आम्बेडकर के पहले अख़बार 'मूकनायक' के सौ साल और दलित पत्रकारिता


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"अगर कोई इंसान, हिंदुस्तान के क़ुदरती तत्वों और मानव समाज को एक दर्शक के नज़रिए से फ़िल्म की तरह देखता है, तो ये मुल्क नाइंसाफ़ी की पनाहगाह के सिवा कुछ नहीं दिखेगा."
डॉक्टर भीमराम आम्बेडकर ने 31 जनवरी 1920 को अपने अख़बार 'मूकनायक' के पहले संस्करण के लिए जो लेख लिखा था, ये उस का पहला वाक्य है. तब से बहुत कुछ बदल चुका है. लेकिन, बहुत कुछ जस का तस भी है. आम्बेडकर और मीडिया का रिश्ता साथ-साथ चलता दिखता है.
उन्होंने कई मीडिया प्रकाशनों की शुरुआत की. उनका संपादन किया. सलाहकार के तौर पर काम किया और मालिक के तौर पर उनकी रखवाली की.
इस के अलावा, आम्बेडकर की बातों और गतिविधियों को उन के दौर का मीडिया प्रमुखता से प्रकाशित करता था.
अगर हम उनकी पहुंच की और उनके द्वारा चलाए गए सामाजिक आंदोलनों की बात करें, तो डॉक्टर आम्बेडकर अपने समय में संभवत: सब से ज़्यादा दौरा करने वाले नेता थे.
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आम्बेडकर का समर्थक

उन्हें ये काम अकेले अपने बूते ही करने पड़ते थे. न तो उन के पास सामाजिक समर्थन था. न ही आम्बेडकर को उस तरह का आर्थिक सहयोग मिलता था, जैसा कांग्रेस पार्टी को हासिल था. इस के विपरीत, आम्बेडकर का आंदोलन ग़रीब जनता का आंदोलन था. उन के समर्थक वो लोग थे, जो समाज के हाशिए पर पड़े थे.
जो तमाम अधिकारों से महरूम थे. जो ज़मीन के नाम पर या किसी ज़मींदार के बंधुआ थे. आम्बेडकर का समर्थक, हिंदुस्तान का वो समुदाय था जो आर्थिक रूप से सब से कमज़ोर था. इस का नतीजा ये हुआ कि आम्बेडकर को सामाजिक आंदोलनों के बोझ को सिर से पांव तक केवल अपने कंधों पर उठाना पड़ा.
उन्हें इस के लिए बाहर से कुछ ख़ास समर्थन नहीं हासिल हुआ. और ये बात उस दौर के मीडिया को बख़ूबी नज़र आती थी. आम्बेडकर के कामों को घरेलू ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय मीडिया में भी जाना-माना जाता था. हमें हिंदुस्तान के मीडिया में आम्बेडकर की मौजूदगी और उनके संपादकीय कामों की जानकारी तो है.
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विदेशी मीडिया में कवरेज

लेकिन, उन्हें विदेशी मीडिया में भी व्यापक रूप से कवरेज मिलती थी, ये बात ज़्यादातर लोगों को नहीं मालूम है. बहुत से मशहूर अंतरराष्ट्रीय अख़बार, डॉक्टर आम्बेडकर के छुआछूत के ख़िलाफ़ अभियानों और गांधी से उन के संघर्षों में काफ़ी दिलचस्पी रखते थे.
लंदन का 'द टाइम्स', ऑस्ट्रेलिया का 'डेली मर्करी', 'न्यूयॉर्क टाइम्स', 'न्यूयॉर्क एम्सटर्डम न्यूज़', 'बाल्टीमोर अफ्रो-अमरीकन', 'द नॉरफॉक जर्नल' जैसे अख़बार अपने यहां आम्बेडकर के विचारों और अभियानों को प्रमुखता से प्रकाशित करते थे.
इस के अलावा अमरीका के अश्वेतों द्वारा चलाए जाने वाले कई समाचार पत्र-पत्रिकाएं, आम्बेडकर के विचारों और आंदोलनों को अपने यहां जगह देते थे. भारत के संविधान के निर्माण में आम्बेडकर की भूमिका हो या फिर संसद की परिचर्चाओं में आम्बेडकर के भाषण, या फिर नेहरू सरकार से आम्बेडकर के इस्तीफ़े की ख़बर. इन सब पर दुनिया बारीक़ी से नज़र रखती थी.
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आम्बेडकर की विरासत

