ईरान-अमरीका तनाव और भारत की दुविधा


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Image captionअमरीका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमला
ये साल 2001 की बात है, 11 सितंबर को हुए चरमपंथी हमले के बाद अमरीका ने एक नई रणनीति बनाई. कैंप डेविड में हुई मीटिंग में राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने कहा था कि इस हमले से अधिक ख़तरनाक और क्या हो सकता है.
जॉर्ज बुश की इस बात पर मीटिंग में मौजूद अन्य आला अधिकारियों ने कहा कि हमले में यदि परमाणु हथियारों का इस्तेमाल होता, तो ये हमला और भी ख़तरनाक साबित होता.
इस संभावित ख़तरे से निपटने के लिए तत्कालीन बुश प्रशासन ने एक व्यापक रणनीति बनाई जिसमें 'एक्सिस ऑफ़ इविल' (शैतानियत की धुरी) का ज़िक्र किया गया. इसमें ईरान, इराक़ और नॉर्थ कोरिया को अमरीका के लिए सबसे बड़ा ख़तरा माना गया.
अमरीका को डर था कि ये तीनों देश परमाणु हथियार हासिल करने के बाद उन्हें अल-क़ायदा को मुहैया करा सकते हैं और तब अमरीका पर बहुत भयानक हमले हो सकते हैं.
अमरीका की डेलवेयर यूनिवर्सिटी में अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार प्रोफ़ेसर मुक़्तदर ख़ान कहते हैं, "इस संभावित ख़तरे से निपटने के लिए अमरीका ने तय किया कि वो इराक़-ईरान-सीरिया में सत्ता परिवर्तन करेगा और नॉर्थ कोरिया पर दबाव डालेगा क्योंकि उसके बाद परमाणु हथियार पहले से मौजूद थे. इसलिए उसके ख़िलाफ़ सैन्य कार्रवाई की जगह प्रतिबंध लगाने का फ़ैसला किया गया. ये उन रिपब्लिकंस की और नियो-कंजरवेटिव्स की रणनीति थी जो इसराइल समर्थक भी हैं."
वर्ष 1979 की इस्लामी क्रांति के बाद अरबों का फ़लस्तीनियों के मसले पर जो समर्थन था, वो ख़त्म होता जा रहा है. कोई अरब मुल्क फ़लस्तीनियों के लिए जंग लड़ने को तैयार नहीं है. लेकिन अभी भी ईरान हमास की मदद करता है, हिज़बुल्लाह ईरान का एक रणनीतिक हिस्सा है और ये दोनों ही इसराइल के लिए ख़तरा रहे हैं.
प्रोफ़ेसर मुक़्तदर ख़ान कहते हैं, "इराक़ युद्ध के बाद अमरीका समूचे मध्य-पूर्व को अपने रंग में रंगना चाहता था, लेकिन ईरान ने अमरीका के इरादों पर पानी फेर दिया था. अगर आप सऊदी अरब को केंद्र में रखकर देखें तो उसके चारों ओर लेबनान, सीरिया, इराक़, ईरान और बहरीन हैं जो सऊदी अरब के ख़िलाफ़ एक तरह से शिया दीवार बनाते हैं. इराक़ युद्ध के बाद ईरान ने ये जो शिया घेराबंदी की है, इससे अमरीका के इसराइली हित प्रभावित होते हैं."
"यमन की जंग ने सऊदी अरब को बहुत परेशान किया है. सऊदी अरब को लगता है कि ईरान उसे भी अस्थिर करना चाहता है. इन सब वजहों से ईरान के ख़िलाफ़ भी एक क़िस्म का मोर्चा बन गया जिसमें सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, इसराइल और अमरीका शामिल हैं. उन्हें लगता है कि अब समय आ गया है जब ईरान पर आर्थिक प्रतिबंध लगाने से और उसे धमकाने से ईरान के जो लोग अपनी सरकार से नाख़ुश हैं, वो तख़्ता पलट देंगे और नया शासन शुरू होगा. ट्रंप प्रशासन इस तरह सोच रहा है और चाहता है कि ईरान की मौजूदा सरकार और सरकार का स्वरूप राजतंत्र या उदार लोकतंत्र किसी से भी बदल डाले."
