दिल्ली दंगा: घायल युवकों को राष्ट्रगान गाने के लिए मजबूर करने वाले तीन पुलिसकर्मियों की पहचान

 


पिछले साल दंगों के दौरान एक वीडियो वायरल हुआ था, जिसमें घायल अवस्था में पांच युवक ज़मीन पर पड़े हुए नज़र आते हैं. कम से कम सात पुलिसकर्मी युवकों को घेरकर राष्ट्रगान गाने के लिए मजबूर करने के अलावा उन्हें लाठियों से पीटते हुए नज़र आते हैं. इनमें से एक युवक की मौत हो गई थी, जिसकी पहचान 23 साल के फ़ैज़ान के रूप में होती है. उनकी मां का कहना था कि पुलिस कस्टडी में बेरहमी से पीटे जाने और समय पर इलाज न मिलने से उनकी जान गई.

(फोटो: पीटीआई)

नई दिल्ली: पिछले साल के उत्तर-पूर्वी दिल्ली दंगों के दौरान पांच घायल युवकों को दिल्ली पुलिस के कुछ कर्मचारियों द्वारा कथित तौर पर राष्ट्रगान गाने के लिए मजबूर करने के मामले में तीन पुलिसकर्मियों की पहचान कर ली गई है.

इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, यह घटना वीडियो में कैद हो गई थी, जिसमें से एक घायल की बाद में मौत हो गई थी. सूत्रों ने कहा कि दिल्ली आर्म्ड पुलिस (डीएपी) में तैनात तीनों पुलिसकर्मियों का लाई-डिटेक्टर टेस्ट किया जाएगा.

क्राइम ब्रांच की विशेष जांच इकाई ने 100 से अधिक पुलिसकर्मियों से पूछताछ की और दंगों के दौरान बाहर से तैनात पुलिसकर्मियों की ड्यूटी चार्ट्स के साथ अनेकों दस्तावेजों की जांच की.

एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा, ‘करीब 17 महीने बाद पुलिस ने तीन पुलिसकर्मियों की पहचान की है और वरिष्ठ अधिकारियों को सूचित कर दिया गया है. उनकी सहमति लिए जाने के बाद एक लाई-डिटेक्टर टेस्ट किया जाएगा.’

इससे पहले अखबार ने अपनी रिपोर्ट में बताया था कि 25 फरवरी, 2020 को जिस 66 फुटा रोड पर घटना हुई थी, उसके कारण पुलिस का काम मुश्किल हो गया था, क्योंकि वह जगह तीन से चार पुलिस स्टेशन से घिरा हुआ है और उन जगहों के भी पुलिसकर्मियों को दंगों को रोकने के लिए लगाया गया था.

एक अधिकारी ने कहा, ‘दूर से रिकॉर्ड किए गए एक वीडियो की जांच करने पर जांचकर्ताओं ने पाया कि एक कर्मचारी आंसू गैस का हथियार (टीएसएम) लिए हुए थे. जब भी कोई बल तैनाती के लिए जाता है, तब पुलिसकर्मियों को उनकी इकाई से उनके नाम पर टीएसएम जारी किया जाता है.’

उन्होंने कहा, ‘जांच अधिकारी ने उस दिन टीएसएम जारी करते समय दर्ज किए गए नामों को सत्यापित करने के लिए क्षेत्र के बाहर से बलों के रजिस्टर की जांच की. फुटेज और एक एंट्री के आधार पर उन्होंने पहले डीएपी में तैनात एक कर्मचारी की पहचान की. उसे पूछताछ के लिए बुलाया गया और बाद में उसके दो सहयोगियों को दरियागंज स्थित उनके दफ्तर में पूछताछ के लिए एसआईटी द्वारा समन किया गया.’

