दक्षिण भारत को चमकाने वाले यूपी-बिहार के मज़दूर दर-दर भटकने को मजबूर


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कर्नाटक के बेंगलुरु में यूबी सिटी नाम से एक मशहूर इमारत है. एक दशक पहले तक 123 मीटर ऊंची यह इमारत बेंगलुरु की सबसे ऊंची इमारत थी. आज के समय में यूबी सिटी शहर की 14 सबसे लंबी इमारतों में एक है.
सबसे संपन्न बिज़नेस कांप्लैक्स यूबी सिटी की इमारत शहर के बीचोंबीच स्थित है जबकि दूसरी इमारतें शहर के दूसरे हिस्सों में खड़ी हैं. लेकिन इनमें एक बात कॉमन है- इन सबको बनाने में प्रवासी मज़दूरों का अहम योगदान रहा है.
प्रेस्टीज ग्रुप के चेयरमैन और प्रबंध निदेशक इरफ़ान रज्ज़ाक ने बीबीसी हिंदी को बताया, "एक दशक पहले बनी यूबी सिटी और प्रेस्टीज शांतिनिकेतन जैसी लैंडमार्क इमारतों को खड़ा करने में प्रवासी मज़दूरों की भूमिका 50 से 60 प्रतिशत की बीच रही होगी. हाल के सालों में तैयार ऐसी इमारतों में उनकी हिस्सेदारी 60 से 70 प्रतिशत के बीच है."
कर्नाटक विधानसभा की इमारत से यूबी सिटी महज़ कुछ क़दम दूर है. इस कांप्लैक्स में 17 और 19 मंज़िली दो ऑफिस टॉवर हैं, इसके साथ ही एक महंगे उत्पादों का शापिंग माल और फूड कोर्ट है. विजय माल्या के करीब 13 एकड़ ज़मीन पर करीब 16 लाख वर्ग फीट पर बनी इस इमारत को प्रेस्टीज समूह ने तैयार किया था.
कंस्ट्रक्शन उद्योग में प्रवासी मज़दूरों की भूमिका के बारे में रज्ज़ाक ने बताया, "दक्षिण भारत से मज़दूरों का आना कम हो गया है. आज की तारीख में सबसे ज़्यादा प्रवासी मज़दूर बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश से आते हैं जो विभिन्न जगहों पर काम की तलाश में पहुंचते हैं."

कोविड-19 का असर

पिछले कुछ सप्ताह से जारी लॉकडाउन के चलते प्रवासी मज़दूरों ने अब अपने घरों की तरफ़ लौटना शुरू कर दिया है. हज़ारों किलोमीटर की दूरी तय करने के लिए वे पैदल निकल पड़े हैं. हाल ही में जब कर्नाटक सरकार ने प्रवासी मज़दूरों के लिए चलाई गई विशेष ट्रेन श्रमिक स्पेशल को रद्द कर दिया तो सैकड़ों मज़दूर इससे बेहद बेसब्र नज़र आए.
पहले तो राज्य सरकार की ओर से इन प्रवासी मज़दूरों को श्रमिक स्पेशल ट्रेन से जाने की अनुमति दी गई लेकिन बाद में बिल्डरों और डेवलपरों से बात करने के बाद सरकार ने अपना फ़ैसला बदल लिया. इस क़दम ने बेंगलुरु में फंसे हज़ारों प्रवासी मज़दूरों को बुरी तरह हताश कर दिया है.
पश्चिम बंगाल के हल्दिया से आने वाले फूलकुमार रविदास ने बीबीसी हिंदी को बताया, "अगर हम लोगों ने लौटने का फ़ैसला करा तो हमें मार्च की सैलरी नहीं मिलेगी. ठेकेदारों ने हमसे साफ़ कहा है कि अगर लौटने का फ़ैसला कर चुके हो तो यह जगह छोड़नी होगी. हम इस जगह को छोड़कर रेलवे स्टेशन जाते हैं और फिर हमें टिकट नहीं मिलता है. टिकट नहीं मिलने के बाद हम क्या करेंगे? काम करने की हिम्मत नहीं बची है, हम अपने घर लौटना चाहते हैं."

