कोरोना वायरस: बिहार के सिविल सर्जन को 'झोला छाप डॉक्टरों' की ज़रूरत क्यों पड़ी?


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कोरोना वायरस के कारण हुए लॉकडाउन के दरम्यान बिहार में बाहर से लाखों की संख्या में लोग आए हैं.
बिहार सरकार के स्वास्थ्य विभाग की तरफ़ से जारी आंकड़ों के अनुसार दो अप्रैल तक ऐसे चार लाख 35 हजार 10 लोगों की जांच की गई है.
सरकार ने घोषणा कर रखी है कि बाहर से आए हर शख़्स को उसके घर के पास बने अस्थाई क्वारंटाइन सेंटर में 14 दिनों के लिए रखा जाएगा.
इन्हीं क्वारंटाइन सेंटर पर व्यवस्था के लिए सिवान के सिविल सर्जन ने 25 मार्च को एक आदेश जारी किया जिसमें लिखा गया, "कोरोना वायरस से बचाव हेतु सभी प्रखंडों में झोला छाप चिकित्सकों को चिन्हित करते हुए उनसे इलाज हेतु सहमति पत्र लेते हुए प्रशिक्षण देना है. इसलिए अपने क्षेत्र के झोला छाप चिकित्सकों की सूची व मोबाइल नंबर भेजकर 26 मार्च से प्रशिक्षण देना शुरू करें."
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Image captionसिविल सर्जन का आदेश
कोरोना संदिग्धों के इलाज के लिए सिविल सर्जन द्वारा झोला छाप डॉक्टरों की मदद लेने के आदेश की कॉपी जब सोशल मीडिया पर वायरल हो गई और WHO के गाइडलाइन के उल्लंघन का मामला बना, तब बिहार सरकार ने उक्त आदेश को रद्द करते हुए सिविल सर्जन को निलंबित करने का नया फ़रमान जारी कर दिया.
स्वास्थ्य विभाग के नए आदेश में लिखा हुआ है, "सिविल सर्जन के इस तरह आदेश जारी करने से कोविड-19 के संक्रमण के रोकथाम के लिए विभाग और सरकार द्वारा किए जा रहे सारे प्रयास अंडरमाइन प्रतीत होते हैं. ऐसा आदेश जारी करने से पहले न तो विभाग से सूचना ली गई और ना ही सूचना दी गई. पत्र के सोशल मीडिया पर वायरल होने से विभाग को आलोचना का शिकार होना पड़ा. सिविल सर्जन के ऐसे आदेश से पूरे देश में बिहार के स्वास्थ्य विभाग की छवि धूमिल हुई."
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Image captionएचआईवी प्रोटेक्टिव गियर लगाकर ड्यूटी देते डॉक्टर
सिविल ‌सर्जन ने क्या कहा?
सिवान के जिस सिविल सर्जन ने यह आदेश जारी किया था, उनका नाम डॉ. अशेष कुमार है.
सिवान ही वह ज़िला भी है जहां अब तक विदेश से आए सबसे अधिक लोगों को कोरोना के संदिग्ध के तौर पर सर्विलांस में रखा गया है.
झोला छाप डॉक्टरों की मदद लेने पर अपने निलंबन से पहले उन्होंने कहा, "गांव में एमबीबीएस डॉक्टर हम कहां से लाएं? शहरों में तो एमबीबीएस मिल नहीं रहे. वैसे भी गांव में लोग इन्हीं झोला छाप डाक्टरों के पास जाते हैं. ऐसे हालात में वही काम आएंगे."
लेकिन जब बात निलंबन की आ गई तब डॉक्टर अशेष कहते हैं, "काम का बोझ इतना अधिक था कि साइन करते वक़्त देख नहीं ‌सके थे कि झोला-छाप लिखा हुआ है. दरअसल, हमने अपने अफ़सरों को उन डाक्टरों की मदद लेने को कहा था जो ग्रामीण स्तर पर चिकित्सा का काम करते हैं."
'झोलाछाप' डाक्टरों की ज़रूरत ही क्यों पड़ी?