वीडियो में कैद युवक को जन गण मन के साथ-साथ वंदे मातरम गाने के लिए मजबूर किया गया और जिसकी बाद में मृत्यु हो गई, उसकी पहचान कर्दमपुरी निवासी 23 साल के फैजान के रूप में हुई. पुलिस उन्हें ज्योति नगर पुलिस स्टेशन लेकर गई थी जहां से रिहा होने के अगले दिन उनकी एक अस्पताल में मौत हो गई थी.

फैजान की गिरफ्तारी से पहले एक वीडियो वायरल हुआ था, इस वीडियो में घायल अवस्था में फैजान सहित पांच युवक जमीन पर पड़े हुए नजर आते हैं. कम से कम सात पुलिसकर्मी युवकों को घेरकर राष्ट्रगान गाने के लिए मजबूर करने के अलावा उन्हें लाठियों से पीटते हुए नजर आते हैं.

फैजान की मौत के बाद उनकी मां किस्मातुन ने द वायर को बताया था कि पुलिस कस्टडी में बेरहमी से पीटे जाने और समय पर इलाज न मिलने से उनकी जान गई. इस मामले की एसआईटी जांच और आरोपियों को सजा दिलाने के लिए किस्मातुन ने दिल्ली हाईकोर्ट में याचिका दायर की है.

वीडियो में कैद दो अन्य लोगों के परिवारवालों ने बताया था कि वीडियो कर्दमपुरी में 24 फरवरी की शाम को बनाया गया था.

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हिंदी सिनेमा अभी भी जाति के मुद्दों पर विशिष्ट चुप्पी बनाए रखना पसंद करता है: अमोल पालेकर

12 साल के लंबे अंतराल के बाद फिल्मों में वापसी कर रहे दिग्गज अभिनेता अमोल पालेकर का मानना है कि हिंदी सिनेमा में जाति को एक मुद्दे के रूप में शायद ही कभी उठाया जाता है. उन्होंने कहा कि इस तरह के विषय परेशान करने वाले होते हैं और परंपरागत रूप से मनोरंजक नहीं होते हैं. निर्माता अपनी सिनेमाई यात्रा के दौरान ऐसी फिल्मों को बनाने से कतराते हैं.

अमोल पालेकर (फोटो: File photo/Commons)

मुंबई: फिल्म ‘200-हल्ला हो’ के माध्यम से 12 साल के लंबे अंतराल के बाद फिल्मों में वापसी कर रहे दिग्गज अभिनेता अमोल पालेकर का मानना ​​है कि हिंदी सिनेमा में जाति को एक मुद्दे के रूप में शायद ही कभी उठाया जाता है, क्योंकि यह पारंपरिक रूप से मनोरंजक मुद्दा नहीं है.

फिल्म ‘200-हल्ला हो’ दलित महिलाओं की सच्ची कहानी से प्रेरित है, जिसने एक बलात्कारी पर खुली अदालत में हमला किया था.

सार्थक दासगुप्ता द्वारा निर्देशित और दासगुप्ता और गौरव शर्मा द्वारा सह-लिखित फिल्म 200 दलित महिलाओं की नजरों के माध्यम से यौन हिंसा, जाति उत्पीड़न, भ्रष्टाचार और कानूनी खामियों के मुद्दों को छूती है.

1970 के दशक में ‘रजनीगंधा’, ‘चितचोर’, ‘छोटी सी बात’, ‘गोलमाल’ जैसी हिंदी फिल्मों के नायक पालेकर ने कहा कि निर्माता आमतौर पर ऐसे ‘परेशान करने वाले’ विषयों से कतराते हैं.

पालेकर ने एक ईमेल साक्षात्कार में बताया, ‘इस फिल्म की कहानी में जाति के मुद्दों को उठाया गया है, जो भारतीय सिनेमा में अदृश्य रहे हैं. इस तरह के विषय परेशान करने वाले होते हैं और परंपरागत रूप से ‘मनोरंजक’ नहीं होते हैं. निर्माता अपनी सिनेमाई यात्रा के दौरान इस तरह की फिल्मों को बनाने से कतराते हैं.’