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33 साल के फूलकुमार होसकोटे एक बिल्डिंग साइट पर कारपेंटर के तौर पर काम करते हैं, उन्हें प्रतिदिन 400 रुपये की दिहाड़ी मिलती है.
उन्होंने बताया, "हां, कंपनी हमलोगों को रोज़ खाना खिला रही है. लेकिन हम लोग अपने घरों पर दो महीने से कोई पैसा नहीं भेज पाए हैं. हमारे पास एक कप चाय ख़रीदने तक के पैसे नहीं बचे हैं. हम लोग यहां बंधुआ मज़दूर बन कर रह गए हैं."
उनके साथी मूले मंडल श्रमिक ट्रेन का टिकट हासिल करने के लिए स्थानीय पुलिस स्टेशन तक भी गए. पुलिसकर्मियों ने उन्हें सेवा सिंधु वेबसाइट पर पंजीयन कराने को कहा. तकनीकी ज्ञान नहीं होने के चलते दोनों को पंजीयन कराने के लिए बचत के पैसों में से 150-150 रुपये ख़र्च करने पड़े.
मूले मंडल ने बताया, "हमें कोई जानकारी नहीं मिली कि हमें किसी ट्रेन में टिकट मिली है. पूछताछ के लिए मैं दोबारा पुलिस स्टेशन गया. लेकिन उन लोगों ने लाठी मारकर हमें वहां से भगा दिया."
कंस्ट्रक्शन इंडस्ट्री की संस्था कंफ़ेडरेशन ऑफ रियल एस्टेट डेवलपर्स एसोसिएशन ऑफ़ इंडिया यानी क्रेडाई ने माना है कि कोविड-19 के संकट के चलते यह सेक्टर बुरी तरह प्रभावित हुए हैं.
क्रेडाई, कर्नाटक के प्रेसीडेंट सुरेश हरि ने बीबीसी हिंदी को बताया, "अभी भी प्रवासी मज़दूरों के लिए काफी काम है. जो हाथ से करने वाले काम है, राज मिस्त्री का काम है, वह काम का बड़ा हिस्सा नहीं है. ज़िला स्तर पर मज़दूर इस कमी को पूरा करेंगे. हां ये ज़रूर है कि स्किल्ड मज़दूरों को काम करने के लिए इंतज़ार करना होगा."

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सुरेश हरि के मुताबिक, "ज़्यादातर मज़दूर कंपनी के नियमित मज़दूर नहीं हैं. ठेकेदार बिहार या ओडिशा जाकर इन लोगों के स्किल को आंकते हैं और फिर उन्हें साथ लेकर आते हैं. हां ज़रूर होगा कि इन लोगों को नकद भुगतान नहीं मिल रहा होगा. उनके हाथ में पैसा नहीं आ रहा होगा लेकिन मज़दूरों को खाना और राशन का सामान मुहैया कराया जा रहा है."
बड़े बिल्डरों ने शुरुआत में मज़दूरों को फूड पैकेट ज़रूर मुहैया कराए लेकिन बाद में मज़दूरों को राशन का सामान मुहैया कराने लगे.
रज्ज़ाक ने बताया, "हम यह सुविधा भारत के अपने सभी प्रोजेक्ट पर मुहैया करा रहे हैं. लॉकडाउन के बाद हम 13 लाख फूड पैकेट्स वितरित कर चुके हैं और 20 हज़ार परिवारों को मेडिकल किट भी दिया गया है."
बिल्डरों के मुताबिक, उनके छोटे ठेकेदार, इन मज़दूरों को रहने का ठिकाना उपलब्ध करा रहे हैं. इस लिहाज़ से इन ठेकेदारों को ज़मीनी स्तर पर मज़दूरों का केयर टेकर माना जा सकता है.
ठेकेदार बड़े कॉरपोरेट एजेंट्स या उनके प्रतिनिधियों के संपर्क में होते हैं. इनके कुछ साथी गांवों तक जाकर ज़रूरी स्किल वाले मज़दूरों को लेकर आते हैं. सुरक्षा के लिहाज़ से ये लोग रहने का ठिकाना कंस्ट्रक्शन साइट से दूर ही बनाते हैं.
प्रसिद्ध समाजशास्त्री दीपांकर गुप्ता ने बीबीसी हिंदी से कहा, "यह अपने को श्रेष्ठ मानने और कामकाजी लोगों से अलग थलग दिखने का नज़रिया है. कामकाजी मज़दूरों के लिए कोई सहानुभूति नहीं है. वे उपयोगी ज़रूर हैं लेकिन वे प्राथमिकताओं के दायरे से बाहर हैं."

