हमारे अनुसूचित जाति (बिहार में महादलित) के लोग गरीब हैं. उनके पास ज़मीन नहीं है, पढ़ाई लिखाई नहीं है और कोई डॉक्यूमेंट नहीं है. सरकार उनको वोटिंग के संवैधानिक अधिकार से कैसे बाहर कर सकती है?"सुधा वर्गीज़
बिहार चुनाव 2025: वोटर लिस्ट संशोधन को लेकर क्या है विपक्षी दलों की आपत्ति और विशेषज्ञों की चिंता

- सीटू तिवारी
- बीबीसी संवाददाता
चुनाव आयोग के विशेष मतदाता गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) पर बिहार की विपक्षी पार्टियां ही सवाल नहीं उठा रही हैं बल्कि आम लोगों के मन में भी कई तरह की आशंकाएं हैं.
कोसी नदी के किनारे बसे खोखनाहा गांव का बाढ़ की वजह से भूगोल बदलता रहता है. प्रियंका इसी गांव में रहती हैं. उनके पति पंजाब में मज़दूरी करते हैं.
घर पर दो बच्चे, उनके बूढ़े सास-ससुर और मवेशी हैं.
प्रियंका एसआईआर में लगने वाले दस्तावेजों के बारे में कहती हैं, "सारा कागज़ (डॉक्यूमेंट्स) तो पिछली बाढ़ में बह गया. सरकार अब कौन सा कागज़ खोजती है?"
वह कहती हैं, "अभी पानी आ गया है और हम जान-माल, बाल-बच्चा छोड़कर कागज़ का इंतजाम करें?"
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पिछले महीने 24 जून को निर्वाचन आयोग ने बिहार में विशेष मतदाता गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) का निर्देश दिया था.
यह 25 जून से 26 जुलाई 2025 के बीच होना है. निर्वाचन आयोग ने पहले सभी मतदाताओं के लिए ज़रूरी दस्तावेज़ जमा करना जरूरी किया था, लेकिन बाद में इसमें कुछ बदलाव भी किए गए.

खोखनाहा से तक़रीबन 250 किलोमीटर पटना के दानापुर स्टेशन से सटी लखनी बिगहा मुसहरी है.
यहां मुसहर समुदाय के लोग रहते हैं. लाल जी कुमार इनके विकास मित्र है. उन पर सरकारी योजनाएं, मुसहरी में पहुंचाने की ज़िम्मेदारी है.
लाल जी कहते हैं, "मांझी (मुसहर) लोग अशिक्षित हैं. उनके पास कोई डॉक्यूमेंट नहीं हैं. आधार कार्ड तक नहीं है. वो लोग वोट क्या करेंगे?"
बिहार साल दर साल बाढ़ झेलने और काम की तलाश में पलायन करती आबादी जैसी चुनौतियों से जूझ रहा है. विकास के कई मापदंड़ों में काफी निचले स्तर पर आने वाले इस राज्य के लोग अब इस नए फैसले के बाद परेशानी का सामना कर रहे हैं.
आजकल बिहार के मुख्य निर्वाचन अधिकारी के कार्यालय में लगातार चल रही मीटिंग्स और मतदाताओं के अपने डॉक्यूमेंट्स तलाशने की कवायद, इसकी गवाही देते हैं.
'एसआईआर-पॉलिटिकल सिटिज़नशिप'

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बिहार में इस साल कुछ महीने बाद विधानसभा चुनाव होने हैं.
बिहार की विपक्षी पार्टियों ने इस कदम की तीखी आलोचना की है. नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव ने इसे 'लोकतंत्र को कमज़ोर करने की कोशिश' बताया है.
उन्होंने एक्स पर लिखा है, "प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने निर्वाचन आयोग को बिहार की समस्त मतदाता सूची को निरस्त कर केवल 25 दिन में 1987 से पूर्व के कागजी सबूतों के साथ नई मतदाता सूची बनाने का निर्देश दिया है. चुनावी हार की बौखलाहट में ये लोग अब बिहार और बिहारियों से मतदान का अधिकार छीनने का षड्यंत्र कर रहे हैं."
