असम में एनआरसीः 'परिवार भारतीय है तो मैं अकेले विदेशी कैसे हो सकती हूँ?'



असम एनआरसी

अब्दुल मजीद और उनके बेटे मुबारक़ हुसैन के परिवार के लिए एनआरसी की फ़ाइनल लिस्ट दुखों और निराशा का पहाड़ लेकर आई है.
असम के बक्सा ज़िले के काटाझार गांव में रहने वाले इस परिवार के कुल 7 सदस्यों के नामों को एनआरसी में रिजेक्ट कर दिया गया है.
परिवार की नागरिकता से जुड़े काग़ज़ों का एक थैला हाथ में लिए मजीद मायूसी से बताते हैं, "एनआरसी में अपना वजूद साबित करने के लिए हम सभी भाई-बहनों ने अपने पिता के ज़मीन के काग़ज़ात का इस्तेमाल किया था."


अब्दुल मजीद
Image captionअब्दुल मजीद

"मेरे बाक़ी भाई-बहनों और उनके पूरे परिवारों का नाम लिस्ट में शामिल है. लेकिन ज़मीन के उन्हीं काग़ज़ात को मेरी ऐप्लिकेशन में रद्द करते हुए मुझे, मेरी पत्नी और मेरे पाँच बच्चों के नाम एनआरसी से बाहर कर दिए गए हैं."
उनके बड़े बेटे मुबारक़ हुसैन अपना वोटर आईडी, पैन कार्ड और स्कूल पास करने के सर्टिफ़िकेट दिखाते हुए कहते हैं कि आगे फ़ॉरेन ट्राइब्यूनल की क़ानूनी उलझनों में फँसने के बजाय वो अपनी ज़िंदगी से ही मुँह मोड़ लेंगे.


असम एनआरसी
Image captionमुबारक हुसैन

एनआरसी में आवेदन करने के लिए परिवार द्वारा की गई हफ़्तों लंबी तैयारी के बारे में बताते हुए मुबारक़ बताते हैं, "जुलाई 2018 के ड्राफ़्ट में हमारे परिवार के सभी लोगों का नाम आया था और अब 2019 में 7 लोगों को लिस्ट में रिजेक्ट कर दिया गया है. डॉक्युमेंट्स में हमने 1951 का एनआरसी दिया था."

विदेशी नागरिक साबित नहीं हो जाता...

मुबारक़ अपनी सफ़ाई में कहते हैं, "इसके अलावा साथ में हमारे दादा के ज़मीन के काग़ज़ात, हमारे स्कूल सर्टिफ़िकेट, पिताजी का वोटर लिस्ट में नाम...सब कुछ तो जमा किया था. जितने डॉक्युमेंट हमने एनआरसी में जमा किया था, वो सब पक्के काग़ज़ थे. फिर भी हमारा नाम क्यों नहीं आया, ये मुझे नहीं मालूम."
ट्राइब्यूनल की लंबी क़ानूनी प्रक्रिया को न सह पाने की आशंका जताते हुए वह कहते हैं, "अब फ़ॉरेन ट्राइब्यूनल में केस लड़ना है. हमारे सामने बहुत बड़ी लड़ाई है. पहले ही बहुत पैसा ख़र्च हो चुका है एनआरसी के लिए काग़ज़ तैयार करवाने में और हियरिंग के लिए आने जाने में."
"शारीरिक मानसिक कष्ट जो है, वो अलग. हम खेती बाड़ी और मज़दूरी करके अपना काम चलाते हैं, उतना रुपया नहीं है हमारे. कहाँ से लड़ेंगे फ़ॉरेन ट्राइब्यूनल में अपना केस? कहाँ से लाएंगे वक़ील की फ़ीस? गांव से कैसे बार-बार सुनवाई के लिए जाएंगे? अब हम लोगों को मरना ही पड़ेगा, इसके सिवा हमारे सामने कोई चारा नहीं है."
काग़ज़ों पर सरकार का दावा है कि एनआरसी लिस्ट में नाम नहीं आने भर से ही कोई विदेशी नागरिक साबित नहीं हो जाता.
सिर्फ़ फ़ॉरेन ट्राइब्यूनल लोगों की नागरिकता का फ़ैसला करेगी.