मराठी और तमिल सिनेमा में जाति के मुद्दों को सफलतापूर्वक उठाया गया है. नागराज मंजुले की ‘फंदरी’ और ‘सैराट’ और पा रंजीत की ‘काला’ और ‘सरपट्टा परंबरई’ जैसी फिल्मों में इसे दिखाया गया है.

नीरज घेवान की ‘मसान’ और ‘गीली पुच्ची’ को छोड़कर, हिंदी मुख्यधारा के सिनेमा में जाति का मुद्दा काफी हद तक अदृश्य रहा है. नेटफ्लिक्स पर आई फिल्म ‘अजीब दास्तां’ में इसे दिखाया गया है.

अमोल पालेकर ने कहा कि हिंदी फिल्म उद्योग अभी भी ‘ब्राह्मणवादी सौंदर्यशास्त्र’ से बाहर आने से इनकार करता है.

उन्होंने कहा, ‘हिंदी सिनेमा अभी भी जाति के मुद्दों पर एक विशिष्ट चुप्पी बनाए रखना पसंद करता है. हमारा फिल्म उद्योग ब्राह्मणवादी सौंदर्यशास्त्र से बाहर आने से इनकार करता है. एक प्रेम कहानी के माध्यम से जाति विभाजन के विषयों को पेश किया जाता था. हालांकि उत्पीड़न दिखाया जाता था, लेकिन उसका अंत बहुसंख्यकों को खुश करने वाला होता था.’

उन्होंने आगे कहा, ‘औरतों की कहानी सब-टेक्सट (मूल कहानी के पीछे रखा जाता था) का हिस्सा हुआ करती थीं. ओटीटी प्लेटफॉर्म के आगमन के साथ महिला केंद्रित विषयों को देखा जा रहा है. महिला पात्रों को सार्थक और प्रमुख भूमिकाएं मिल रही हैं. यह सब एक सुखद बदलाव है.’

आमिर खान अभिनीत फिल्म ‘लगान’, तापसी पन्नू की ‘पिंक’ और ‘थप्पड़’ जैसी फिल्मों का उदाहरण देते हुए थियेटर, फिल्मों, टीवी और कला से जुड़े 76 वर्षीय अभिनेता का मानना है कि एक माध्यम के रूप में सिनेमा में लोगों के दिल को छूने की ‘अद्भुत शक्ति’ है.

उन्होंने कहा, ‘हमने देखा कि कैसे ‘लगान’ को सभी का प्यार मिला, हमने देखा कि कैसे ‘पिंक’ या ‘थप्पड़’ ने मिसॉजिनी (स्री जाति से द्वेष) को दर्शाया. इस तरह की फिल्मों ने मुद्दों को संबोधित किया, जिससे हम सभी को अपने पाखंड का सामना करना पड़ा.’

अमोल ने कहा कि एक निर्देशक के रूप में उन्होंने अक्सर मजबूत महिला पात्रों वाली फिल्में बनाई हैं, जिन्होंने पितृसत्ता के पारंपरिक मान्यताओं को चुनौती दी है, लेकिन उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि इस तरह के विध्वंसक मुद्दों पर और फिल्में बनाने की जरूरत है.

फिल्म ‘200-हल्ला हो’ से अमोल एक दशक बाद एक्टिंग में वापसी कर रहे हैं. अभिनेता ने कहा कि बड़े पर्दे से उनकी अनुपस्थिति का मुख्य कारण चुनौतीपूर्ण भूमिकाओं की कमी है.

उन्होंने कहा, ‘एक अभिनेता के रूप में मैं एक धूमकेतु की तरह हूं, जो एक दशक में एक बार सतह पर आता है. फिल्म के विषय के संदर्भ में पुराने अभिनेताओं को दी जाने वाली अधिकांश भूमिकाएं महत्वहीन होती हैं. मैंने हमेशा भूमिकाएं तभी स्वीकार कीं, जब उन्होंने मुझे एक अभिनेता के रूप में चुनौती दी हो या ये फिल्म में महत्वपूर्व योगदान देती हैं.’