मेरी आने वाली किताब, 'आम्बेडकर इन ब्लैक अमेरिका' में मैंने बहुत सी ऐसी जानकारियों को खोजा है, जो पुराने अंतरराष्ट्रीय अख़बारों में आम्बेडकर की विरासत के तौर पर सहेजी जा रही हैं. घरेलू मोर्चे की बात करें, तो आम्बेडकर ने अपने सामाजिक आंदोलन को मीडिया के माध्यम से भी चलाया.
उन्होंने मराठी भाषा मे अपने पहले समाचार पत्र 'मूकनायक' की शुरुआत क्षेत्रीयता के सम्मान के साथ की थी. मूकनायक के अभियान के दिग्दर्शन के लिए तुकाराम की सीखों को बुनियाद बनाया गया. इसी तरह, आम्बेडकर के एक अन्य अख़बार बहिष्कृत भारत का मार्गदर्शन संत ज्ञानेश्वर के सबक़ किया करते थे.
आम्बेडकर ने इन पत्रिकाओं के माध्यम से भारत के अछूतों के अधिकारों की मांग उठाई. उन्होंने मूकनायक के पहले बारह संस्करणों का संपादन किया. जिसके बाद उन्होंने इसके संपादन की ज़िम्मेदारी पांडुरंग भाटकर को सौंप दी थी. बाद में डी डी घोलप इस पत्र के संपादक बने. मूकनायक का प्रकाशन 1923 में बंद हो गया था.
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Image captionहिन्दू कोड बिल पर संसद में चर्चा करते हुए आंबेडकर

आम्बेडकर की पत्रकारिता

इसकी प्रमुख वजह ये थी कि आम्बेडकर, इस अख़बार का मार्गदर्शन करने के लिए उपलब्ध नहीं थे. वो उच्च शिक्षा के लिए विदेश चले गए थे. इसके अलावा अख़बार को न तो विज्ञापन मिल पा रहे थे और न ही उसके ग्राहकों की संख्या इतनी ज़्यादा थी कि उससे अख़बार के प्रकाशन का ख़र्च निकाला जा सके.
शुरुआती वर्षों में राजिश्री शाहू महाराज ने इस पत्रिका को चलाने में सहयोग दिया था. आम्बेडकर की पत्रकारिता का अध्ययन करने वाले गंगाधर पंतवाने कहते हैं कि, 'मूकनायक का उदय, भारत के अछूतों के स्वाधीनता आंदोलन के लिए वरदान साबित हुआ था. इसने अछूतों की दशा-दिशा बदलने वाला विचार जनता के बीच स्थापित किया.' (जी. पंतवाने:पत्रकार डॉक्टर बाबासाहेब आम्बेडकर. पेज-72)
मूकनायक का प्रकाशन बंद होने के बाद, आम्बेडकर एक बार फिर से पत्रकारिता के क्षेत्र में कूदे. जब उन्होंने 3 अप्रैल 1927 को 'बहिष्कृत भारत' के नाम से नई पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया. ये वही दौर था, जब आम्बेडकर का महाद आंदोलन ज़ोर पकड़ रहा था. बहिष्कृत भारत का प्रकाशन 15 नवंबर 1929 तक होता रहा.
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बहिष्कृत भारत का प्रकाशन

कुल मिला कर इसके 43 संस्करण प्रकाशित हुए थे. हालांकि, बहिष्कृत भारत का प्रकाशन भी आर्थिक दिक़्क़तों की वजह से बंद करना पड़ा. मूकनायक और बहिष्कृत भारत के हर संस्करण की क़ीमत महज़ डेढ़ आने हुआ करती थी. जब कि इस की सालाना क़ीमत डाक के ख़र्च को मिलाकर केवल 3 रुपए थी (पंतवाने, पेज-76).
इसी दौरान समता नाम के एक और पत्र का प्रकाशन आरंभ हुआ, जिससे बहिष्कृत भारत को नई ज़िंदगी मिली. उसे 24 नवंबर 1930 से 'जनता' के नए नाम से प्रकाशित किया जाने लगा. जनता, भारत में दलितों के सब से लंबे समय तक प्रकाशित होने वाले अखबारों में से है. जो 25 वर्ष तक छपता रहा था.
जनता का नाम बाद में बदल कर, 'प्रबुद्ध भारत' कर दिया गया था. ये सन् 1956 से 1961 का वही दौर था, जब आम्बेडकर के आंदोलन को नई धार मिली थी. इस तरह हम ये कह सकते हैं कि बहिष्कृत भारत असल में अलग-अलग नामों से लगातार 33 वर्षों तक प्रकाशित होता रहा था.
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Image captionअपनी पत्नी शारदा कबीर के साथ भीम राव आंबेडकर

