दिल्ली की हिंसा में पुलिस की भूमिका की जाँच आख़िर कौन करेगा?


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दिल्ली के उत्तर-पूर्वी इलाक़े में हुई हिंसा में शुक्रवार शाम तक आधिकारिक रूप से 42 लोगों की मौत की पुष्टि हो चुकी है और इस हिंसा में घायल हुए 100 से अधिक लोग फ़िलहाल अपना इलाज करा रहे हैं.
दंगे में मरने वालों की संख्या को देखते हुए यह कहा जा रहा है कि 'बीते सात दशक में दिल्ली में हुआ यह सबसे बड़ा हिंदू-मुस्लिम दंगा है.' हालांकि 1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए सिख विरोधी दंगों में क़रीब तीन हज़ार लोग मारे गए थे.
रविवार, 23 फ़रवरी को दिल्ली के उत्तर-पूर्वी इलाक़े में यह दंगा शुरू हुआ था और इस दंगे के जो वीडियो अब तक सामने आये हैं, उनमें हिंदू और मुस्लिम, दोनों तरफ़ की भीड़ हाथों में डंडे और पत्थरों के अलावा कुछ देसी हथियार लहराती और पेट्रोल बम फेंकती नज़र आती है.
उत्तर प्रदेश की सीमा से सटे दिल्ली के उत्तर-पूर्वी इलाक़े में हिंदू-मुस्लिम दंगे के दौरान जिस तादाद में हथियारों का इस्तेमाल हुआ, उसे देखते हुए दिल्ली पुलिस के ख़ुफ़िया तंत्र पर कई गंभीर सवाल तो उठ ही रहे हैं.
साथ ही अदालत में दिल्ली पुलिस के आला अधिकारियों को अपनी कथित निष्क्रियता के लिए ज़लील होना पड़ा है.
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दिल्ली हाई कोर्ट में जस्टिस एस मुरलीधर को दिल्ली पुलिस के स्पेशल कमिश्नर से यह कहना पड़ा कि 'जब आपके पास भड़काऊ भाषणों के क्लिप मौजूद हैं तो एफ़आईआर दर्ज करने के लिए आप किसका इंतज़ार कर रहे हैं?'
कोर्ट में यह भी कहा गया कि 'शहर जल रहा है, तो कार्रवाई का उचित समय कब आयेगा?'
हालांकि दिल्ली पुलिस के कमिश्नर अमूल्य पटनायक अपने दावे पर क़ायम हैं कि 'हिंसा से निपटने के लिए पर्याप्त पुलिस बल तैनाय किये गए थे और हिंसा से जुड़े मामलों में अब तक 100 से अधिक एफ़आईआर दर्ज की जा चुकी हैं.'
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इसके अलावा दिल्ली पुलिस ने हिंसा से जुड़े मामलों की जाँच के लिए दो ख़ास जाँच दल (SIT) बनाये हैं. इन दलों का नेतृत्व दिल्ली के डिप्टी कमिश्नर जॉय टिर्की और राजेश देव करेंगे. दोनों टीमों में चार एसिस्टेंट कमिश्नर रैंक के अफ़सर शामिल होंगे. साथ ही जाँच की निगरानी अतिरिक्त पुलिस कमिश्नर बीके सिंह करेंगे.
राजेश देव वही पुलिस अधिकारी हैं जिन्हें चुनाव आयोग द्वारा उनके 'अति-उत्साह' के लिए फटकार पड़ी थी.
चुनाव आयोग ने कहा था कि 'दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान शाहीन बाग़ के पास फ़ायर करने वाले कपिल बैंसला को लेकर उन्हें प्रेस को ग़ैर-ज़रूरी बयान नहीं देने चाहिए थे.' इसके बाद चुनाव आयोग ने ये निर्देश दिये थे कि राजेश देव को इलेक्शन ड्यूटी पर नहीं रखा जाये.