वहीं बीजेपी नेता जनक राम का कहना है, "विपक्ष बांग्लादेश और रोहिंग्या की राजनीति करना चाहता है. बिहार की जनता अब उनके झांसे में नहीं आएगी."
सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच इस आरोप-प्रत्यारोप से इतर समाजविज्ञानी भी बिहार जैसे चुनौतीपूर्ण राज्य के लिए इस एक्सरसाइज़ की टाइमिंग को गलत मानते हैं.
माइग्रेशन, वर्कर एंड फंडामेंटल फ्रीडम सहित कई किताबों के लेखक और समाजशास्त्री पुष्पेन्द्र बीबीसी से कहते हैं, "ये बिहार की एक बड़ी आबादी की पॉलिटिकल सिटिज़नशिप पर आफ़त है."
वे कहते हैं, "सरकार एक तरह से एनआरसी को बैकडोर से लागू करने की कोशिश कर रही है. सरकार के इस कदम से लोग ख़ासतौर पर हाशिए की आबादी वोटिंग के अधिकार से वंचित होगी."
उनका कहना है, "यहां पलायन है, बाढ़ प्रभावित इलाके में लोगों के कागज़ हर साल बाढ़ में बहते हैं, लोग शिक्षित नहीं हैं. ये केरल जैसे राज्य में होता तो भी समझ में आता, लेकिन बिहार इसके लिए तैयार नहीं है."
विशेष मतदाता गहन पुनरीक्षण के लिए ज़रूरी दस्तावेज़

एसआईआर दो तरीके से होगा. पहला बूथ लेवल ऑफिसर (बीएलओ) घर-घर, एक प्री-फील्ड फॉर्म गणना प्रपत्र (मतदाता की जानकारी और दस्तावेज) लेकर जाएंगे.
दूसरा कोई भी व्यक्ति चुनाव आयोग की वेबसाइट पर जाकर यह फॉर्म डाउनलोड करके उसे भर सकता है.
यहां प्री-फील्ड फ़ॉर्म का मतलब है कि वोटर के बारे में जानकारी पहले से ही फ़ॉर्म में भरी होगी.
बीएलओ सिर्फ़ उनका वेरिफ़िकेशन करेगा. साथ ही अगर ज़रूरत होगी तो व्यक्ति को आवश्यक दस्तावेज़ जमा करने होंगे.
प्री फील्ड फ़ॉर्म का आधार, इसी साल 7 जनवरी को चुनाव आयोग की ओर से घोषित मतदाताओं की प्रकाशित 'अंतिम सूची' है.
7 जनवरी को प्रकाशित हुई इस सूची के मुताबिक, बिहार में कुल 7 करोड़ 80 लाख 22 हजार 933 मतदाता हैं जिनमें 3 करोड़ 72 लाख 57 हजार 477 महिलाएं, 4 करोड़ 7 लाख 63 हजार 352 पुरुष और 2 हजार 104 थर्ड जेंडर हैं.
चुनाव आयोग ने 11 दस्तावेजों की सूची जारी की है जिनमें से किसी एक दस्तावेज को गणना प्रपत्र के साथ लगाना होगा.
- कोई भी पहचान पत्र या केन्द्र/ राज्य सरकार के नियमित कर्मचारियों अथवा पेंशन भोगियों को मिलने वाला पेंशन भुगतान आदेश
- 1 जुलाई 1987 से पहले जारी किया गया कोई भी पहचान पत्र/ प्रमाण पत्र/ सरकार, स्थानीय निकाय, बैंक, पोस्ट ऑफ़िस, एलआईसी या पीएसयू की ओर से जारी कोई भी दस्तावेज़
- जन्म प्रमाण पत्र/पासपोर्ट/शैक्षणिक प्रमाण पत्र या सर्टिफिकेट
- राज्य सरकार की किसी संस्था की ओर से जारी मूल निवास प्रमाण पत्र
- ओबीसी, एससी या एसटी का जाति प्रमाण पत्र
- वन अधिकार प्रमाण पत्र
- राज्य सरकार या स्थानीय निकाय का फैमिली रजिस्टर
- सरकार की ओर से जारी घर या जमीन का प्रमाण पत्र
- एनआरसी ( बिहार में लागू नहीं)
जन्म प्रमाण पत्र, आवास, शिक्षा के बदहाल आंकड़े

गौरतलब है कि आधार कार्ड को एसआईआर के लिए ज़रूरी दस्तावेज़ों में मान्यता नहीं मिली है.
एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफ़ॉर्म से जुड़े राजीव कुमार कहते हैं, "हम लोग इस फ़ैसले को पटना हाई कोर्ट में चुनौती देने वाले हैं."
उनका कहना है, "हम मानते हैं कि ये फ़ैसला अलोकतांत्रिक है और बिहार की ज़मीनी परिस्थितियों के हिसाब से ठीक नहीं है. साल 2003 में एसआईआर में डेढ़ साल लगे थे. अबकी बार ये एक माह में हो जाएगी?"
महादलित समुदाय के बीच अपने ज़मीनी काम के लिए सुधा वर्गीज़ को पद्मश्री से सम्मानित किया गया है.
वो इस पर कहती हैं, "हमारे अनुसूचित जाति (बिहार में महादलित) के लोग गरीब हैं. उनके पास ज़मीन नहीं है, पढ़ाई लिखाई नहीं है और कोई डॉक्यूमेंट नहीं है. सरकार उनको वोटिंग के संवैधानिक अधिकार से कैसे बाहर कर सकती है?"
दरअसल अगर बिहार को आंकड़ों में देखें तो ये देश का सबसे ज्यादा बाढ़ प्रभावित राज्य है. राज्य के भूगोल का 73 फ़ीसदी हिस्सा बाढ़ प्रभावित रहता है.
सिविल रजिस्ट्रेशन सिस्टम (सीआरएस) 2022 की रिपोर्ट के मुताबिक, बिहार में 21 दिन के भीतर जन्म का रजिस्ट्रेशन सिर्फ़ 71.6 प्रतिशत लोगों ने किया. जन्म का रजिस्ट्रेशन 21 दिन के भीतर करने से यह नि:शुल्क होता है.
इसी तरह शैक्षणिक योग्यता की बात करें तो बिहार सरकार के जातीय सर्वे के मुताबिक सामान्य वर्ग में 17.45, ओबीसी में 21.69, ईबीसी में 24.65, एससी में 24.31, एसटी में 24.52, अन्य जातियों में 18.32 फ़ीसदी लोगों ने सिर्फ़ पहली कक्षा से पांचवी तक पढ़ाई की है. राज्य में ऐसे लोगों की संख्या 22.67 फ़ीसदी है.
इसी तरह नौवीं और दसवीं की पढ़ाई का आंकड़ा देखें तो बिहार में महज़ 15 फ़ीसदी से भी कम लोगों ने मैट्रिक पास की है.
इसी तरह ग्रेजुएट सिर्फ़ 6.11 फ़ीसदी और पोस्ट ग्रेजुएट सिर्फ़ 0.82 फ़ीसदी लोग हैं. वहीं आवासीय स्थिति के मोर्चे पर भी बिहार बदहाल है.
आवासीय स्थिति को जानना इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि दस्तावेज़ों में घर या जमीन का प्रमाण पत्र भी मांगा गया है.
सरकार के सर्वे के मुताबिक, सिर्फ़ 60 फ़ीसदी लोगों के पास ही पक्के मकान हैं. राज्य में 26.54 फ़ीसदी लोग टीन या खपरैल की छत के नीचे और 14.09 फ़ीसदी झोपड़ी में रहते हैं. वहीं 0.24 फ़ीसदी लोगों के पास घर ही नहीं है.