स्वतंत्रत दलित मीडिया

ये भारत में सब से लंबे समय तक प्रकाशित होने वाला स्वतंत्रत दलित मीडिया प्रकाशन था. इस दौरान, आम्बेडकर ने अपने मिशन को चलाने में, बड़ी चतुराई से सवर्ण जाति के पत्रकारों और संपादकों को इस्तेमाल किया. आम्बेडकर ने जिन प्रकाशनों की शुरुआत की, आगे चल कर उनमें से कई के संपादक ब्राह्मण रहे थे.
इनमें से जो प्रमुख नाम थे, वो हैं- डीवी नायक (जिन्होंने समता का भी संपादन किया) और ब्राहमन ब्राह्मनेत्तर, बीआर कादरेकर (जनता) और जीएन सहस्रबुद्धे (बहिष्कृत भारत और जनता). इन ब्राह्मण संपादकों के अलावा दलित संपादकों जैसे बी सी काम्बले, और यशवंत आम्बेडकर ने 'जनता' का संपादकीय काम-काज संभाला था.
हालांकि, 'बहिष्कृत भारत' के लिए लिखने वालों का बहुत अभाव था. इसका नतीजा ये हुआ कि संपादक को ही अख़बार के 24-24 कॉलम भरने के लिए अकेले लिखना पड़ता था. यशवंत आम्बेडकर, मुकुंद राव आम्बेडकर, डीटी रुपवाटे, शंकर राव खरात और बीआर कारदेकर ने जब तक मुमकिन हुआ तब तक 'प्रबुद्ध भारत' का संपादन जारी रखा था.
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दलित पत्रकारिता

आम्बेडकर से पहले भी कई ऐसी पत्रिकाएं प्रकाशित होती थीं, जो अछूतों से जुड़ी गतिविधियों की ख़बरें छापती थीं. ऐसी पत्रकारिता को जन्म देने में ज्योतिबा फुले द्वारा शुरू किए गए सत्य शोधक समाज आंदोलन ने बहुत महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी.
सत्य शोधक विचारधारा के प्रचार-प्रसार के लिए, कृष्ण राव भालेकर ने दीनबंधु नाम से बहुजन समाचार पत्र का प्रकाशन शुरू किया था. इसका प्रकाशन 1 जनवरी 1877 से शुरू हुआ था. इस अख़बार ने दलितों और उन के विचारों को प्रमुखता से जगह दी.
छोटे मोटे अंतरालों और लंबे अवरोधों को छोड़ दें, तो ये अख़बार क़रीब 100 वर्षों तक प्रकाशित होता रहा था. महार समाज के वरिष्ठ नेताओं में से एक गोपाल बाबा वालंगकर, पहले दलित पत्रकार कहे जाते हैं. उन्होंने जाति और अछूतों के बारे में 'दीनमित्र', 'दीनबंधु' और 'सुधारक' में लंबे समय तक अपने विचार प्रकाशित किए थे (पंतवाने).
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अछूतों के अधिकारों की वक़ालत

वालंगकर एक अद्वितीय विद्वान थे. उन्होंने हिंदू समाज की धार्मिक व्यवस्था की एक समालोचना, 'विताल विध्वंसक' (प्रदूषण का नाश) नाम से 1988 में प्रकाशित की थी. इस किताब के माध्यम से वालंगकर ने शंकराचार्य और अन्य हिंदू धार्मिक नेताओं से 26 सवाल पूछे थे.
(ई. ज़ेलिएट, डॉक्टर बाबासाहेब आम्बेडकर ऐंड द अनटचेबल मूवमेंट, पेज 49. ए. तेलतुम्बडे, दलित्स, पास्ट, प्रेज़ेंट ऐंड फ्यूचर, पेज 48).
इनके अलावा भी कई अन्य महार नेताओं ने पत्रकारिता के माध्यम से अछूतों के अधिकारों की वक़ालत की. मसलन, शिवराम जनबा काम्बले. काम्बले को इस बात का श्रेय जाता है कि उन्होंने 'सोमवंशीय मित्र' नाम के पहले दलित अख़बार की शुरुआत की (1 जुलाई, 1908) और इसका संपादन किया.
उनके अलावा किसान फागोजी बंसोड़े भी दलित आंदोलन के प्रमुख चेहरे थे, बंसोड़े, नागपुर की एम्प्रेस मिल में एक मज़दूर नेता थे. उन्होंने एक प्रेस की शुरुआत की थी. इस की मदद से उन्हें एक स्वतंत्र मीडिया कंपनी चलाने में मदद मिली. उन्होंने अपने प्रेस के ज़रिए मज़ूर पत्रिका (1918-1922) और चोखामेला (1936) का प्रकाशन किया था.
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हिंदू समाज से अपील

