भारत में धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र के विचार पर निरंतर हमला हो रहा है: फ़रीद ज़करिया

 


  • ज़ुबैर अहमद
  • बीबीसी संवाददाता
फ़रीद ज़करिया

अभी हाल ही में मैंने झारखंड के शहर हज़ारीबाग़ के दौरे पर लोगों को ये कहते सुना कि कोरोना वायरस, 'चीनी वायरस' है. यहाँ दिल्ली में भी ये बात सुनाई दी. अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप आज भी इसे चीनी वायरस ही कहते हैं.

दुनिया के कई हिस्सों में धारणा है कि कोरोना वायरस एक चीनी वायरस है. वायरस चीन से आया है, इस पर किसी को संदेह नहीं है लेकिन इसका ज़िम्मेदार चीन ही है, इस पर मतभेद है.

भारतीय मूल के प्रसिद्ध अमेरिकी लेखक और बुद्धिजीवी फ़रीद ज़करिया महामारी की ज़िम्मेदारी किसी एक देश पर थोपने के बजाय चाहते हैं कि हम सब इससे कुछ सबक़ सीखें क्योंकि उनका तर्क है कि 'अगला वायरस भारत या किसी और देश से भी शुरू हो सकता है.'

मुंबई में जन्मे फ़रीद ज़करिया की "द पोस्ट अमेरिकन वर्ल्ड" और "द फ़्यूचर ऑफ़ फ़्रीडम" जैसी किताबों के बाद अब उनकी नई किताब आई है.

अपनी नई किताब "टेन लेसन्स फ़ॉर ए पोस्ट-पैंडेमिक वर्ल्ड" में उन्होंने कोरोना महामारी के बाद की दुनिया के लिए कुछ सीखों का ज़िक्र किया है.

ज़कारिया साल 1980 के दशक में अमेरिका चले गए थे और उन्होंने हार्वर्ड विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान में डॉक्टरेट किया.

फ़रीद ज़करिया को साल 2010 में भारत सरकार ने पद्म भूषण से सम्मानित किया. ज़कारिया पर साल 2012 में प्लैजरिज़्म (नकल) के आरोप भी लगे जिसके लिए उन्होंने माफ़ी मांगी.

फ़रीद ज़करिया के मुताबिक़ दुनिया भर में तेज़ी से हो रहे शहरीकरण ने बहुत से जानवरों के प्राकृतिक आवासों को नष्ट किया है. जंगल खत्म हो रहे हैं और जानवर इंसानों के रिहायशी इलाक़ो के पास पहुंच रहे हैं. इसलिए पशु और मानव आवास एक दूसरे के नज़दीक होते जा रहे हैं और जानवरों में मौजूद वायरस इंसानों तक पहुँच रहे हैं.

कोरोना वायरस को फैलाने के लिए ज़िम्मेदार माने जाने वाले चमगादड़ों का उदाहरण देते हुए वो कहते हैं कि मीट के लिए चीन में उनका इस्तेमाल काफ़ी बढ़ गया था और चमगादड़ों में कई तरह के वायरस होते हैं.

उनके हिसाब से शायद इंसानों के खान-पान में कोई बदलाव लाने की ज़रुरत है.

वो कहते हैं, "हमें ख़ुद से पूछना होगा कि क्या हम अधिक सुरक्षित रूप से जी सकते हैं? यह इस महामारी की ख़ास सीखों में से एक है."

इस नई किताब में एक बात साफ़ तौर पर कही गई है कि महामारी के बाद अवसर और चुनौतियाँ दोनों ही होंगी.

वुहान

एक पुरानी कहावत है -हर बुराई में अच्छाई छिपी है. दूसरे शब्दों में, हर संकट एक अवसर है.

महामारी से हमने क्या सबक़ सीखा है? इस विषय पर फ़रीद ज़करिया ने एक पूरी किताब ही लिख डाली, जिसका नाम है: Ten Lessons for a PostPandemic World (महामारी के बाद की दुनिया के लिए 10 नसीहतें).

इस किताब में कही गई बातों का सारांश यह है कि एक दिन आएगा जब दुनिया में कोरोना वायरस नहीं होगा, तब दुनिया अलग होगी जिसमें हमारे लिए चुनौतियाँ भी होंगी लेकिन अवसर भी.

नरेंद्र मोदी

महामारी से कमज़ोर हुआ लोकतंत्र?