मौजूदा तनाव की शुरुआत
तेल टैंकरों पर हमले के बाद कीमतों में इज़ाफ़ा हुआइमेज कॉपीरइटAFP/HO/IRIB
Image captionतेल टैंकरों पर हमले के बाद कीमतों में इज़ाफ़ा हुआ
अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार प्रोफ़ेसर हर्ष पंत का मानना है कि ईरान और अमरीका के बीच मौजूदा तनाव की शुरुआत तबसे हुई जब राष्ट्रपति ट्रंप ने ईरान के साथ परमाणु समझौता एकतरफ़ा तोड़ने का विचार बनाया था. उसके बाद दोनों के बीच तनातनी बढ़ती गई है.
प्रोफ़ेसर हर्ष पंत कहते हैं, "बीते पखवाड़े कुछ ऐसी घटनाएं हुई जिनकी वजह से तनाव और तनातनी पहले के मुक़ाबले काफ़ी बढ़ गई. तेल टैंकरों पर हमले हुए. कहा गया कि इसमें ईरान का हाथ था, आरोप है कि ईरान तेल की आवाजाही प्रभावित करके वैश्विक अर्थव्यवस्था पर असर डालना चाहता है. दूसरी घटना में, ईरान पर आरोप लगा कि उसने अमरीका का जासूसी ड्रोन विमान मार गिराया. इसकी वजह से राष्ट्रपति ट्रंप पर कुछ करने का दबाव बढ़ रहा था. पहले सैन्य कार्रवाई का मन बनाया लेकिन बाद में इरादा बदल दिया ये कहते हुए कि इसमें 150 लोग मारे जाते. लेकिन इसके बाद उन्होंने ईरान पर प्रतिबंधों का शिकंजा और कसने का फ़ैसला किया."
अंतरराष्ट्रीय समुदाय- कौन किसकी तरफ़
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Image captionअमरीकी राष्ट्रपति ट्रंप और ईरान के राष्ट्रपति रूहानी
यूरोप ने ज्वाइंट कम्प्रेहेंशन प्लान ऑफ़ एक्शन (जेसीपीओए) को बचाने की बहुत कोशिश की. पी-5 प्लस 1 के नाम से मशहूर इस समझौते में ईरान के अलावा चीन, फ्रांस, जर्मनी, रूस ब्रिटेन और अमरीका शामिल था. साल 2015 में इस पर सहमति बनी थी. इस परमाणु समझौते का संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने भी अनुमोदन किया था.
इसका मक़सद ईरान को परमाणु अप्रसार के दायरे में लाना था. लेकिन ईरान ने कहा कि अब वो यूरेनियम संवर्धन का स्तर बढ़ा रहा है. ईरान का कहना है कि अमरीका ने अपनी तरफ़ से समझौता तोड़ दिया और यूरोप ने इसकी भरपाई के लिए कुछ नहीं किया.
जानकार मानते हैं कि यूरोप ईरान से संबंध रखना चाहता है लेकिन उनका ईरान के साथ कारोबार इतना नहीं है कि वो अमरीका से संबंध ख़राब करें. यूरोप में कोई भी कंपनी ऐसी नहीं है जो अमरीका से ट्रेड बंद करके सिर्फ़ और सिर्फ़ ईरान से ट्रेड कर सके. अमरीका हर उस कंपनी पर प्रतिबंध लगा रहा है जो ईरान से साथ कारोबार कर रही है. ईरान आर्थिक रूप से अलग-थलग पड़ चुका है.
