'उन्हें हिंदू नहीं कह सकता...'उन्हें किसी धर्म से जोड़ना मैं ठीक नहीं समझता. मैं नहीं कह सकता कि हिंदुओं ने मेरे साथ ऐसा किया. ऐसा करने वाला न हिंदू हो सकता है और मुसलमान. हर धर्म प्यार-मोहब्बत और अमन का संदेश देते हैं..."

दिल्ली हिंसा: इस फ़ोटो वाले मोहम्मद ज़ुबैर की आपबीती




37 वर्षीय मोहम्मद ज़ुबैर की एक तस्वीर दिल्ली दंगों की त्रासदी का चेहरा बन गई है

झक सफ़ेद कुर्ते-पजामे पर बिखरे ख़ून के छींटे. ज़मीन पर सिर के बल गिरा एक निहत्था युवक, जो अपने दोनों हाथों से सिर बचाने की कोशिश कर रहा है. सिर से बहते ख़ून में दोनों हथेलियां रंग गई हैं. वो चारों ओर से दंगाइयों से घिरा हुआ है. दंगाई डंडे, लाठियों और लोहे की रॉड से पीट रहे हैं.
37 वर्षीय मोहम्मद ज़ुबैर की यह तस्वीर दिल्ली दंगों की त्रासदी का चेहरा बन गई है. वो चेहरा, जिसके ज़ख़्म अनंत काल तक रिसते रहेंगे. वो चेहरा, जिसके जख़्म शायद कभी नहीं सूखेंगे.
उत्तर-पूर्वी दिल्ली के रहने वाले ज़ुबैर सोमवार को जब पास की मस्जिद में सालाना इज़्तमा में शामिल होने के लिए घर से निकले थे तो उन्होंने सोचा भी नहीं था कि उनकी दुनिया कैसे बदलने वाली है.
वो बताते हैं, "पीर वाले दिन (सोमवार) मैं दुआ में शामिल होने ईदगाह गया. दुआ से फ़ारिग होने के बाद मैंने अपने भाई-बहनों और बच्चों के लिए खाने की कुछ चीज़ें खरीदीं. मैं हर साल इज़्तमा के बाद बच्चों के लिए हलवा परांठा, दहीबड़े और नान खटाई ख़रीदता हूं. उस दिन भी ख़रीदा. नान खटाई नहीं मिली तो बच्चों के लिए संतरे ख़रीदे. पहले मैंने सोचा कि बहन के यहां या किसी रिश्तेदार के यहां चला जाऊं. फिर सोचा, पहले घर जाता हूं. आस लगाए बैठे बच्चे ख़ुश होंगे."

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उस दिन ज़ुबैर जल्दबाजी में बिना अपना फ़ोन लिए ही घर से निकल गए थे.
वो याद करते हैं, "मैं ईदगाह से घर की तरफ़ चला. जैसे ही खजूरी ख़ास के आस-पास पहुंचा, मुझे पता चला कि वहां बहुत ज़ोर की लड़ाई हो रही है. हिंदू-मुस्लिम हो रहा है. ये सुनकर मैंने सोचा कि भजनपुरा से होते हुए सबवे से निकलकर चांदबाग़ पहुंच जाऊंगा. जब मैं भजनपुरा मार्केट पहुंचा तो मार्केट बंद था. वहां भीड़ जमा हो रही थी, शोर-शराबा मच रहा था. मैं भी वहां से निकला. मैंने कुर्ता-पजामा और टोपी पहन रखी थी. पूरा इस्लामी लिबास था. जब मैं वहां से निकलने लगा तो किसी ने मुझे कुछ नहीं कहा. फिर मैं सबवे से नीचे उतरने लगा. वहां मौजूद एक शख़्स मुझे देख रहे थे. उन्होंने कहा कि आप नीचे मत जाओ. वहां रिस्क हो सकता है. आप आगे से निकल जाओ."

'ऐसे टूटे जैसे मैं शिकार था...'

उस शख़्स की बात मानकर ज़ुबैर सबवे से न जाकर आगे की तरफ़ से जाने लगे. जब वो आगे बढ़े तो देखा कि वहां दो तरफ़ से भयानक पथराव हो रहा है.