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प्रोफेसर दीपांकर गुप्ता जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी के पूर्व प्रोफ़ेसर हैं. वो पहले ऐसे समाजशास्त्री हैं जिन्होंने रेखांकित किया था कि दक्षिण और पश्चिम भारत के विकसित राज्यों के विकास में बीमारू राज्यों की अहम भूमिका रही है.
लेकिन झारखंड के एक मज़दूर ने टीवी चैनल पर कहा, "सर, हमलोग घर जाना चाहते हैं. इस वक़्त हम अपने परिवार वालों के साथ रहना चाहते हैं. हम लोग दस गुना दस फीट वाली जगह में छह-सात लोग मिलकर रहते हैं. भगवान ना करे लेकिन अगर हममें से किसी एक को कोरोना हो गया तो हमारा क्या होगा?"

प्रवासी मज़दूरों पर असर

तिरुअनंतपुरम के सेंटर फॉर डेवलपमेंट स्टडीज़ (सीडीएस) के प्रोफेसर इरूदया राजन ने बीबीसी हिंदी को बताया, "कोविड-19 से एक ही चीज़ अच्छी हुई है, इसने प्रवासी मज़दूरों को लाइम लाइट में ला दिया है. ये लोग भारतीय अर्थव्यवस्था के सबसे बड़े इंजन हैं. अब तक हर किसी को उनके होने के बारे में मालूम था लेकिन कोई उनके अस्तित्व को स्वीकार करने तक के लिए तैयार नहीं था."
प्रोफेसर राजन केरल के प्रवासी मज़दूरों पर सर्वे के लेखक भी हैं. केरल सरकार का यह सर्वे देशभर में अपनी तरह का अनोखा सर्वे है. तमिलनाडु, गुजरात और पंजाब जैसे दूसरे राज्यों में भी प्रवासी मज़दूरों पर सर्वे होते हैं लेकिन उनमें दूसरे देशों में पलायन करने वाले लोगों का ही लेखा जोखा होता है. 2018 में केरल के सर्वे के मुताबिक राज्य में 38 लाख प्रवासी मज़दूर काम करते हैं.

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लेकिन प्रोफेसर दीपांकर गुप्ता, प्रोफेसर राजन से सहमत नहीं हैं. मौजूदा परिस्थितियों के बारे में प्रोफेसर दीपांकर गुप्ता ने कहा, "मुझे ऐसा लगता है कि प्रवासी मज़दूरों ने खुद को बेहद मामूली समझा होगा. वे दरअसल सम्मान चाहते हैं और इस बात को कोई समझता नहीं. कुल मिलाकर हालात और भी ख़राब होने वाले हैं. पूंजी और श्रम के लिए अविश्वास अच्छा नहीं है. श्रम बनाम पूंजी का विचार शुरुआत से ही अच्छा तरीका नहीं हो सकता."
प्रोफेसर गुप्ता जापान और दक्षिण कोरिया का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि इन देशों ने साबित किया है कि अर्थव्यवस्था के लिए श्रमिक यूनियनों को ख़राब समझा जाना सही विचार नहीं है.
वकील क्लिफ़्टन ड्रोजारियो अविश्वास की बात पर प्रोफेसर गुप्ता से सहमत हैं. उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा, "कल छत्तीसगढ़ के एक लड़के ने मुझसे कहा- बहुत हो गया तमाशा, सरकार का. सरकार से ज़्यादा हमें अपने पांवों पर भरोसा है. लोगों का पहला भरोसा तो यही टूटा है कि सरकार उनके लिए कुछ करेगी, इस पर उनका यक़ीन नहीं रहा."
ड्रोजारियो के मुताबिक, "भरोसा टूटने की दूसरी वजह उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों ने दिया है जहां श्रम क़ानून को ही निलंबित कर दिया गया है. वहां के अध्यादेश के मुताबिक तीन साल के लिए श्रम क़ानून को निलंबित कर दिया गया है. इसका मतलब यही है कि आप बंधुआ मज़दूरी और गुलामी को संस्थागत रूप दे रहे हैं. प्रवासी मज़दूरों की वास्तिवक स्थिति और उनके उत्पीड़न की सामाजिक सच्चाई का पता एक महामारी के प्रकोप में चल रहा है. यह बताता है कि सरकार अपने लोगों को कैसे और कितना समझती है. इसलिए सरकार पर लोगों का कोई भरोसा नहीं रहा है."

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