किसान प्रदर्शन किस हालत में है और यूपी चुनाव में क्या बड़ी भूमिका निभा पाएगा?

 


  • समीरात्मज मिश्र
  • बीबीसी हिंदी के लिए
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आपातकाल की 46वीं वर्षगांठ के मौक़े पर तीन कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ सात माह से आंदोलन कर रहे किसानों ने राजभवनों का घेराव करने, ट्रैक्टर रैलियां निकालने और धरना-प्रदर्शन का ऐलान किया है.

संयुक्त किसान मोर्चा इस दिन को 'खेती बचाओ, लोकतंत्र बचाओं दिवस' के तौर पर मना रहा है.

संगठन ने अपने एक बयान में कहा है कि किसान राज्यपाल के माध्यम से भारत के राष्ट्रपति को खेती क़ानूनों के ख़िलाफ़ ज्ञापन भेजेंगे.

सहारनपुर से चले किसान ग़ाज़ीपुर पहुंच रहे

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उत्तर प्रदेश में सहारनपुर से चलकर ग़ाज़ीपुर बॉर्डर तक के लिए बड़ी संख्या में किसानों के जत्थे गुरुवार को ही रवाना हो गए थे. कुछ प्रदेश के दूसरे शहरों, गांवों और क़स्बों की तरफ़ से ग़ाज़ीपुर दिल्ली सीमा की ओर बढ़ रहे हैं.

संयुक्त किसान मोर्चा के नेता गुरनाम सिंह चढ़ूनी ने कहा है कि सात महीने से किसान सड़कों पर हैं लेकिन सरकार उनकी बात नहीं मान रही है इसलिए देश में आपातकाल की 46वीं वर्षगांठ पर किसानों ने प्रदर्शन में और तेज़ी लाने का फ़ैसला किया है.

बीबीसी से बातचीत में गुरनाम सिंह चढ़ूनी ने कहा, "केंद्र सरकार अभी भी नहीं जागी तो आगामी यूपी और उत्तराखंड विधानसभा चुनावों में बीजेपी को इसका ख़ामियाज़ा भुगतना पड़ेगा. बीजेपी सरकार ने तीनों कृषि क़ानून रद्द नहीं किए तो पश्चिम बंगाल की तरह यूपी और उत्तराखंड के चुनावों में भी किसान संगठन बीजेपी को हराने के लिए अपील करेंगे. यह आंदोलन केवल किसानों का नहीं है, बल्कि देश के हर नागरिक, व्यापारी वर्ग और म़जदूरों का भी है."

इसी साल 26 जनवरी को राजधानी दिल्ली में हुई किसानों की ट्रैक्टर रैली और उसके बाद लाल क़िले पर हुए हंगामे की वजह से किसान आंदोलन को एक झटका तो लगा था लेकिन दो दिन बाद ही ग़ाज़ीपुर बॉर्डर पर भारतीय किसान यूनियन के प्रवक्ता राकेश टिकैत के साथ पुलिस की कथित बदसलूकी और फिर उनके आह्वान के बाद आंदोलन में फिर से गर्मी आ गई थी.

आंदोलन सुस्त पड़ चुका है?

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हालांकि एक राय रही है कि कोरोना संक्रमण की वजह से पिछले दो महीने से दिल्ली की सीमाओं पर किसान भले ही जुटे हैं लेकिन आंदोलन निष्क्रिय सा हो गया है.

लेकिन राकेश टिकैत कहते हैं, "आंदोलन सिर्फ़ मीडिया की निगाह में कमज़ोर हुआ होगा, किसानों की तरफ़ से कभी कमज़ोर नहीं हुआ. हम हर महीने की 26 तारीख़ को अब ट्रैक्टर मार्च निकालने की तैयारी में हैं. किसान ख़राब मौसम में भी सीमाओं पर डटे हुए हैं. कोरोना काल में हमने इसलिए आंदोलन को तेज़ नहीं किया ताकि लोगों को परेशानी न हो. लेकिन अब कोरोना का संक्रमण कम हो चुका है, इसलिए हम आंदोलन को फिर तेज़ करेंगे."

सात माह से चल रहे आंदोलन के बावजूद किसान केंद्र सरकार पर दबाव बनाने में नाकाम रहे हैं. जनवरी तक सरकार और किसानों के बीच 11 दौर की वार्ताएं हुईं लेकिन अब वो भी बंद हैं.

पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनावों की तर्ज़ पर आंदोलनकारी किसान उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान भी बीजेपी के विरोध की तैयारी कर रहे हैं.

राकेश टिकैत साफ़तौर पर कह चुके हैं कि उनका संगठन चुनाव नहीं लड़ेगा लेकिन बीजेपी के ख़िलाफ़ प्रचार करेगा. लेकिन तब सवाल ये पूछा जा रहा है कि क्या वो किसी के पक्ष में प्रचार करेंगे?

इसके जवाब में किसान यूनियन के नेता बस इतना ही कहते हैं कि 'यह समय आने पर पता चल जाएगा.'

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वरिष्ठ पत्रकार सिद्धार्थ कलहंस कहते हैं, "यूपी में किसान यूनियन का ख़ासतौर पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में प्रभाव है. पंचायत चुनावों में उनका समर्थन राष्ट्रीय लोकदल को था और आरएलडी और समाजवादी पार्टी का गठबंधन है. विधानसभा चुनाव भी में यही बना रहेगा, ऐसी उम्मीद है. क्योंकि इसका लाभ एसपी और आरएलडी दोनों को ही पंचायत चुनाव में मिला है. रही बात, शेष यूपी की, तो उसके लिए यूनियन की औपचारिक घोषणा का इंतज़ार करना पड़ेगा. यह भी संभव है कि किसान यूनियन सिर्फ़ बीजेपी के विरोध की बात करें, किसी एक दल को समर्थन की बात न करे, सिवाय पश्चिमी यूपी के."