सिवान के सिविल सर्जन वाले आदेश से यदि 'झोला छाप डाक्टरों' का ज़िक्र हटा दें तो वह उसी आदेश से मिलता जुलता है, जो स्वास्थ्य विभाग की तरफ़ से क्वारंटाइन सेंटर की व्यवस्था बनाने को लेकर जारी किया गया था.
विभाग ने सभी ज़िलों के सिविल सर्जन को यह ज़िम्मेदारी दी थी कि वे अपने ज़िले के निजी अस्पतालों के डॉक्टरों, स्वास्थ्यकर्मियों और ग्रामीण स्तर पर चिकित्सा कार्य कर रहे लोगों की सूची तैयार कर उन्हें क्वारंटाइन सेंटर की व्यवस्था में लगाया जाए.
स्वास्थ्य विभाग ने ऐसा इसलिए कहा क्योंकि बिहार जितनी बड़ी आबादी के लिहाज़ से न तो यहां सरकारी डॉक्टर हैं और ना ही इंतज़ाम.
बिहार सरकार यह बात पिछले साल सुप्रीम कोर्ट में बता चुकी है कि उसके पास जितनी ज़रूरत है उसकी तुलना में 57 फ़ीसदी डॉक्टर कम हैं और 71 फीसदी नर्सों की कमी है.
जून 2019 में नीति आयोग ने स्वास्थ्य के मामलों में भारत के राज्यों की जो रैंकिंग बनाई थी, उसमें बिहार का नम्बर 21वां था.
WHO के मानकों के अनुसार प्रति एक हज़ार लोगों पर एक डॉक्टर होना ज़रूरी है. मगर बिहार में यह अनुपात काफ़ी कम है. यहां 28 हज़ार की आबादी पर एक डॉक्टर हैं और एक लाख की आबादी पर एक बेड उपलब्ध है.
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सरकारी डॉक्टरों की असमर्थता
सबसे दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि बिहार में जो सरकारी डॉक्टर हैं, वो भी‌ सुरक्षा उपकरणों (पीपीई किट, एन 95 मास्क और ग्लव्स) के अभाव में सेवा देने में असमर्थता जता रहे हैं.
भागलपुर के जवाहर लाल नेहरु मेडिकल कॉलेज, पटना के पीएमसीएच, एनएमसीएच, आईजीआईएमएस समेत कई अस्पतालों के डॉक्टरों ने इसे लेकर शिकायत की है. स्वास्थ्य विभाग, मुख्यमंत्री सहित प्रधानमंत्री तक को पत्र लिख चुके हैं. लेकिन अभी तक उनकी शिकायतें दूर नहीं हो सकी.
इन अस्पतालों के जूनियर डॉक्टर नाम नहीं छापने की शर्त पर कहते हैं, "उन्हें काम करने के लिए डिग्री बाकी होने की बात कहकर अस्पताल प्रबंधन द्वारा धमकाया भी जा रहा है."
पिछले हफ़्ते जब स्वास्थ्य मंत्री और विभाग के अन्य अधिकारियों के साथ वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के ज़रिए बैठक चल रही थी, तब भी डॉक्टरों ने सुरक्षा उपकरणों का मुद्दा उठाया था.
उस वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग की एक क्लिप जो हमें एक डॉक्टर ने ही भेजी है, उसमें उनके सवालों पर स्वास्थ्य सचिव संजय कुमार यह कहते हुए सुनाई देते हैं, "ओपीडी और इमरजेंसी के लिए पीपीई किट और N95 मास्क की ज़रूरत नहीं है. आप लोग यह बात समझते नहीं हैं, बेवजह का सवाल उठा रहे हैं."
डॉक्टरों का कहना है कि कोरोना संदिग्धों की जांच के लिए अस्पतालों में अलग से वार्ड नहीं बना है. जो संदिग्ध हैं वो पहले ओपीडी या इमरजेंसी में ही आते हैं. आख़िर उन्हें कैसे पता चलेगा जांच के पहले कि उन्हें कोरोना का संक्रमण है या नहीं.