साल 2024-25 के बिहार आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक, "31 मार्च 2024 तक देश की कुल बैंक शाखाओं में बिहार का हिस्सा 4.9 फ़ीसदी था जो राष्ट्रीय आबादी में राज्य के हिस्से से कम है. यानी बिहार में देश के अन्य भागों की तुलना में प्रति बैंक शाखा अधिक लोग हैं."
चुनाव आयोग ने जो दस्तावेज मांगे हैं, उसकी जमीनी स्थिति साफ़ तौर पर बदहाल है. साथ ही इन आंकड़ों में भी सबसे बदतर स्थिति महादलितों की है.
'चुनाव आयोग आसमानी बातें कर रहा'

हाशिए की आबादी के ख़िलाफ़ होने वाली हिंसा के विषय पर काम कर रहीं सामाजिक कार्यकर्ता प्रतिमा कुमारी कहती हैं, "हमारे लोग इतने ज्यादा असुरक्षित हैं और सरकार कागज़ मांग रही है. आप देखें लड़कियां शौच के लिए जाती हैं और उनके साथ यौन हिंसा हो जाती है."
वे कहती हैं, "उनको एससी/एसटी एक्ट के तहत डॉक्यूमेंट्स के अभाव में मुआवज़ा भी नहीं मिल पाता है. हमारा समाज हाशिए पर है और चुनाव आयोग उनसे आसमानी बातें कर रहा है."
बिहार में इससे पहले जनवरी 2003 में एसआईआर हुआ था. एसआईआर की घोषणा के बाद चुनाव आयोग ने दो बातें स्पष्ट की हैं.
पहला तो यह कि जिन वोटर का एसआईआर साल 2003 की प्रक्रिया में हो चुका है, उनको किसी तरह के दस्तावेज़ की जरूरत नहीं है.
इससे तकरीबन 60 फ़ीसदी मतदाताओं यानी 4.96 करोड़ को कोई दस्तावेज़ नहीं जमा करना होगा.
सोमवार (30 जून) को आयोग ने इस बात की भी घोषणा की कि साल 2003 के बाद शामिल हुए वोटर्स, जिनके माता-पिता के नाम साल 2003 में हुए एसआईआर के बाद मतदाता सूची में शामिल थे, उनको भी किसी तरह के दस्तावेज़ जमा करने की जरूरत नहीं है.
साथ ही यह भी तय किया गया है कि अधिकतम 1200 वोटर्स पर एक बूथ होगा.
एसआईआर करने के लिए 98 हजार 498 बूथ लेवल ऑफिसर की नियुक्ति की गई है. इन बीएलओ की मदद के लिए राज्य में ढाई लाख वॉलेंटियर काम करेंगें. ये विकास मित्र, आंगनबाड़ी, जीविका दीदी, एनएसएस, एनसीसी कैडेट आदि होंगे.
एक बीएलओ पर सिर्फ़ एक ही बूथ की जिम्मेदारी होती है. यानी इस मामले में उन्हें अधिकतम 1200 वोटर तक ही एक माह के भीतर पहुंचना होगा.
21 फ़ीसदी मतदाता राज्य से बाहर

चुनाव आयोग ने साल 2022 में नॉलेज, एप्टीट्यूड एंड प्रैक्टिस सर्वे कराया था. इसके मुताबिक राज्य के 21 फ़ीसदी वोटर बाहर हैं.
असल चुनौती दरअसल इन्हीं वोटर्स का परीक्षण करना है. बीबीसी ने चुनाव आयोग के अधिकारियों के सामने कुछ स्थितियां रखीं.
पहला तो यह कि अगर कोई अशिक्षित व्यक्ति कमाने (आमतौर पर पुरूष) के लिए बाहर गया हो और वो वोटिंग के वक्त ही घर आएगा, ऐसी स्थिति में क्या होगा?
इसके जवाब में अधिकारियों ने कहा कि इस मामले में बीएलओ फ़िजिकल वेरिफिकेशन स्वयं करेंगे और वो चाहें तो मौजूद घरवालों का हस्ताक्षर या अंगूठे का निशान लेंगे. यानी इस केस में बीएलओ सक्षम अधिकारी हैं.