सामरिक पक्ष की बात करें तो रूस, ईरान को हथियार और सैन्य मदद देना चाहेगा. अमरीका अगर ईरान के ख़िलाफ़ सैन्य कार्रवाई करता है तो वो अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों के अनुरूप नहीं होगा, क्योंकि चीन या रूस ईरान के ख़िलाफ़ किसी सैन्य कार्रवाई के प्रस्ताव को पास नहीं होने देंगे.
बात तेल की करें तो अमरीका को ईरान के तेल के ज़रूरत नहीं है लेकिन दुनिया के कई मुल्क ईरान के तेल के बिना नहीं चल सकते. उन्हें चिंता है, लेकिन फिर भी वो ईरान के साथ खड़े नज़र आने से बचते रहे हैं.
भारत की दुविधा
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भारत अपनी मध्य-पूर्व या पश्चिम एशिया नीति में अभी तक ये कहता रहा है कि भारत स्वतंत्र द्विपक्षीय संबंध बनाने में सक्षम है और इसके लिए किसी पर निर्भर नहीं है. इस इलाक़े के लिए भारत की विदेश नीति के तीन स्तंभ हैं- पहला खाड़ी के अरब देश, दूसरा ईरान और तीसरा इसराइल है और तीनों के साथ भारत के अच्छे संबंध हैं.
प्रोफ़ेसर हर्ष पंत कहते हैं, "भारत के सामने दुविधा ये आएगी कि जैसे-जैसे ईरान पर प्रतिबंधों का शिंकजा कसेगा, जिस तरह से ईरान को अलग-थलग किया गया है, उसमें भारत को तय करना पड़ेगा कि वो ईरान के साथ कितनी दूर तक चलना चाहता है. अरब देशों, इसराइल और अमरीका में भी भारत का बहुत कुछ दांव पर लगा है."
भारत की ऊर्जा ज़रूरतों और ईरान पर निर्भरता का ज़िक्र करते हुए प्रोफ़ेसर हर्ष पंत कहते हैं, "भारत को ये देखना पड़ेगा कि उसकी एनर्जी पॉलिसी पर क्या असर पड़ रहा है. इतने प्रतिबंध लगने के बाद भारत, ईरान के साथ बहुत कुछ कर नहीं सकता. भारत सरकार ये ज़रूर कह सकती है कि हम इन प्रतिबंधों को नहीं मानते हैं. लेकिन तेल की पूरी अर्थव्यवस्था परिवहन, बीमा और लॉजिस्टिक्स पूरी तरह से अमरीका पर निर्भर है. इसलिए भारत सरकार भले ही प्रतिबंधों को ना माने, लेकिन कंपनियों को प्रतिबंधों के हिसाब से ही चलना होगा."
"भारत के लिए अगली दुविधा ये है कि वो ईरान के साथ अपने संबंधों को कैसे संतुलित करे. ईरान के साथ सिर्फ़ तेल का संबंध नहीं है. भारत ने चबहार बंदरगाह में बड़ा निवेश किया है. चबहार से भारत मध्य एशिया में मज़बूत होना चाहता है. लेकिन प्रतिबंधों की वजह से भारत-ईरान संबंध उस तरह से आगे नहीं बढ़ पाएंगे जिस तरह से भारत चाहता है. इसमें कई पहलू हैं और इन सारे पहलुओं में भारत की दुविधा बढ़ेगी. अपनी ऊर्जा ज़रूरतों को पूरा करने के लिए भारत को विकल्पों की तलाश होगी और क्या उनकी पूर्ति अमरीका कर पाएगा, ये देखनी वाली बात होगी."
क्या आने वाले दिनों में तनाव कम होगा
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Image captionअमरीकी युद्धपोत
इसराइल के अख़बार हर्ट्ज़ ने अपने एक हालिया लेख में अनुमान लगाया है कि अमरीका ने ईरान के ख़िलाफ़ सैन्य कार्रवाई से हाथ पीछे क्यों खींचा.