वे कहते हैं, ‘सिर्फ पैसा कमाने के लिए अभिनय करना कभी भी मेरा लक्ष्य कभी नहीं रहा. किसी के बाप या दादा का फालतू का रोल निभाने में क्या मजा है, मैं जरूरत से ज्यादा दिखने (Overexposed) की बजाय छिपना पसंद करता हूं.’

अभिनेता की पिछली रिलीज 2009 की मराठी फिल्म सामांतर थी, जिसका उन्होंने निर्देशन भी किया था.

फिल्म ‘200-हल्ला हो’ में सैराट फेम अभिनेत्री रिंकू राजगुरु, असुर वेब सीरिज़ में काम करने वाले अभिनेता बरुण सोबती, जोगवा फेम अभिनेता उपेंद्र लिमये, अभय फिल्म के अभिनेता इंद्रनील सेनगुप्ता, फिल्म सोनी में नजर आईं सलोनी बत्रा मुख्य भूमिकाओं में हैं.

फिल्म में लोकप्रिय यूट्यूबर साहिल खट्टर बलात्कार के आरोपी की भूमिका निभा रहे हैं.

यह फिल्म 2004 में 200 दलित महिलाओं द्वारा गैंगस्टर और बलात्कारी भरत कालीचरण उर्फ अक्कू यादव की हत्या के बाद की घटना पर आधारित बताई जा रही है. फिल्म स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म ‘जी5’ पर रिलीज हुई है.

(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)

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विश्व में कोविड-19 संक्रमण के कुल मामले 21 करोड़ के पार, 44 लाख से अधिक की जान गई

भारत में कोरोना वायरस के बीते एक दिन या 24 घंटे के दौरान 36,571 नए मामले आने से संक्रमण के कुल मामलों की संख्या 3,23,58,829 पर पहुंच गई है. इस अवधि में 540 और लोगों के जान गंवाने से मृतकों का आंकड़ा बढ़कर 4,33,589 हो चुका है.

(फोटो: पीटीआई)

नई दिल्ली: भारत में कोरोना वायरस के बीते एक दिन या 24 घंटे के दौरान 36,571 नए मामले आने से संक्रमण के कुल मामलों की संख्या 3,23,58,829 पर पहुंच गई, जबकि इस बीमारी से उबरने वाले लोगों की दर 97.54 प्रतिशत हो गई, जो मार्च 2020 के बाद से सबसे अधिक है.

केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के शुक्रवार को सुबह आठ बजे तक अद्यतन आंकड़ों के अनुसार, 540 और लोगों के जान गंवाने से मृतकों की संख्या 4,33,589 पर पहुंच गई.

इस बीच अमेरिका की जॉन्स हॉपकिन्स यूनिवर्सिटी की ओर से जारी आंकड़ों के अनुसार, पूरी दुनिया में कोरोना वायरस संक्रमण के कुल मामले बढ़कर 21,00,06,573 हो गए हैं और अब तक 44,03,665 लोगों की जान जा चुकी है.

उपचाराधीन मरीजों की संख्या कम होकर 3,63,605 हो गई, जो 150 दिनों में सबसे कम है तथा संक्रमण के कुल मामलों का 1.12 प्रतिशत है, जो मार्च 2020 के बाद से सबसे कम है.

आंकड़ों के मुताबिक, 24 घंटों में कोविड-19 का इलाज करा रहे मरीजों की संख्या में 524 की कमी आई है. कोविड-19 का पता लगाने के लिए बृहस्पतिवार को 18,86,271 नमूनों की जांच की गई और इसी के साथ ही अब तक जांच किए गए नमूनों की संख्या 50,26,99,702 पर पहुंच गई है.