बंसोड़े ने चोखामेला की जीवनी भी लिखी थी, जिसका उन्हीं के प्रेस ने 1941 में प्रकाशन भी किया था. सोमवंशीय मित्र के प्रकाशन से पहले किसान फागोजी बंसोड़े को इस बात का भी श्रेय दिया जाता है कि उन्होंने तीन अन्य अख़बार शुरू किए थे. इनके नाम थे-मराठा दीनबंधु (1901), अत्यंज विलाप (1906) और महारांचा सुधारक (1907).
लेकिन, इन अख़बारों के ऐतिहासिक साक्ष्यों के अभाव में हम ये बात पक्के तौर पर नहीं कह सकते. हालांकि उस दौर के तमाम अख़बारों और रिसर्च के दौरान सामने लाए गए तमाम सबूतों में इन तीनों अख़बारों के प्रकाशन का श्रेय बंसोड़े को दिया जाता है.
इन सभी अख़बारों का मक़सद, शोषित अछूतों को एकजुट करना और हिंदू समाज से ये अपील करना था कि वो अपने अंदर सुधार लगाए. इसके लिए ये अख़बार अपने विचार सामने रखते थे.
इन के अलावा जिन अन्य अख़बारों ने आम्बेडकर के आंदोलन को समर्थन दिया, उनके नाम हैं-गरुण (1926), जिसकी शुरुआत दादासाहेब शिर्के ने की थी. दलित बंधु, जिसकी शुरुआत पी एन राजभोज ने 1928 में की थी. पतितपावन (1932), जिसकी शुरुआत पतितपावन दास ने की थी.
बाबा साहेब आंबेडकर

जाति व्यवस्था पर गांधी के विचार

महाराठा (1933) जिसका प्रकाशन एल एन हरदास ने किया था, और दलित निनाद (1947). वी एन बर्वे ने दलित सेवक का प्रकाशन, जाति व्यवस्था पर गांधी के विचारों के प्रचार के लिए शुरू किया था. आम्बेडकर की पत्रकारिता पर शुरुआती रिसर्च सब से पहले अप्पासाहेब रानपिसे ने किया था.
रानपिसे ने 'दलितांची वृतपत्रे' (दबे-कुचले लोगों के अख़बार) के नाम से एक किताब लिखी थी, जो 1962 में प्रकाशित हुई थी. गंगाधर पंतवाने ने इसी मुद्दे पर अपनी डॉक्टरेट की थीसिस के लिए रिसर्च किया था. 1987 में प्रकाशित ये रिसर्च दलित पत्रकारिता पर पहला अध्ययन था.
उस के बाद से हम ने देखा है कि आम्बेडकर की पत्रकारिता पर कई लोगों ने शानदार रिसर्च की है. आम्बेडकर ने अख़बारों के लिए जो लेख लिखे हैं, वो काव्यात्मक हैं. जिसमें उन्होंने अपने विरोधियों को विद्वतापूर्ण और तार्किक ढंग से जवाब दिए हैं.