लेकिन फ़िलहाल यह प्रश्न उठ रहा है कि क्या दिल्ली पुलिस की स्पेशल टीम अपने अफ़सरों और हिंसा के दौरान उनकी भूमिका को भी जाँच के दायरे में रखेगी या नहीं?
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पुलिस की भूमिका पर सवाल

दिल्ली के भजनपुरा इलाक़े में एक मज़ार और उसके पास स्थित पुलिस सहायता केंद्र को भी भीड़ ने सोमवार दोपहर आग के हवाले कर दिया था.
वहाँ मौजूद चश्मदीदों ने बीबीसी से बातचीत में यह दावा किया था कि 'दंगाइयों के साथ पुलिस वाले भी कुछ लोगों को निशाना बना रहे थे.'
पास के ही चाँदबाग़ इलाक़े में रहने वाले एक छोटे दुकानदार सग़ीर को भी दंगे के दौरान गोली लगी थी.
जीटीबी अस्पताल में मौजूद उनके सगे भाई ने बीबीसी को बताया था कि 'पुलिस ने वक़्त रहते कार्रवाई की होती तो उनके भाई को भीड़ से बचाया जा सकता था.'
इसी तरह दिल्ली के भजनपुरा चौक, विजय पार्क और मुस्तफ़ाबाद क्षेत्र के कुछ वीडियो सोशल मीडिया पर सर्कुलेट हो रहे हैं जिनमें आक्रामक भीड़ एक दूसरे पर डंडों से हमला करती, पत्थर फेंकती हुई दिखाई देती है और कुछ दूरी पर खड़े पुलिस वाले इस मंज़र को देख रहे हैं.
दिल्ली पुलिस के पूर्व कमिश्नर नीरज कुमार लिख चुके हैं कि 'शहर में हुए दंगों के दौरान दिल्ली पुलिस दिशाहीन दिखाई पड़ी और इन दंगों के लिए उसे ज़िम्मेदार ठहराना ग़लत नहीं होगा.'
दिल्ली पुलिस के पूर्व जॉइंट कमिश्नर मैक्सवेल परेरा ने लिखा है कि 'सत्तारूढ़ पार्टी और उनके द्वारा नियंत्रित दिल्ली पुलिस ने क़ानून व्यवस्था का मज़ाक़ बनाकर रख दिया है और यह चौंकाने वाला है.'
अमरीकी समाचार पत्र 'द न्यू यॉर्क टाइम्स' ने भी शुक्रवार को लिखा कि 'एक तरफ़ जहाँ नई दिल्ली में मृतकों की गिनती जारी है, वहीं कुछ सवाल हैं जो दिल्ली पुलिस की प्रतिक्रियाओं और कार्रवाई के तरीक़े के इर्द-गिर्द मंडरा रहे हैं.'
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जाँच का तरीक़ा सही?

राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में हुई हिंसा के बीच 'पुलिस की भूमिका' पर जो तमाम सवालात खड़े किये जा रहे हैं, क्या SIT बनाकर पुलिस ने इन सवालों के जवाब तलाशने का सही तरीक़ा चुना है?
इसे समझने के लिए बीबीसी ने पूर्व आईपीएस अधिकारी और केंद्रीय रिज़र्व पुलिस बल के पूर्व महानिदेशक प्रकाश सिंह से बात की.
दिल्ली पुलिस के रवैये पर सवाल उठाते हुए प्रकाश सिंह ने कहा कि 'इतनी जानें गई हैं तो सवाल उठने तो लाज़िम हैं और इसकी जाँच होना भी उतना ही ज़रूरी है.'
प्रकाश सिंह ने बताया कि "ऐसे मामलों में जाँच करने के कोई नियम बने हुए नहीं है. यह काफ़ी हद तक सरकार के विवेक पर निर्भर करता है. पर क्रम यही है कि पहले विभागीय जाँच हो सकती है. अगर विभाग में उस क़िस्म का भरोसा ना बन पाये तो प्रशासनिक जाँच के आदेश दिये जा सकते हैं जिसमें कोई रिटायर्ड सिविल सर्वेंट हो सकता है. इसके बाद न्यायिक जाँच का नंबर आता है."