अमेरिका के न्यूयॉर्क से बीबीसी से हुई बातचीत में फ़रीद ज़करिया कहते हैं कि भारत और अमेरिका कोराना के फैलाव से ठीक तरह से निपटने में नाकाम रहे हैं जिससे लोकतंत्र कमज़ोर हुआ है.

वो कहते हैं, "इस महामारी से हमने एक सबक़ ये भी सीखा है कि लोकतंत्र बहुत नाज़ुक है. अगर आप इसका दुरुपयोग करते हैं तो यह लोकतंत्र की गुणवत्ता को नुक़सान पहुँचाता है, फिर चाहे वो भारत हो या अमेरिका.''

लोकतंत्र को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार के रिकॉर्ड से ज़कारिया काफ़ी चिंतित हैं.

वो कहते हैं, "दुनिया भर में स्वतंत्र पर्यवेक्षकों की एक बड़ी संख्या यह देख रही है कि भारत में क्या हो रहा है और उनका मानना है कि भारतीय लोकतंत्र की गुणवत्ता में गिरावट दिख रही है. पर्यवेक्षक एक व्यक्ति, एक पार्टी और एक सत्तारुढ़ गठबंधन की केंद्रीय शक्ति का उदय देख रहे हैं."

हालाँकि हाल ही में दिल्ली में नए संसद भवन की आधारशिला समारोह के मौके पर प्रधानमंत्री मोदी ने भारतीय लोकतंत्र की सराहना की.

उन्होंने कहा कि भारतीय लोकतांत्रिक परंपराएं मैग्ना कार्टा से पहले की हैं. मैग्ना कार्टा 13 वीं सदी का वो दस्तावेज़ है जिसे कई विद्वान आधुनिक गणराज्य के ढाँचे के रूप में देखते हैं. प्रधानमंत्री ने कहा कि कि वो दिन दूर नहीं जब दुनिया भारत को 'मदर ऑफ़ डेमोक्रेसी' कहेगी.

पीएम मोदी ने प्राचीन ग्रंथों का हवाला देते हुए कहा कि लोकतंत्र दुनिया के बाकी हिस्सों में चुनाव और शासन के बारे में है लेकिन भारत में यह 'मूल्य, जीवन जीने के तरीके और राष्ट्र के जीवन की आत्मा' रहा है.

मोदी और ट्रंप

भारत और अमेरिका की तुलना

ज़कारिया यह मानते हैं कि पहले भारत में लोकतंत्र मज़बूत रहा है मगर उनकी नज़रों में अब यह कमज़ोर हो रहा है.

यह पूछे जाने पर कि वो अमेरिका से भारत को किकैसे देखते हैं, उन्होंने कहा, "मुझे लगता है कि भारत में उसके धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र के विचार पर निरंतर हमला हो रहा है, जो भारत में परवरिश पाने वाले मेरे जैसे व्यक्ति के लिए बहुत दुख की बात है, क्योंकि धर्मनिरपेक्षतावाद भारत का एक ख़ास आकर्षण रहा है."

मुंबई में पैदा हुए और पले बढ़े फ़रीद ज़करिया के पिता रफ़ीक़ ज़करिया एक इस्लामिक विद्वान और कांग्रेस पार्टी के नेता थे. उनकी माँ फ़ातिमा ज़करिया एक पत्रकार थीं. वो कुछ समय के लिए 'संडे टाइम्स' की संपादक भी रही थीं.

ज़करिया को भारत के धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र और विविधता पर गर्व है.

वो दुनिया के दो सब से बड़े लोकतांत्रिक देशों के समाज की तुलना कुछ यूँ करते हैं, "1980 के दशक में जब मैं अमेरिका आया तो मैं ने एक जगमगाता देश देखा. अमेरिका जितना अमीर था , भारत उतना ही ग़रीब. दोनों के बीच फ़ासले आज की तुलना में काफ़ी बड़े थे. लेकिन एक बात जो मैं ने यहाँ आकर महसूस की थी वो ये कि अमेरिकी समाज खुला और सहिष्णु ज़रूर था लेकिन ये भारत से अलग था. अमेरिकी एक दूसरे के धार्मिक और नस्लीय मतभेदों को सहन करते थे लेकिन वो एक दूसरे से घुले-मिले नहीं थे."