प्रोफ़ेसर मुक़्तदर ख़ान कहते हैं, "राष्ट्रपति ट्रंप मध्य पूर्व में किसी तरह की जंग में उलझने के ख़िलाफ़ हैं. उनका मानना है कि मध्य-पूर्व में अमरीका जब भी जंग में उलझा, उसे हर तरह से नुक़सान हुआ है. इराक़ युद्ध से ये बात साबित होती है. दूसरी बात ये है कि राष्ट्रपति ट्रंप के प्रशासन में ही कुछ लोग ऐसे हैं जो जंग चाहते हैं. फ़िलहाल जंग का बटन पॉज़ हो गया है लेकिन जंग चाहने वाले यदि हावी हुए तो तस्वीर बदल भी सकती है. लेकिन सैन्य विश्लेषण ये कहता है कि ईरान ये होने नहीं देगा. जंग यदि हुई तो इसका ज्यादा बुरा असर अमरीका पर पड़ेगा."
"सऊदी अरब चाहता है कि अमरीका ईरान के पर कतर दे. इसराइल भी चाहता है कि अमरीका 'ईरान की हेकड़ी' निकाल दे. लेकिन अमरीका में ईरान से जंग के लिए कोई हवा नहीं है, लेकिन हवा बनाने की कोशिश की जा रही है. लेकिन जैसे जैसे अमरीका में चुनाव का समय नज़दीक आता जाएगा, जंग की बात कम होती जाएगी."
दूसरी ओर ईरान मानता है कि वो एक 'इस्लामिक पॉवर' है और चाहता है कि इलाक़े में अमरीका का असर पूरी तरह से ख़त्म हो जाए.
जानकार मानते हैं कि ईरान अमरीकी प्रतिबंधों को लंबे समय तक नहीं झेल सकता. इसलिए चाहता है कि कोई ऐसी घटना हो जिससे हालात बदल जाए. वो समझता है कि कुछ ऐसा हो जिससे दूसरों की अर्थव्यवस्था पर भी असर पड़ें और फिर वो अमरीका पर पीछे हटने के लिए दबाव बनाएं.
'लेट्स मेक ईरान ग्रेट अगेन' का मतलब
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अमरीकी राष्ट्रपति ट्रंप ने कहा है कि ईरान को दोबारा धनी-सम्पन्न बनाया जाए. वर्षों पहले नॉर्थ कोरिया के मामले में भी अमरीका ने यही कहा था कि आप परमाणु हथियार छोड़िए, हम आपके लिए अरबों डॉलर ख़र्च करेंगे.
जानकारों का मानना है कि पूर्वी यूरोप में जो भी आर्थिक तरक़्क़ी हुई है, वो अमरीका के ज़रिए हुई है. इसी तरह अगर अमरीका ने बीते 30 साल में चीन के साथ बड़े पैमाने पर व्यापार नहीं किया होता तो चीन में आर्थिक विकास उतना नहीं हो पाता. ताइवान और साउथ कोरिया की तरक़्क़ी में भी अमरीका का योगदान कहा जाता है.
अब अमरीका यही कह रहा है कि ईरान अगर अपनी विदेश नीति को बदल दे, अमरीका और इसराइल के प्रभुत्व को स्वीकार कर ले, तो प्रतिबंध हट जाएंगे. ईरान के पास अपनी वायुसेना होगी, नए-नए हवाई जहाज़ होंगे, विदेशी निवेश आ जाएगा.
लेकिन ईरान का कहना है कि बातचीत की डिप्लोमेसी ख़त्म हो गई है. ईरान कई वर्षों से अलग-थलग रहा है और प्रतिबंधों को झेलता रहा है. जानकार मानते हैं कि इसके बावजूद ईरान की सत्ता उतनी कमज़ोर नहीं हुई जितना उसे कमज़ोर करने की कोशिश हुई.

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