फ़ॉरेन ट्राइब्यूनल

लेकिन बड़ा ज़मीनी सवाल ये है कि पैसों की कमी, अशिक्षा और लंबे क़ानूनी दावपेंचों से जूझते हुए आख़िर कितने लोग फ़ॉरेन ट्राइब्यूनल के दरवाजे तक पहुँच पाएंगे?
और जो लोग किसी तरह तमाम मुश्किलों का सामना करके फ़ॉरेन ट्राइब्यूनल तक पहुंचे भी हैं, उनके क्या अनुभव हैं?


आशिया खातून

ये जानने के लिए हमने बक्सा ज़िले के ही बंगशीबाड़ी गांव में रहने वाली आशिया खातून से मुलाक़ात की.
आशिया अपनी नागरिकता साबित करने के लिए बीते 4 सालों से बरपेटा के बिजाली फ़ॉरेन ट्राइब्यूनल के चक्कर लगा रही हैं.
अपने घर के सामने बैठ कर गेहूँ साफ़ कर रही आशिया उदासी की ज़िंदा तस्वीर लगती हैं.
फ़ॉरेन ट्राइब्यूनल में चल रहे अपने केस के बारे में पूछने पर वह तुरंत अपनी एक कमरे के झोपड़ी-नुमा घर के भीतर चली जाती हैं.
थोड़ी देर बाद आशिया हाथों में एक फ़िरोज़ी रंग की एक मोटी सी कोर्ट फ़ाइल लिए बाहर आती हैं.

आशिया की कहानी

नए पुराने दस्तावेज़ों से भारी इस फ़ाइल में आशिया के केस का ही नहीं, बल्कि भारत में उनकी ज़िंदगी का लेखा-जोखा भी बंद है.
फ़ाइल हाथों में पकड़े हुए वो कहती हैं, "2016 में मुझे थाने से सूचना मिली कि मेरे नाम पर कोई नोटिस आया है. जब मैं थाने पहुंची तो बताया गया कि मुझे डी वोटर घोषित कर दिया गया है."
"मेरा मायका-ससुराल मिलाकर मेरे पूरे परिवार में कभी किसी का नाम डी वोटर में नहीं आया था. इसलिए हम थोड़ा डर गए और सीधा पाठशाला (बरपेटा ज़िला) पहुँचकर एक वक़ील किया."
"दो साल तक वक़ील मुझसे झूठ बोलता रहा. हर बार पैसे लेता और कोई नया काग़ज़ लाने को कह देता. हम पढ़े लिखे नहीं हैं तो ठीक से समझ भी नहीं पाते थे कि हमारे साथ क्या हो रहा है."
"फिर 2018 में मैंने वक़ील बदला और ख़ुद ही जज के सामने जाकर विनती की तब मेरी सुनवाई शुरू हुई. तब से मैं अपने भारतीय होने की गवाही देने के लिए अपने चाचा, बाबा, गांवगोरा (गांव का सरपंच), मेरे काग़ज़ जारी करने वाले स्टेट डेटा सेंटर के अधिकारी से लेकर पास-पड़ोसियों तक कई लोगों को ट्राइब्यूनल के सामने पेश कर चुकी हूँ."
"अब पैसे भी सारे ख़त्म हो गए हैं इसलिए तीन महीने से सुनवाई में नहीं जा पा रही हूँ. मुझे नहीं मालूम इस बीच मेरे केस में क्या हुआ होगा?"

सुप्रीम कोर्ट जाना होगा...