अख़बारों में दलितों की ज़िंदगी

इन लेखों में ऐसे कई क़िस्से भी हैं, जो अछूतों पर होने वाले ज़ुल्मों या उन के कल्याण के लिए आवश्यक नीतियों के बारे में बताते हैं. आम्बेडकर पूरे दम-ख़म से सामाजिक और राजनीतिक मंचों पर सरकार और राजनीतिक दलों की नीतियों के बारे में टिप्पणी करते थे.
उनके पत्रकारिता के लेख हमें आम्बेडकर के विचारों की व्यापकता को खुल कर समझने का मौक़ा देते हैं. आम्बेडकर बेहद गंभीर लेखक हैं और बड़ी ऊंची पायदान के दार्शनिक भी. उन के समाचार पत्रों में दलित स्वतंत्रता के चित्र पहले पन्ने पर छपते थे. इन अख़बारों में दलितों की ज़िंदगी के तजुर्बे कलाकृतियों के तौर पर भी जगह पाते थे.
बहिष्कृत भारत के 15 जुलाई 1927 को प्रकाशित संस्करण में आम्बेडकर ने उन ब्राह्मणों को चुनौती दी, जिन की शिक्षण संस्थानों में नुमाइंदगी सब से ज़्यादा थी. मिसाल के तौर पर मुंबई क्षेत्र में उच्च शिक्षा को लेकर हुए सर्वे में पता चला कि इन में पढ़ने वाले हर दो लाख छात्रों में एक हज़ार ब्राह्मण थे, जब कि अछूत छात्र एक भी नहीं थे.

शिक्षण संस्थानों में नुमाइंदगी

ये दलितों के लिए बहुत ही निराशाजनक था, जहां सरकारी नीतियां ये सुनिश्चित करती थीं कि पिछड़ी जाति के लोगों की इन शिक्षण संस्थानों में नुमाइंदगी उन की आबादी के अनुपात में कम ही रहे. (पी. गायकवाड़, संपादन:अग्रलेख, बहिष्कृत भारत वा मूकनायक डॉक्टर भीमराव रामजी आम्बेडकर).
पत्रकारिता, हमेशा से ही दलित आंदोलनों का अटूट अंग रही है. दलितों की आवाज़ उठाने वाली ये पत्रकारिता, उनकी अगुवाई में चलने वाले सामाजिक और राजनीतिक प्रयासों के समानांतर चलते रहे हैं. आम्बेडकर के समय की तरह आज के दौर में भी दलितों के लिए प्रिंट पत्रकारिता में अपने लिए बराबरी का मुकाम बनाने का ख़्वाब अधूरा है.
आज मुख्यधारा में ऐसा कोई अंग्रेज़ी अख़बार नहीं है, जो दलितों और जातियों से जुड़े अन्य मुद्दों पर बाक़ी भारतीय आबादी से संवाद कर सके. आज मीडिया का कोई संस्थान ऐसा नहीं है, जो दलितों की विश्व दृष्टि की नुमाइंदगी का दावा कर सके.
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देश का ख़ज़ाना

आज दलित, इन विचारों और रूढ़िवादी ख़यालों का मुक़ाबला दलितों के नेतृत्व में चल रहे मीडिया के ज़रिए कर रहे हैं. आम्बेडकर के बाद पत्रकारिता के क्षेत्र में कुछ ऐसे प्रयास हुए हैं, जिन्होंने इस काम को असरदार तरीक़े से किया था.
यहां पर हम दलित समुदाय के विचार रखने और दलितों के लिए बौद्धिक विमर्श के क्षेत्र में कांशीराम के अभूतपूर्व योगदान की भी अनदेखी नहीं कर सकते.
आम्बेडकर का ज़्यादातर पत्रकारीय लेखन मराठी भाषा में था. तो, मैं ये कोशिश कर रहा हूं कि इस लेखन का अंग्रेज़ी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में अनुवाद किया जा सके. हालांकि, आम्बेडकर के पत्रकारिता वाले लेखों का अंग्रेज़ी अनुवाद हो चुका है. लेकिन, ये बाज़ार में उपलब्ध नहीं है. आम्बेडकर ने जो भी लिखा है, वो देश का ख़ज़ाना है.
इसलिए आज आम्बेडकर के पत्रकारीय लेखों को मुफ़्त में बाज़ार में उपलब्ध कराया जाना चाहिए. ताकि जनता इन्हें अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में भी पढ़ सके.
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इक्कीसवीं सदी में दलित पत्रकारिता