ज़कारिया कहते हैं, "मैं जब भारत में बड़ा हो रहा था तो मेरा परिवार दीवाली और होली मनाता था. हमारे यहाँ ईद में आने वाले लोग दूसरे धर्मों के होते थे. हम एक-दूसरे के त्यौहार और संस्कृति में शामिल होते थे. विविधता के इस जश्न को नष्ट किया जा रहा है. उस विविधता को नष्ट किया जा रहा है जो दुनिया में अनोखी है."

वो अपने तर्क को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं, "मैं कभी-कभी लोगों को भारत के पहले मंत्रिमंडल की तस्वीर दिखाता हूँ जिसमे आप राजकुमारी अमृत कौर, सरदार वल्लभ भाई पटेल, मौलाना आज़ाद और जवाहरलाल नेहरू को देख सकते हैं, इनमें से हर एक अलग भाषा और देश के अलग प्रान्त का प्रतिनिधित्व कर रहे थे. वो सब एक साथ जुड़े और उस समय लोकतंत्र को बनाए रखना एक चमत्कार से कम नहीं रहा होगा."

फ़रीद ज़करिया के अनुसार अब भारत में लोकतंत्र कमज़ोर हो रहा है.

वो कहते हैं, "आप लव जिहाद का उदाहरण लीजिये. ज़ाहिर है कि यह असंवैधानिक है. आप दो राज़ी बालिग़ लोगों के बीच विवाह पर प्रतिबंध कैसे लगा सकते हैं?"

लोकतंत्र के कमज़ोर होने के डर पर उन्होंने और भी उदाहरण दिए.

उन्होंने कहा, ''जिस तरह से प्रेस को दबाया जा रहा है और जिस तरह से अदालतों की निष्पक्षता घट रही है...ये सब लोकतंत्र के कमज़ोर होने की तरफ़ इशारा करते हैं."

बाइडन-हैरिस

बाइडन प्रशासन में भारत-अमेरिका के रिश्ते कैसे होंगे?

राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बीच गर्मजोशी वाले रिश्ते के कारण हाल के सालों में दोनों देश एक दूसरे के और नज़दीक आये हैं. राष्ट्रपति ओबामा से भी मोदी के रिश्ते अच्छे थे.

क्या जो बाइडन से भी मोदी निजी रिश्ते बनाने में कामयाब होंगे?

फ़रीद ज़करिया इसका जवाब मुस्कुराते हुए देते हैं. वो कहते हैं,"मोदी को ट्रंप से प्यार था और ट्रंप को मोदी से. मुझे लगता है कि उन्होंने एक-दूसरे में समान शख़्सियत देखी -- ताक़तवर पुरुष, लोकलुभावन (पाप्युलिस्ट) और राष्ट्रवादी नेता."

ज़करिया के मुताबिक़ वॉशिंगटन में भारत पर दोनों दलों की सहमति है. यानी राष्ट्रपति रिपब्लिकन पार्टी का हो या डेमोक्रेटिक पार्टी का, भारत के प्रति उनकी विदेश नीति ज़्यादा अलग नहीं होती. ॉ

वो कहते हैं कि भारत अपना रवैया 'अनिच्छुक दुल्हन' की तरह रखता है. अगर भारत चाहता है कि चीन के उदय का मुक़ाबला और देशों क साथ मिलकर करना है तो अमेरिका के साथ एक रणनीतिक साझेदारी बनानी पड़ेगी.

ज़करिया कहते हैं, "देखिए, अमेरिका के लोगों ने भारत को हमेशा पसंद किया है क्योंकि ये उनके देश की तरह एक बड़ा और अराजक लोकतंत्र है. अमेरिकी चीन को नहीं समझते हैं इसलिए भारत के प्रति उनका हमेशा एक स्वाभाविक झुकाव रहा है."

हालाँकि ज़करिया मोदी सरकार की तरफ़ से रिश्ते में गहराई लाने में हिचकिचाहट पर थोड़ी मायूसी जताते हैं.

वो कहते हैं, "समस्या ये है कि भारत ने अमेरिका के साथ घनिष्ठ संबंध रखने के लिए रणनीतिक निर्णय नहीं लिया है. भारत को अमेरिका की ज़रूरत ज़्यादा है. पिछले 25 वर्षों में एकमात्र भारतीय सरकार जो विदेश नीति के बारे में रणनीतिक दृष्टिकोण रखती थी, वो मनमोहन सिंह की सरकार थी.''