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ज़ुबैर बताते हैं, "वहां एक तरफ़ हज़ारों की भीड़ थी. दूसरी तरफ़ कितने लोग थे, मैं देख नहीं पाया. लेकिन पथराव दोनों तरफ़ से हो रहा था. ये देखकर मैं डर गया और पीछे हटने लगा, तभी भीड़ में कुछ लोगों ने मुझे देख लिया. इसके बाद एक लड़का हमलावर लहजे में मेरी तरफ़ बढ़ा. मैंने उससे पूछा कि मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है. मेरी उससे थोड़ी बहस हुई और इसके बाद बहुत से लोग आकर मुझ पर टूट पड़े, जैसे मैं कोई शिकार था."
ज़ुबैर कहते हैं, ''सिर पर एक रॉड मारा. फिर दूसरी बार. फिर तीसरी और लगातार मार पड़ती रही.''
वो याद करते हैं, "मेरे सिर पर इतने रॉड मारे गए कि मैं घुटनों के बल बैठ गया. मेरा होश जाने लगा. आस-पास की आवाज़ें गुम होने लगीं. तभी किसी ने मेरे सिर पर तलवार मारी. अल्लाह का करम है कि वो तलवार मेरे सिर पर पूरी न पड़कर साइड में पड़ी. अगर वो सिर पर पूरी पड़ती तो बचने का हिसाब ही ख़त्म हो जाता."
हमलावर ज़ुबैर को लगातार पीटते रहे. इतनी मार पड़ी कि ज़ुबैर ने सोचा अब मरना तय है.

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'मैंने कहा, अल्लाह अब तेरे पास आना है...'

वो बताते हैं, "मैंने अल्ला ताला को याद करना शुरू कर दिया. मैंने मन ही मन कहा, अल्लाह अब तेरे पास आना है. कोई उम्मीद नहीं है. मुझे लगता है वो 20-25 आदमी थे. उनका हाथ जब तक चलता रहा, वो मुझे मारते रहे. एक के बाद एक, कभी रॉड, कभी डंडा...इतनी मार पड़ी कि मैं बता नहीं सकता."
ज़ुबैर का कहना है कि हमलावर उन्हें पीटते हुए 'जय श्रीराम' और 'मारो मुल्ला को' जैसे नारे लगा रहे थे. मार पड़ने के बाद ज़ुबैर को बस इतना याद है कि कुछ लोग उन्हें उठाकर ले गए.
उन्हें उठाने वाले लोग कह रहे थे, "पल्ली पार ले चलो, जल्दी ले चलो."
इसके बाद ज़ुबैर को थोड़ा बहुत होश एंबुलेंस में आया और फिर अस्पताल में. अस्पताल में उनके पास कोई अपना नहीं था. उन्होंने आस-पास के लोगों को अपने घरवालों का नंबर देकर उन्हें बुलवाने की गुज़ारिश की.
ज़ुबैर याद करते हैं, "उस समय शायद डॉक्टर मुझे ज़्यादा तवज्जो नहीं दे पा रहे थे. मेरे सिर में बहुत दर्द हो रहा था. बहुत ख़ून भी बह रहा था. मेरे सामने एक और शख़्स था, उनके दोनों हाथ कट गए थे. मैंने डॉक्टर को बोलते सुना कि दोनों हाथ काटने पड़ेंगे. ये सब सुनकर मैं चुप हो जाता था. मुझे लगा मुझसे भी ज़्यादा तकलीफ़ में कोई है यहां."

ज़ुबैर की मांइमेज कॉपीरइटBBC/DEBALIN ROY
Image captionज़ुबैर की मां

बूढ़ी मां बस रोती हैं...

ज़ुबैर को टांके कब लगे, ये याद नहीं है. उनके सिर में 25-30 टांके लगे हैं. उन्हें इस बात का दुख है कि अब तक सरकार की तरफ़ से कोई मदद मिली और न ही कोई पूछने आया.
ज़ुबैर अब तक एफ़आईआर भी नहीं करा पाए हैं क्योंकि न तो वो इस हालत में हैं और न उनके घर वाले. उन्हें अभी अस्पताल से एमएलसी भी नहीं मिली जो एफ़आईआर के लिए महत्वपूर्ण है.
ज़ुबैर के बच्चे और परिजन भी हमले के चार दिन बाद ही उनसे मिल पाए. उनकी तस्वीर देखकर घरवालों को लगा था कि वो बचेंगे नहीं.
ज़ुबैर की बूढ़ी मां ने भी उन्हें चार दिन बाद ही उन्हें देखा. उनका रो-रोकर बुरा हाल है. वो न तो मीडिया से बात करती हैं और न ज़्यादा बोलती हैं.
बस रोती हुई कहती हैं, "मुझे किसी से कुछ नहीं चाहिए. सरकार से भी कुछ नहीं चाहिए. अल्लाह का शुक्र है, मेरा बेटा बच गया. अब हमें अकेला छोड़ दीजिए."