आशिया का नाम 31 अगस्त को जारी हुई एनआरसी लिस्ट में भी नहीं आया है.
फ़ॉरेन ट्राइब्यूनल में नागरिकता का मुक़दमा लड़ने की प्रक्रिया को मुश्किल बताते हुए वो कहती हैं, "पिछले चार साल में इस केस में मेरी मेहनत और सारी जमा-पूँजी का पैसा लग चुका है."
"अब मेरे पास कुछ नहीं बचा. पाठशाल कोर्ट के वक़ील तक ने ही अब तक मुझसे अस्सी-नब्बे हज़ार रुपये ले लिए हैं. इतना सब करने के बाद भी नतीजा कुछ नहीं निकला."
"अगर आगे भी फ़ॉरेन ट्राइब्यूनल से मेरा निर्णय ठीक नहीं आया तो मुझे गुवाहाटी हाई कोर्ट और फिर सुप्रीम कोर्ट जाना होगा. कैसे जाऊँगी, क्या करूँगी- नहीं मालूम."
"बस इतना मालूम है कि मेरे बाप-दादा भारतीय थे. मेरा सब पर्सनल काग़ज़ भी ठीक हैं. फिर अगर मेरे सारे परिजन भारतीय हैं तो मैं अकेले विदेशी कैसे हो सकती हूँ?"

'रिजेक्टेड' की श्रेणी में

आशिया के बाद हमारी मुलाक़ात हुई एक ऐसे वक़ील से जिन्होंने 2014 में ही फ़ोरेन ट्राइब्यूनल में अपना मुक़दमा जीत कर ख़ुद को भारतीय नागरिक साबित कर दिया था.
लेकिन 31 अगस्त को आई एनआरसी लिस्ट में, उनको और उनके पूरे परिवार को 'रिजेक्टेड' की श्रेणी में डाल दिया गया है.
सुरक्षा कारणों की वजह से वह अपनी पहचान उजागर नहीं होने देना चाहते.
नाम न प्रकाशित करने की शर्त पर वो बताते हैं, "1997 में बिना पूरे काग़ज़ होने के बावजूद, बिना किसी जाँच पड़ताल के मुझे अचानक डी वोटर घोषित कर दिया गया था. फिर फ़ॉरेन ट्राइब्यूनल में एक लंबी क़ानूनी लड़ाई के बाद 2014 में मुझे वापस भारतीय नागरिक घोषित किया गया."
"अब सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अनुसार एक बार फ़ॉरेन ट्राइब्यूनल द्वारा उनके निर्णय में भारतीय नागरिक घोषित किए जाने के बाद एनआरसी लिस्ट में अपने आप ही मुझे भारतीय नागरिक स्वीकार कर लिया जाना चाहिए था. लेकिन पक्के काग़ज़ होने के बाद भी इस बार एनआरसी लिस्ट में रिजेक्ट कर दिया गया."
अपनी नागरिकता को लेकर चल रहे इन लंबे क़ानूनी मुक़दमों के बारे में बताते हुए वो बताते हैं, "ट्राइब्यूनल में केस जीतने के बाद भी एनआरसी से बेदख़ल किए जाने का मुझे गहरा सदम लगा है. हमारे परिवार की प्रतिष्ठा भी समाज में ख़राब हुई है." "इस वजह से मुझे शारीरिक और मानसिक कष्ट महसूत होता है. लेकिन इस तकलीफ़ में मैं अकेला नहीं हूँ. ऐसे भी कई लोग हैं जो अपने दस काग़ज़ात में से किसी एक काग़ज़ में एक छोटी सी मात्रा की ग़लती की वजह से नागरिकता का केस हार जाते हैं."
"अगर एक वक़ील होने के बाद मेरे साथ ऐसा हो सकता है तो सोचिए कि गांव के आम लोग जो क़ानूनी तौर-तरीक़ों से दूर हैं, उनके लिए फ़ॉरेन ट्राइब्यूनल में अपील कर केस जीतना कितना मुश्किल होगा."

नागरिकता का मुक़दमा

एनआरसी से बेदख़ल लोगों की अपीले फ़ॉरेन ट्राइब्यूनल में दर्ज करवा रहे दाख़िल करने में लोगों की मदद कर रहे वक़ील मुस्तफ़ा खद्दम हुसैन फ़ॉरेन ट्राइब्यूनल में नागरिकता का मुक़दमा लड़ने की चुनौतियाँ गिनवाते हुए कहते हैं, "100 ट्राइब्यूनल हैं जो अभी असम में काम कर रही हैं. जल्दी ही सरकार 200 नए फ़ॉरेन ट्राइब्यूनल और बनने वाली हैं. इस तरह यहां कुल 300 ट्राइब्यूनल होंगे, 120 दिन और 19 लाख लोग. इसमें 19 लाख स्पीकिंग अपील होंगी. यानी की अगर परिवार में 8 लोगों का नाम एनआरसी से हटाया गया है तो सबके लिए अलग से अपील करनी होगी."