आज के दौर में अपनी बात रखने के नए माध्यमों की आमद के बाद से दलितों ने इन नए तकनीकी माध्यमों की मदद से अपने स्वतंत्र अभियान चलाने में कामयाबी हासिल की है. आज दलितों द्वारा अनगिनत सोशल मीडिया पेज, ट्विटर, फ़ेसबुक ग्रुप, यू-ट्यूब चैनल, वीडियो ब्लॉग और ब्लॉग चलाए जा रहे हैं.
ये आम्बेडकर की साहित्यिक और कलात्मक विरासत को श्रद्धांजलि ही है, जिसे उनके समुदाय के वारिस नए माध्यमों के ज़रिए आज आगे बढ़ा रहे हैं. हालांकि तकनीकी और अपनी वेबसाइट के प्रति लोगों को आकर्षित करने के लिए की जा रही पत्रकारिता अपने साथ कुछ कमियां भी ले कर आई है.
इंटरनेट पर आधारित रिसर्च और दूसरे के माध्यम से प्राप्त जानकारी के कारखानों ने अपुष्ट कहानियों की तादाद में इज़ाफ़ा किया है. ये तेज़ी से प्रचारित होती हैं और इतिहास के तौर पर लोगों को बताई जाती हैं. मौजूदा दौर में भी दलित पत्रकारों को बढ़ावा देने वाले माहौल की कमी साफ़ दिखती है.
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दलितों के मुद्दों पर दुनिया से संवाद

ऑक्सफ़ैम और न्यूज़लॉन्ड्री द्वारा मीडिया में विविधता पर किए गए सर्वे के नतीजे हमें और भी दुखी करने वाले हैं. न्यूज़रूम में नेतृत्व वाले 121 ओहदों में से दलित और आदिवासी नदारद हैं. जब कि ऊंचे जाति के लोगों ने इनमें से 106 पर क़ब्ज़ा कर रखा है. बाक़ी के पदों में से 5 पिछड़ी जातियों तो 6 अल्पसंख्यकों के पास हैं.
आज हमें अंग्रेज़ी भाषा में नियमित रूप से निवेश की ज़रूरत है. या फिर बहु-भाषीय क्षेत्र में ऐसी व्यवस्था विकसित करने की आवश्यकता है, जो दलितों के मुद्दों पर बाक़ी दुनिया से संवाद स्थापित कर सकें. युवा दलितों को चाहिए कि वो पत्रकारिता को पेशे के तौर पर चुनने को तरज़ीह दें.
आज के मीडिया संस्थानों को भी चाहिए कि वो दलित पत्रकारों की क्षमता के विकास में निवेश करें, इसके लिए उन्हें आस-पास के ऐसे दलितों से संपर्क करना चाहिए, जो अच्छे क़िस्सागो हैं. उन्हें दलितों के संवाद के माध्यमों को भी सीखने की ज़रूरत है. क्योंकि इस की बारीक़ियां ग़ैर-दलितों की अनुभवहीन आंखों को नज़र नहीं आ पाती हैं.
भीम आर्मी जैसी सेनाएं खड़ी होने लगेंगी तो लोकतंत्र के लिए अलग चुनौती खड़ी हो सकती है.

ब्राह्मणवादी वर्ग के लेखन

इस मुद्दे के मानवीय पहलू दलितों के निजी मकानों और झोपड़ों के भीतर छुपे हुए हैं, जिनसे राब्ता बनाने की ज़रूरत है. लिखने और अभिव्यक्ति की कला, लोगों की अपनी ज़िंदगी के तजुर्बों के लिहाज़ से अलग-अलग और एकदम अनूठी होती है.
इसीलिए, दलितों की अपनी ज़ुबान, अपनी बात बयां करने के क़िस्सागोई के तरीक़े, ख़ास लहज़े और जुमलने, कुलीन वर्ग और ब्राह्मणवादी वर्ग के लेखन के मानकों पर फिट नहीं बैठते. कई बार, इन बातों को दलित लेखकों के ख़िलाफ़ इस्तेमाल किया जाता है. उनके बारे में कहा जाता है कि उन में लिखने की ख़ूबी नहीं है.
उनके लेखों को केवल टाइप की ग़लतियों या फिर विचारों में तारतम्यता न होने की वजह से ख़ारिज कर दिया जाता है. तर्क करने का नया तरीक़ा और विचारों की ये ताज़गी शायद ही भाषायी ब्राह्मणवाद के पैमानों पर खरे उतरें.
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आडम्बरपूर्ण और तर्क के साथ