संक्रमण की दैनिक दर 1.94 प्रतिशत दर्ज की गई. पिछले 25 दिनों में यह तीन प्रतिशत से कम है. साप्ताहिक संक्रमण दर 1.93 प्रतिशत दर्ज की गई. पिछले 56 दिनों से यह तीन प्रतिशत से कम है. इस बीमारी से उबरने वाले मरीजों की संख्या बढ़कर 3,15,61,635 हो गई है, जबकि मृत्यु दर 1.34 प्रतिशत है.

मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक, शुक्रवार को सुबह तक देशव्यापी टीकाकरण अभियान के तहत कोविड-19 रोधी टीके की 57.22 करोड़ खुराक दी गई है.

देश में बीते 24 घंटे के दौरान जिन 540 और लोगों ने जान गंवाई है उनमें से 197 की मौत केरल में और 154 की महाराष्ट्र में हुई.

इस महामारी से अब तक कुल 4,33,589 लोगों की मौत हो चुकी है. इनमें से सबसे अधिक 1,35,567 लोगों की मौत महाराष्ट्र में, 37,088 की कर्नाटक में, 34,639 की तमिलनाडु में, 25,079 की दिल्ली में, 22,789 की उत्तर प्रदेश में, 19,246 की केरल में और 18,337 लोगों की मौत पश्चिम बंगाल में हुई.

स्वास्थ्य मंत्रालय ने बताया कि 70 प्रतिशत से अधिक लोगों की मौत मरीजों के अन्य बीमारियों से पीड़ित होने के कारण हुईं.

आंकड़ों के मुताबिक, देश में 110 दिन में कोविड-19 के मामले एक लाख हुए थे और 59 दिनों में वह 10 लाख के पार चले गए थे.

भारत में कोविड-19 संक्रमण के कुल मामलों की संख्या 10 लाख से 20 लाख (7 अगस्त 2020 को) तक पहुंचने में 21 दिनों का समय लगा था, जबकि 20 से 30 लाख (23 अगस्त 2020) की संख्या होने में 16 और दिन लगे. हालांकि 30 लाख से 40 लाख (5 सितंबर 2020) तक पहुंचने में मात्र 13 दिनों का समय लगा है.

वहीं, 40 लाख के बाद 50 लाख (16 सितंबर 2020) की संख्या को पार करने में केवल 11 दिन लगे. मामलों की संख्या 50 लाख से 60 लाख (28 सितंबर 2020 को) होने में 12 दिन लगे थे. इसे 60 से 70 लाख (11 अक्टूबर 2020) होने में 13 दिन लगे. 70 से 80 लाख (29 अक्टूबर को 2020) होने में 19 दिन लगे और 80 से 90 लाख (20 नवंबर 2020 को) होने में 13 दिन लगे. 90 लाख से एक करोड़ (19 दिसंबर 2020 को) होने में 29 दिन लगे थे.

इसके 107 दिन बाद यानी पांच अप्रैल को मामले सवा करोड़ से अधिक हो गए, लेकिन संक्रमण के मामले डेढ़ करोड़ से अधिक होने में महज 15 दिन (19 अप्रैल को) का वक्त लगा और फिर सिर्फ 15 दिनों बाद चार मई को गंभीर स्थिति में पहुंचते हुए आंकड़ा 1.5 करोड़ से दो करोड़ के पार चला गया. चार मई के बाद करीब 50 दिनों में 23 जून को संक्रमण के मामले तीन करोड़ से पार चले गए थे.

मई रहा अब तक का सबसे घातक महीना

भारत में अकेले मई में कोविड-19 की दूसरी लहर के दौरान कोरोना वायरस के 92,87,158 से अधिक मामले सामने आए थे, जो एक महीने में दर्ज किए गए संक्रमण के सर्वाधिक मामले हैं. इस तरह यह महीना इस महामारी के दौरान सबसे खराब और घातक महीना रहा था.