मुस्तफ़ा खद्दाम हुसैन
Image captionमुस्तफ़ा खद्दाम हुसैन

"इसलिए ट्राइब्यूनल में जो मेम्बर इन 19 लाख ऐप्लिकेशन का निवारण करेंगे उनके लिए भी यह कम चुनौतीपूर्ण है और और नागरिकता के लिए अप्लाई करने वाले की अपनी चुनौतियाँ तो हैं ही. एनआरसी की प्रक्रिया में एक चरणबद्ध स्ट्रैंडड ऑपरेटिंग प्रोसिजर (एसओपी) बनाया गया है जबकि फ़ॉरेन ट्राइब्यूनल में ये प्रक्रिया मौजूद नहीं है."
"अगर हम चाहते हैं कि फ़ॉरेन ट्राइब्यूनल में आगे की प्रक्रिया व्यवधान रहित चले तो इस प्रक्रिया के लिए भी समय सीमा तय करके एक एसओपी बनाया जाना चाहिए."
ग़ौरतलब है कि नागरिकता का दावा पेश करने वाले हर व्यक्ति को फ़ॉरेन ट्राइब्यूनल में जमा किया जाने वाला हर काग़ज़ डिस्ट्रिक्ट डेप्युटी कमिश्नर के दफ़्तर से सत्यापित करवा कर ट्राइब्यूनल में जमा करना होगा.
सत्यापन के इस काम को बड़ी चुनौती बताते हुए मुस्तफ़ा बताते हैं, "हम पहले भी देख चुके हैं कि ज़िलों के कमिश्नर दफ़्तर में सत्यापन के हज़ारों आवेदन पेंडिंग पड़े रहते हैं. सत्यापन की ये प्रक्रिया वैसे ही आम लोगों के लिए इतनी मुश्किल है. ऐसे में अगर इसके लिए समय सीमा निर्धारित नहीं की गई तो ट्राइब्यूनल से न्याय लेने की पूरी प्रक्रिया उलझ सकती है."

एक लंबी क़ानूनी लड़ाई

वहीं सरकार का कहना है कि फ़ॉरेन ट्राइब्यूनल नागरिकता तय करने वाली न्यायिक प्रक्रिया का एक अहम हिस्सा है.
विदेश मंत्रालय के अनुसार, ऐप्लिकेशन प्रॉसेस के दौरान ज़रूरतमंद लोगों को डिस्ट्रिक्ट लीगल सेर्विसेस औथोरिटी या डीएलएसए के तहत सरकारी लीगल ऐड भी दी जाएगी.
विदेश मंत्रालय के आधिकारिक प्रवक्ता रवीश कुमार ने एनआरसी लिस्ट के प्रकाशन के बाद जारी एक बयान में कहा कि फ़ॉरेन ट्राइब्यूनल के निर्णय से असंतुष्ट होने पर लोग हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में न्याय की गुहार लगा सकते हैं.
सरकार की तरफ़ से ये कहा गया है, "किसी भी सूरत में उनपर तब तक कोई कार्यवाई नहीं की जाएगी, जब तक कि वो अपने पास उपलब्ध सभी क़ानूनी रास्तों का पूरा इस्तेमाल न कर लें."
एनआरसी लिस्ट से बाहर कर दिए जाने के बाद यूं तो अब 19 लाख लोगों की निगाहें फ़ॉरेन ट्राइब्यूनल पर टिकी हुई हैं.
लेकिन एक लंबी क़ानूनी लड़ाई के शुरुआती बिंदु पर खड़े इन लोगों के लिए भारतीय नागरिकता फ़िलहाल किसी सपने जितना ही दूर है.
संदर्भ---https://www.bbc.com/hindi/india-49599207#share-tools

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