"फ़िलहाल यह स्पष्ट नहीं है कि हिंसा से जुड़े मामलों की जाँच के लिए दिल्ली के पुलिस कमिश्नर ने गृह मंत्रालय से औपचारिक विमर्श के बाद एसआईटी का गठन किया है या दिल्ली पुलिस के प्रमुख के तौर पर यह उनका अपना फ़ैसला है. लेकिन गृह मंत्रालय अगर चाहे तो वो उन्हें उच्च स्तरीय जाँच या किसी बाहरी अफ़सर द्वारा जाँच कराने के आदेश दे सकता है."
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क्या दिल्ली सरकार भी इस संबंध में कुछ एक्शन ले सकती है? इसके जवाब में उन्होंने कहा, "दिल्ली सरकार क्या, कोई एनजीओ भी चाहे तो वो इन मामलों में स्वतंत्र जाँच कर सकता है. लोकतांत्रिक व्यवस्था में इसकी मनाही नहीं है. कई बार सरकार के समानांतर कुछ सामाजिक समूहों ने अपनी जाँच बैठाई है और उसके नतीजे सार्वजनिक किये हैं."
लेकिन उत्तर प्रदेश के पूर्व डीजीपी ब्रज लाल मानते हैं कि 'इन रिपोर्टों को कोर्ट में सही साबित करना अपने आप में एक अलग और बहुत मुश्किल काम रहा है.'
उनका मानना है कि 'दिल्ली पुलिस की निष्क्रियता तो रही, वरना दंगों का असर इतना व्यापक नहीं हो पाता.'
वे कहते हैं, "जब आगज़नी हो रही है, भीड़ लोगों के घरों में घुस रही है तो पुलिस को अधिकार है फ़ायर करने का. हंगामे के शुरुआती 24 घंटे में पुलिस अगर सख़्त एक्शन करती और दंगाइयों को रबड़ बुलेट और पैलेट गन से निशाना बनाती तो भीड़ द्वारा की गई हिंसा में 40 से अधिक लोगों की जान नहीं जाती. फ़ोर्स का इस्तेमाल करने में कोताही बरती गई, यह स्पष्ट है."
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ब्रज लाल कहते हैं, "लाल क़मीज़ पहने जिस शख़्स को लोगों ने टीवी चैनलों पर तमंचा लहराते हुए देखा, उसे अगर मौक़े पर ही दण्डित कर दिया जाता तो लोगों में यह संदेश जाता कि सड़क पर इस तरह का हंगामा नहीं चलेगा."
ब्रज लाल मानते हैं कि प्रशासनिक जाँच या न्यायिक जाँच की जगह एसआईटी बनाकर जाँच करवाना बेहतर विकल्प है.
वे बताते हैं, "प्रशासनिक जाँच या न्यायिक जाँच को केस डायरी का हिस्सा नहीं माना जा सकता. इसलिए उनकी रिपोर्ट के आधार पर किसी के ख़िलाफ़ मुक़दमा नहीं चलाया जा सकता. इसलिए एफ़आईआर क़ायम कर पुलिस की एसआईटी से जाँच करवाना ज़्यादा बेहतर है क्योंकि एसआईटी जो सबूत एकत्र करेगी, उन्हें ही कोर्ट में माना जाएगा."
बीबीसी से बातचीत में ब्रज लाल ने कहा कि 'पुलिस के चुनिंदा अफ़सरों से हिंसा के मामलों की जाँच करवाकर ही दंगाइयों को दोषी ठहराया जा सकता है. साथ ही ड्यूटी के दौरान लापरवाही बरतने के लिए पुलिसकर्मियों की ज़िम्मेदारी फ़िक्स की जा सकती है.'
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