवंत सिन्हा कहते हैं, "बजट भाषण को छोड़कर बाक़ी सब कुछ तैयार था. बजट स्पीच तो हुआ नहीं लेकिन अंतरिम बजट भाषण हुआ. उस अंतरिम बजट भाषण को आप उठाकर देखिए और जुलाई में जो मनमोहन सिंह ने जो बजट भाषण पेश किया उसे देखिए तो दोनों में आप पाएँगे कि भाषा एक ही है. और बहुत सारे पैराग्राफ़ हैं जिनमें हूबहु वही बातें कही गई हैं जो हमने अपने अंतरिम बजट में कहा था."

शंकर अय्यर इससे सहमत हैं. उनके अनुसार बजट बनाने वाले दोनों नेताओं की टीमें भी लगभग एक ही थीं. वो कहते हैं कि कांग्रेस पार्टी को, जो बाहर से चंद्रशेखर की सरकार को समर्थन दे रही थी, ये भनक मिल गई थी कि यशवंत सिन्हा सुधार के बड़े क़दम की घोषणा करने वाले हैं और कांग्रेस इसका श्रेय चंद्रशेखर सरकार को नहीं लेने देना चाहती थी इसलिए सरकार गिरा दी गई.

शंकर अय्यर कहते हैं, "सिन्हा जो कहते हैं मैं उनसे सहमत हूँ. अगर बजट वो पेश कर देते तो लोग उन्हें इसका श्रेय देने लगते, यशवंत सिन्हा के बारे में मैं हमेशा कहता हूँ वो ग़लत समय पर सही आदमी थे", यानी समय उनके लिए कभी सही नहीं रहा जिसे ख़ुद यशवंत सिन्हा भी स्वीकार करते हैं.

कुछ इस बात पर ज़ोर देते हैं कि सुधार की धीमी रफ़्तार को तेज़ किया जाए तो कुछ दूसरे कहते हैं सुधार के कारण समाज में असमानता बढ़ी है जिसे कम करने पर ज़ोर देना चाहिए, लेकिन इस बात से देश में किसी को इनकार नहीं कि 30 साल पहले जो आर्थिक इतिहास रचा गया उससे देश एक विशाल अर्थव्यवस्था बन गया है.

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