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'झोला छाप डॉक्टर' लिखकर फंस गए सिविल सर्जन
जहां तक बात बिहार में झोला छाप डॉक्टरों की है तो पटना के वरिष्ठ चिकित्सक पीएमसीएच में कार्यरत डॉक्टर अतुल वर्मा कहते हैं, "सरकार इन डाक्टरों की ट्रेनिंग देने का कोर्स ख़ुद कराती है. NIOS के ज़रिए एक तीन महीने का और एक पांच महीने का ट्रेनिंग प्रोग्राम चलता है. जितने भी झोला छाप डॉक्टर हैं, उन्होंने इस कोर्स में दाख़िला लिया है ताकि उन्हें सरकारी मान्यता मिल जाए. सरकार यही चाहती भी है. तो फिर उनसे सेवा लेने में दिक्कत ही क्या है?"
डॉक्टर अतुल के मुताबिक इन डॉक्टरों को 'झोला छाप' कहना भी अनुचित है. इन्हें ग्रामीण चिकित्सक या मोहल्ला चिकित्सक कहा जाना चाहिए.
डॉक्टर अतुल आगे कहते हैं, "उन सिविल सर्जन साहब ने यही ग़लती कर दी कि उन चिकित्सकों को झोला छाप नाम दे दिया. लेकिन मुझे नहीं लगता कि गांव में बने क्वारंटाइन सेंटरों में इन चिकित्सकों को लगाना ग़लत है. क्योंकि क्वारंटाइन सेंटर पर इलाज नहीं करना होता है, बस लक्षण के आधार पर रोगी की देखभाल करनी होती है. इलाज के लिए हमारे अस्पतालों में डॉक्टरों की व्यवस्था है ही."
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क्या कहती है सरकार?
कोरोना के ख़िलाफ़ लड़ाई में झोला छाप डॉक्टरों वाले आदेश को भले अब काग़ज़ों पर वापस ले लिया गया हो, या सिविल सर्जन अब ग़लती ‌से पत्र पर साइन होने की बात कर रहे हों, मगर सच्चाई यही है कि स्कूलों में बने क्वारंटाइन सेंटर और गांवों में ज़िला प्रशासन की टीम इन्हीं डॉक्टरों से काम करा रही है.
गांव में बने क्वारंटाइन सेंटरों में जांच के नाम पर खाना पूर्ति होने की बात कही जा रही है. वीडियो और तस्वीरें सोशल मीडिया पर वायरल हैं.
गया के बाराचट्टी प्रखंड के पीएचसी ‌के एक वायरल वीडियो में देखा जा सकता है कि क्वारंटाइन सेंटर पर बिहार ‌में बाहर से आए लोगों का केवल नाम-पता दर्ज कर लिया जा रहा है और क्वारंटाइन का ठप्पा लगा दिया जा रहा है.
उसी वीडियो में जब जांच करा रहे लोग इस पर सवाल उठाते हैं तो ड्यूटी पर तैनात अधिकारी कहते हैं, "हमारे पास जो व्यवस्था दिया गया है, उसी में न करेंगे. आपको ज़्यादा जांच करानी है तो कहीं और चले जाइए."
स्वास्थ्य विभाग के सचिव संजय कुमार इन सवालों पर बीबीसी से कहते हैं, "वीडियो बनाने वालों और वायरल करने वालों को हम नहीं रोक सकते. लेकिन इतना ज़रूर कह सकते हैं कि कहीं भी क्वारंटाइन सेंटर पर झोला छाप डॉक्टरों को नहीं रखा गया है. हम लोगों की जिंदगी के साथ खिलवाड़ नहीं कर सकते. इसलिए सिविल सर्जन को सस्पेंड कर दिया गया है. अगर कहीं से भी इस तरह की शिकायत मिलेगी तो हम उस पर स्ट्रिक्ट एक्शन लेंगे."
बहरहाल, स्वास्थ्य सचिव से मिली ताज़ा जानकारी के मुताबिक़ बिहार में कोरोना के संदिग्ध मरीज़ों की‌‌ संख्या गुरुवार को 30 हो गई है. अब तक 1700 के करीब सैंपल जांचे गए हैं.
आंकड़ों के अनुसार कोरोना से निपटने के लिए 76212 स्वास्थ्य कर्मियों को ड्यूटी पर लगाया गया है. जानने वाले कहते हैं, "इतने स्वास्थ्यकर्मी तो सरकार के रिकॉर्ड में ही नहीं हैं, फिर ये कौन हैं? कहीं वे झोला छाप ही तो नहीं हैं!"
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