संयुक्त किसान मोर्चा के एक वरिष्ठ पदाधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर कहा है कि 'इस बारे में रणनीति बन गई है और समर्थन के बारे में फ़ैसला भी लगभग हो चुका है, जल्दी ही घोषणा भी कर दी जाएगी.'

आरएलडी को मिली ताक़त

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साल 2013 में हुए मुज़फ़्फ़रनगर दंगे के बाद से ही अस्तित्व तलाश रही राष्ट्रीय लोकदल को भी किसान आंदोलन से जैसे संजीवनी मिल गई है. पश्चिमी उत्तर प्रदेश के क़रीब एक दर्जन ज़िलों में अच्छा-ख़ासा राजनीतिक प्रभाव रखने वाली इस पार्टी की अहमियत साल 2013 के बाद काफ़ी कम हो गई थी लेकिन किसान आंदोलन के बाद हुए पंचायत चुनाव में पार्टी की सफलता से इस बात के संकेत मिलते हैं कि इसका असर विधानसभा चुनाव में भी रहेगा.

वरिष्ठ पत्रकार शरद मलिक कहते हैं कि पिछले कुछ दिनों से आरएलडी में उन नेताओं की दोबारा वापसी हो रही है जो पिछले कुछ सालों में दूसरी पार्टियों में चले गए थे.

शरद मलिक कहते हैं, "किसान आंदोलन के बाद आरएलडी नेताओं की सक्रियता बढ़ी है. शुरुआत में जयंत चौधरी की रैलियों और पंचायतों से पार्टी मज़बूत होनी शुरू हुई और फिर पंचायत चुनाव में मिले जन समर्थन ने पार्टी कार्यकर्ताओं का उत्साह और बढ़ा दिया है. कई बड़े नेता लगातार आरएलडी में शामिल हो रहे हैं और यह सिलसिला आगे भी जारी रहेगा."

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राष्ट्रीय लोकदल के राष्ट्रीय अध्यक्ष जयंत चौधरी ने पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखा था.

बीबीसी से बातचीत में जयंत चौधरी कहते हैं, "किसानों ने लॉकडाउन में देश की जनता का पेट भरा और अर्थव्यवस्था को अपने कंधे पर थामे रखा लेकिन वही किसान अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ने को मजबूर हैं. प्रधानमंत्री ने किसानों से कहा था कि वो उनसे सिर्फ़ एक फ़ोन कॉल की दूरी पर हैं लेकिन सात महीने बीत गए, ये दूरी कम नहीं हो पाई. सरकार की इस हठधर्मिता का जवाब किसान और देश की जनता देगी."

जहां तक राज्य में सत्तारूढ़ बीजेपी का सवाल है तो पंचायत चुनाव के नतीजों और किसान आंदोलन के प्रभाव से वो चिंतित ज़रूर है लेकिन इस चिंता को वो ज़ाहिर नहीं कर रही है.

प्रदेश बीजेपी का क्या है सोचना

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राज्य बीजेपी के नेता इस बारे में ज़्यादा बात करने से परहेज़ कर रहे हैं लेकिन दबी ज़ुबान में यह ज़रूर स्वीकार करते हैं कि कोविड संक्रमण के दौरान सरकारी रवैये और किसान आंदोलन की वजह से पंचायत चुनाव में पार्टी को नुक़सान हुआ है.

पार्टी के एक वरिष्ठ नेता नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं कि पिछले दिनों राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और बीजेपी संगठन की जो ताबड़तोड़ बैठकें हुईं, उनमें भी इन मुद्दों की प्रमुखता से चर्चा हुई है.

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उनके मुताबिक़, "किसान आंदोलन की तोड़ निकालने की अभी कोई योजना तो नहीं बनी है लेकिन जल्दी ही कुछ न कुछ ज़रूर होगा. फ़िलहाल तो पार्टी जातीय समीकरणों को साधने में लगी है."

भारतीय किसान यूनियन का संगठन जितना पश्चिमी उत्तर प्रदेश में संगठित और मज़बूत है उतना राज्य के अन्य हिस्सों में नहीं है लेकिन इन जगहों पर दूसरे किसान संगठन प्रभावी हैं.

लेखक और किसान क्रांति दल के नेता अमरेश मिश्र कहते हैं कि इन संगठनों का प्रभाव भले ही सीमित क्षेत्र में हो लेकिन जहां भी है, वहां उपस्थिति काफ़ी दमदार है.

अमरेश मिश्र कहते हैं, "बुंदेलखंड, मध्य यूपी का अवध क्षेत्र और पूर्वांचल में भी कृषि क़ानूनों को लेकर किसानों में नाराज़गी है. कृषि क़ानूनों के अलावा गन्ने का मूल्य, गेहूं ख़रीद और तमाम अन्य ऐसे मुद्दे हैं जिनसे किसान सरकार से बेहद नाराज़ है. किसान किसी एक वर्ग या समुदाय से नहीं बल्कि हर समुदाय से आता है. इसलिए किसानों की नाराज़गी की उपेक्षा नहीं की जा सकती."

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