मई में इस बीमारी के चलते 1,20,833 लोगों की जान भी गई थी.

सात मई को 24 घंटे में अब तक कोविड-19 के सर्वाधिक 4,14,188 मामले सामने आए थे और 19 मई को सबसे अधिक 4,529 मरीजों ने अपनी जान गंवाई थी.

रोजाना नए मामले 17 मई से 24 मई तक तीन लाख से नीचे रहे और फिर 25 मई से 31 मई तक दो लाख से नीचे रहे थे. देश में 10 मई को सर्वाधिक 3,745,237 मरीज उपचाररत थे.

वायरस के मामले और मौतें

अगस्त महीने में बीते एक दिन या 24 घंटे के दौरान सामने आए संक्रमण के नए मामलों की बात करें तो बीते 19 अगस्त को 36,401, 18 अगस्त को 35,178, 17 अगस्त को 25,166, 16 अगस्त 32,937, 15 अगस्त 36,083, 14 अगस्त को 38,667, 13 अगस्त को 40,120, 12 अगस्त को 41,195, 11 अगस्त को 38,353, 10 अगस्त को 28,204, नौ अगस्त को 35,499, आठ अगस्त को 39,070, सात अगस्त 38,628, छह अगस्त को 44,643, पांच अगस्त को 42,982, चार अगस्त को 42,625, तीन अगस्त को 30,549, दो अगस्त को 40,134 और एक अगस्त को 41,831 नए मामले आए

जुलाई महीने में बीते 24 घंटे के दौरान संक्रमण के सर्वाधिक 48,786 मामले एक जुलाई को सामने आए और एक दिन में मौत के सर्वाधिक 3,998 मामले (महाराष्ट्र द्वारा आंकड़ों में संशोधन किए जाने के बाद) 21 जुलाई को दर्ज किए गए थे.

जून महीने में बीते 24 घंटे के दौरान संक्रमण के सर्वाधिक मामले तीन जून को 1,34,154 आए थे और इस अवधि में मौत के सर्वाधिक 6,148 मामले (बिहार द्वारा आंकड़ों में संशोधन किए जाने के बाद) 10 जून को सामने आए थे.

अप्रैल महीने में बीते 24 घंटे के दौरान सर्वाधिक 3,86,452 नए मामले 30 तरीख को दर्ज किए गए थे, जबकि सबसे अधिक 3,645 लोगों की मौत 29 तारीख को हुई थी.

मार्च में 24 घंटे के दौरान सर्वाधिक 68,020 मामले 29 मार्च को सामने आए थे और महामारी से जान गंवाने वाले लोगों की सर्वाधिक संख्या 31 मार्च को दर्ज की गई. इस दिन 354 लोगों की मौत हुई थी, जो साल 2021 की पहली तिमाही (जनवरी से मार्च) का सर्वाधिक आंकड़ा है.

फरवरी माह में 24 घंटे में संक्रमण के सर्वाधिक 16,738 मामले 25 फरवरी को सामने आए थे और इस महीने सर्वाधिक 138 लोगों की मौतें भी इसी तारीख में दर्ज है.

जनवरी में 24 घंटे के दौरान संक्रमण के सर्वाधिक 20,346 मामले बीते सात जनवरी को दर्ज किए गए थे. वहीं इस अवधि में सबसे अधिक 264 लोगों की मौत छह जनवरी को हुई थी.

पिछले साल छह सितंबर को संक्रमण के नए मामले पहली बार 90 हजार (90,632) के पार हो गए थे. 28 अगस्त को पहली बार 70 हजार (75,760) के पार, सात अगस्त को पहली बार 60 हजार (62,538) के पार, 30 जुलाई को पहली बार 50 हजार के पार हो गए थे.