लेकिन अगर पूरा का पूरा परिवार पलायन कर गया हो, जैसे मखाना फोड़ी या ईंट भट्ठों में काम करने वाले लोग.
इसके जवाब में अधिकारियों ने कहा कि इस स्थिति में बीएलओ परिवार की एक्सटेंडेड फैमिली (वृहत परिवार) से संपर्क करेगा और वोटर्स का मिलान करेगा.
हालांकि जमीनी स्तर पर ये जवाब कमज़ोर नज़र आता है. दरभंगा से बड़े पैमाने पर मखाना फोड़ी देश भर में परिवार के साथ पलायन करते हैं.
'मखाना फोड़ी' का मतलब है मखाना को भूनने और छिलके से अलग करने की प्रक्रिया, जिसे आमतौर पर 'पॉपिंग' कहा जाता है. यह काम करने वाले व्यक्ति को 'मखाना फोड़ी' या 'मखाना फोड़ने वाला' कहा जाता है।
दरभंगा के स्थानीय पत्रकार शशि मोहन कहते हैं, "जब लोग मखाना फोड़ने के लिए जाते हैं तो पूरा का पूरा टोला खाली हो जाता है."
"लोग अपने साथ ट्यूशन टीचर तक को लेकर जाते हैं ताकि बच्चों की कुछ पढ़ाई भी होती रहे. ऐसे में बीएलओ को कौन मिलेगा?"
दूसरी स्थिति उन दूसरे राज्यों की महिलाओं की है जिनकी शादी बिहार में हुई है. इस स्थिति में उनके पास चुनाव आयोग की तरफ से बताए गए जरूरी दस्तावेजों में से एक दस्तावेज होना चाहिए.
कोई भी डॉक्यूमेंट नहीं होने पर ईआरओ जांच करेगा

टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल सांइसेज़ के पूर्व प्राध्यापक पुष्पेन्द्र कहते हैं, "जो बच्चे अनाथ हैं, ट्रैफिकिंग की शिकार लड़कियां, एकल लोग, जिनके पास ज़मीन नहीं है, वो क्या करेंगे."
"ये तो जो हमें व्यापक मताधिकार मिला था, उसका उल्लंघन है. पहले आयोग कहता था कि ज्यादा से ज्यादा लोग वोट दें, अब आयोग, मतदाता को खुद को पॉलिटिकल नागरिक साबित करने को कह रहा है."
उनका कहना है, "ये बहुत सारी शंकाएं मन में लाता है. जिसमें से एक यह भी है कि आप महागठबंधन के दलित, अल्पसंख्यक वोटर्स को बाहर करके एनडीए को जीत दिलाना चाहते हैं."
कोसी के इलाके में काम कर रहे सामाजिक कार्यकर्ता महेंद्र यादव कहते हैं, "रोपनी का मौसम है. घर का पुरुष पंजाब जाएगा. पीछे उसके बूढ़े लोग और पत्नी रह जाती है. वो कैसे डॉक्यूमेंट इकट्ठा करेंगे?"
चुनाव आयोग की ओर से जारी समय सारणी के मुताबिक एसआईआर के बाद एक अगस्त को मतदाता सूची का प्रकाशन किया जाएगा. इस पर दावा और आपत्ति एक अगस्त से एक सितंबर के बीच हो सकती है.
अंतिम मतदाता सूची का प्रकाशन 30 सितंबर को होगा.
लेकिन जिनके पास कोई दस्तावेज़ नहीं होंगे, उनका क्या होगा? चुनाव आयोग के मुताबिक इलेक्टोरल रीज़नल ऑफिसर (ईआरओ) फ़िजिकल वेरीफिकेशन करेगा और उचित निर्णय लेगा.
लेकिन इस बीच सबसे बड़ा सवाल यही है कि जिस राज्य में वोटिंग प्रतिशत बमुश्किल 60 फ़ीसदी का आंकड़ा छूता हो, वहां कितने लोग दावा और आपत्ति करेंगे या ऐसा कर पाने की स्थिति में होंगे?
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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