''मनमोहन सरकार ने अमेरिका से कहा कि हम चाहते हैं कि आप हमारे परमाणु कार्यक्रम को वैध बताएं और उन्हें ये मिल गया. उन्होंने माँगा और उन्हें मिल गया. भारत (मोदी सरकार को) को अब कुछ ऐसा ही करने की ज़रूरत है."

अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव की मुहिम के दौरान जो बाइडन, कमला हैरिस (उप-राष्ट्रपति) और अंटोनी ब्लिंकेन (विदेश मंत्री) ने भारत के मानवाधिकार के रिकॉर्ड और इसकी कश्मीर नीति जैसे मुद्दे उठाए थे लेकिन अब वो सत्ता में आ रहे हैं तो क्या उनके लिए ये मुद्दे उठाना अब कठिन होगा?

इसके जवाब में फ़रीद ज़करिया कहते हैं, "मेरे विचार में तीनों ही इन मुद्दों को उठाएंगे क्योंकि ये वास्तविक मुद्दे हैं और लोकतंत्र के रूप में भारत को इन मुद्दों पर किसी भी बातचीत का स्वागत करना चाहिए. लोकतंत्र की जाँच क्यों नहीं होनी चाहिए? मुझे लगता है कि भारत की सबसे दुखद बातों में से एक है-विदेशी फ़ाउंडेशन, विदेशी पत्रकारों और सवाल करने वाले विदेशी सरकारों के ख़िलाफ़ एक अजीब से राष्ट्रवादी तत्वों का कड़ा विरोध करना."

ज़करिया के अनुसार नया अमेरिकी प्रशासन भारत के साथ नज़दीकी संबंध बनाये रखने के लिए बाध्य होगा.

वो कहते हैं, "मुझे नहीं लगता कि अमेरिकी प्रशासन उन मानवाधिकार चिंताओं को भारत के साथ घनिष्ठ संबंध की राह में आने देगा. वो जानते हैं कि भारत एक लोकतंत्र है, लेकिन वो भारतीय लोकतंत्र की गुणवत्ता को लेकर चिंतित हैं और उन्हें होना भी चाहिए."

मनमोहन सिंह और ओबामा

महामारी के बाद भारत किस रास्ते पर जाएगा?

फ़रीद ज़करिया ने अपनी किताब के आख़िर में लिखा है कि लोग कुछ भी कहें, कुछ भी सलाह सामने रखें महामारी के बाद अलग-अलग देश और समाज अपने हिसाब से आगे का रास्ता तय करेंगे.

महामारी के बाद भारत क्या रास्ता तय करेगा? आत्मनिर्भरता पर भारत सरकार द्वारा ज़ोर दिए जाने को नकारते हुए वो कहते हैं कि भारत इस समय दो अलग-अलग आयामों पर एक चौराहे पर खड़ा है.

वो कहते हैं, "एक चौराहा यह है कि क्या भारत वास्तव में पूर्वी एशियाई देशों की अथर्थव्यवस्थाओं के विकास का अनुकरण करने की कोशिश करना चाहता है? अगर हाँ, तो इसे आर्थिक सुधार के बारे में गंभीर होने की ज़रूरत है. अगर इसे सही मायने में ग़रीबी मिटाना है तो आर्थिक नीति के बारे में गंभीर होने की ज़रूरत है."

फ़रीद ज़करिया कहते हैं, "भारत जिस दूसरे चौराहे पर जो खड़ा है, वो है इसका लोकतंत्र. क्या भारत नाम के वास्ते अधिक और वास्तविक रूप से कमज़ोर लोकतंत्र बन कर रहना चाहता है? क्या ये, जैसा कि लेखक एलेक्सिस डी टोकेविल ने कहा था, एक बहुमत के अत्याचार वाला लोकतंत्र बनना चाहता है? दूसरे शब्दों में, आपके पास बहुमत है लेकिन उस बहुमत से आप धार्मिक, जाति और भाषाई अल्पसंख्यकों पर अपनी इच्छा को लागू करना चाहते हैं. लोकतंत्र कुछ हद तक समझौता, सहिष्णुता और सम्मान पर निर्भर होता है."

वो कहते हैं, "मुझे उम्मीद है कि ये सब नहीं होगा क्योंकि भारत एक विशाल देश है जिसमें सहनशीलता और विविधता है. लेकिन चिंता की बात ये है कि इनके (बहुमत की इच्छा को थोपने के) संकेत मिलने शुरू हो चुके हैं."

https://www.bbc.com/hindi

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