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जब मैं पिट रहा था, पुलिस वहीं घूम रही थी'

क्या ज़ुबैर सरकार से कुछ कहना चाहेंगे? ये पूछे जाने पर उन्होंने कहा, "हम सरकार से क्या दरख़्वास्त करेंगे. जो सरकार दंगे नहीं रोक पाई, हम उससे क्या उम्मीद करें?"
पुलिस की भूमिका के बारे में पूछे जाने पर ज़ुबैर ने कहा, "जब मुझे पीटा जा रहा था तब पुलिसवाले वहीं आस-पास घूम रहे थे. इसके बावजूद दंगाई बिल्कुल बेख़ौफ़ थे. जैसे कोई मेला लगा हो, जैसे उन्हें कुछ भी करने की खुली छूट मिली हो. जब मुझे मारा जा रहा था तो मैंने देखा कि पुलिस के लोग वहीं टहल रहे थे. जैसे, वहां जो भी रहा था, उससे उन्हें कोई मतलब नहीं था."
मोहम्मद ज़ुबैर कहते हैं कि इससे पहले उनका किसी से झगड़ा तो दूर 'तूतू-मैंमैं' भी नहीं हुई थी. वो बताते हैं, "इससे पहले न किसी ने मुझे 'तू' बोला था और न मैंने किसी को 'बे' कहकर बुलाया था."
ज़ुबैर के शरीर का कोई हिस्सा ऐसा नहीं बचा है, जहां उन्हें चोटें न आईं हों. पूरा शरीर नीला पड़ा है. इतनी चोट के बावजूद वो स्थानीय डॉक्टर से ही मरहम पट्टी करवा रहे हैं.
वो बड़े डॉक्टर के पास कुछ दिनों बाद जाएंगे क्यों उन्हें अब भी माहौल ख़राब होने का डर है. बात करते हुए वो बीच-बीच में कराह उठते हैं.

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'उन्हें हिंदू नहीं कह सकता...'

क्या उन्हें डर लग रहा है? क्या वो ख़फ़ा हैं? ये पूछे जाने पर ज़ुबैर कहते हैं कि डर तो उन्हें तब भी नहीं लगा था जब दंगाई उन्हें मार रहे थे.
वो कहते हैं, "कुछ दरिंदे ज़्यादा से ज़्यादा आपकी जान ले सकते हैं. वो कुछ और नहीं कर सकते. मुझे डर तब भी नहीं था. आज भी नहीं है और कभी नहीं होगा. जुर्म से डरना बहुत बड़ी बुजदिली और कमज़ोरी की निशानी है. डर तब होता है जब आप कोई जुर्म कर रहे हों, गंदा काम कर रहे हों. मैंने तो ऐसा कुछ किया नहीं फिर डर कैसा? डर तो उन्हें होना चाहिए जो एक निहत्थे आदमी को मार रहे हैं."
ज़ुबैर कहते हैं कि उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था कि देश की राजधानी दिल्ली में उन्हें कभी ऐसा कुछ देखने की नौबत आएगी.

बोलते-बोलते ज़ुबैर थोड़े भावुक हो जाते हैं. वो थोड़ी ठहरते हैं और फिर कहते हैं, "मैं एक मेसेज देना चाहूंगा. हिंदू धर्म, इस्लाम, ईसाई...कोई धर्म, कोई मजहब कभी ग़लत सीख नहीं देता. जिन्होंने मेरे साथ ऐसा सुलूक किया. बच्चों के लिए ख़ुशी-ख़ुशी खाने का सामान लेकर जाते एक निहत्थे आदमी को तलवार से मारा, लाठियों से मारा, रॉड से मारा...ऐसे लोगों को इंसानियत का दुश्मन और दरिंदा ही कहा जाएगा. उन्हें किसी धर्म से जोड़ना मैं ठीक नहीं समझता. मैं नहीं कह सकता कि हिंदुओं ने मेरे साथ ऐसा किया. ऐसा करने वाला न हिंदू हो सकता है और मुसलमान. हर धर्म प्यार-मोहब्बत और अमन का संदेश देते हैं..."

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