क्योंकि इस सोच वाले लोगों के पास न तो वो तजुर्बा होता है, न ही क्षमता होती है कि वो भाषाओं के ऐसे औज़ार विकसित करें, जो पुराने ढर्रों और लेखन के मानकों को चुनौती दे सकें. अक्सर होता ये है कि अच्छा लिखने का तमगा, बिना इस बात की पड़ताल के ही दे दिया जाता है कि इस के पाठकों में पढ़ने को लेकर कितना उत्साह है.
बहुत से आडम्बरपूर्ण और तर्क के साथ लिखने वाले विद्वान इस जाल में फंस जाते हैं. वो शब्दकोशों से मुश्किल और पेचीदा शब्दावली निकाल कर अपने लेख को लच्छेदार बना लेते हैं, ताकि उन्हें विश्वसनीयता हासिल हो सके. शब्दों का ये इंद्रजाल अक्सर किसी लेखक के तौर-तरीक़े का अटूट हिस्सा बन जाता है.
लेकिन, ये ग़रीब, कामगार तबक़े के लोगों की ज़ुबान नहीं है. उन की समझ में नहीं आता. ये आडंबरपूर्ण भाषा उन को न तो समझ में आती है, न पसंद आती है. न ही उनके जज़्बातों की नुमाइंदगी करती है. इसीलिए ब्राह्मण संपादकों को आज ख़ुद को जातीयता और सामुदायिक स्तर पर शिक्षित करने की ज़रूरत है.
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ब्राह्मणों की प्रभुसत्ता के ख़िलाफ़

साथ ही, उन्हें अपने सहकर्मियों को भी ये बात सिखानी चाहिए. ताकि वो दलित लेखकों और दलित समुदायों के विचारों की गहराई को न सिर्फ़ समझ सकें. बल्कि उन्हें पाठकों के सामने प्रस्तुत भी कर सकें. व्याकरण, विराम चिह्नों और टाइपिंग की ग़लतियों के आधार पर लेख को ख़ारिज किए जाने का दलितों का ये तजुर्बा कोई नया नहीं है.
ऐसा तो ग़ैर दलित लेखकों के साथ भी होता आया है. ज्योतिराव फुले और उन के दौर के जिन लोगों ने ब्राह्मणों की प्रभुसत्ता के ख़िलाफ़ संघर्ष किया, उन्हें भी ये दंश झेलना पड़ा था. उस दौर में ब्राह्मण संपादक अक्सर फुले के लेखों के भाव को समझने के बजाय उन की व्याकरण की ग़लतियों पर ज़ोर दिया करते थे. (पंतवाने, पेज-27).
भाषाई श्रेष्ठता को अक्सर दलितों और अन्य निचली जातियों के ख़िलाफ़ हथियार बनाया गया है. ख़ास तौर से उन सुधारकों के ख़िलाफ़ जो ब्राह्मणों के प्रभुत्व को चुनौती देते थे और सामाजिक बदलाव की मांग को ज़ोर-शोर से उठाया करते थे.
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मीडिया के मौजूदा हालात

एक मीडिया कंपनी खोल कर दलितों की पत्रकारिता की शुरुआत की बात करें, तो ये शुरुआत 1 जुलाई 1908 से हुई थी.
हालांकि आम्बेडकर के संघर्ष और लेखन से लगाव रखने वाले, मूकनायक स्थापना दिन को बड़े ज़ोर-शोर से मनाते हैं.
दलित दस्तक के अशोक दास इस दिन उत्तरी भारत में एक बड़ा आयोजन करने जा रहे हैं.
इस दिन को यादगार बनाने के लिए हारवर्ड यूनिवर्सिटी के प्रतिष्ठित इंडिया कॉन्फ्रेंस में 15 फ़रवरी 2020 को एक पैनल परिचर्चा रखी गई है.
इसमें दलित और अन्य पिछड़े वर्ग के पत्रकारों को आमंत्रित किया गया है. ये लोग मीडिया के मौजूदा हालात पर परिचर्चा करेंगे और अपने विचार भी रखेंगे.
(सूरज येंगड़े बेस्टसेलिंग किताब कास्ट मैटर्स के लेखक हैं. वो इंडियन एक्प्रेस में नियमित रूप से कॉलम लिखते हैं और इसके स्तंभ Dalitality के क्यूरेटर भी हैं. सूरज येंगड़े, हार्वर्ड केनेडी स्कूल के शोरेन्ंसटीन सेंटर ऑन मीडिया, पॉलिटिक्स ऐंड पब्लिक पॉलिसी के फेलो भी हैं.)
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