इसी तरह पिछले साल 20 जुलाई को यह पहली बार 40 हजार के पार, 16 जुलाई को पहली बार 30 हजार के पार, 10 जुलाई को पहली बार 25 हजार (26,506) के पार, तीन जुलाई को पहली बार 20 हजार के पार, 21 जून को पहली बार 15 हजार के पार और 20 जून को संक्रमण के नए मामलों की संख्या पहली बार 14 हजार के पार हुई थी.

(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)

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तालिबान ने कहा- अफ़ग़ानिस्तान में लोकतंत्र नहीं, केवल शरिया क़ानून होगा

तालिबान के क़ब्ज़े में आने के बाद अफ़ग़ानिस्तान अब एक परिषद द्वारा शासित हो सकता है, जिसमें इस्लामी समूह के प्रमुख नेता हैबतुल्लाह अखुंदजादा प्रमुख होंगे.

अफगानिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति हामिद करजई से मुलाकात करते तालिबानी कमांडर अनस हक्कानी. (फोटो: ट्विटर/@AnasMallick)

काबुल: तालिबान के कब्जे में आने के बाद अफगानिस्तान अब एक परिषद द्वारा शासित हो सकता है जिसमें इस्लामी समूह के प्रमुख नेता हैबतुल्लाह अखुंदजादा प्रमुख होंगे. तालिबान के एक वरिष्ठ सदस्य ने इसकी जानकारी दी.

समाचार एजेंसी रॉयटर्स के अनुसार, तालिबान के फैसले लेने वाले समूह तक पहुंच रखने वाले वहीदुल्लाह हाशिमी ने एक इंटरव्यू में कहा, ‘तालिबान के अफगानिस्तान पर शासन करने के तरीकों को लेकर अभी भी कई मुद्दों पर अंतिम फैसला होना बाकी है.’

उन्होंने आगे कहा, ‘लेकिन अफगानिस्तान एक लोकतंत्र नहीं रहेगा. हम इस बात पर चर्चा नहीं करेंगे कि अफगानिस्तान में हमें किस प्रकार की राजनीतिक व्यवस्था लागू करनी चाहिए क्योंकि यह स्पष्ट है. यह शरिया कानून है और यही है.’

उन्होंने कहा, ‘लोकतांत्रिक व्यवस्था बिल्कुल नहीं होगी क्योंकि हमारे देश में इसका कोई आधार नहीं है.’

हाशिमी ने कहा कि वह तालिबान नेतृत्व की एक बैठक में शामिल होंगे जो इस सप्ताह के अंत में शासन के मुद्दों पर चर्चा करेगी.

सत्ता का ढांचा

हाशिमी ने सत्ता के ढांचे की जिस रूपरेखा को बताया है, वह उसी समान होगी जिस तरह से अफगानिस्तान को पिछली बार 1996 से 2001 तक तालिबान के सत्ता में आने पर चलाया गया था.

तब प्रमुख नेता मुल्लाह उमर सत्ता के पीछे थे और सामान्य शासन के संचालन की जिम्मेदारी एक परिषद को सौंप दी गई थी.

हाशमी ने कहा, ‘अखुंदजादा परिषद के प्रमुख की भूमिका निभा सकते हैं जो राष्ट्रपति के बराबर होगी.’

अंग्रेजी में बात करते हुए हाशमी ने कहा, ‘हो सकता है उनके (अखुंदजादा) उप प्रमुख राष्ट्रपति की भूमिका निभाएंगे.’

बता दें कि तालिबान के प्रमुख नेता के तीन उप प्रमुख मुल्ला उमर के बेटे मावलवी याकूब, शक्तिशाली चरमपंथी हक्कानी नेटवर्क के नेता सिराजुद्दीन हक्कानी और समूह के संस्थापक सदस्य और दोहा में राजनीतिक कार्यालय के प्रमुख अब्दुल गनी बरादर हैं.

नया राष्ट्रीय बल

हाशमी ने कहा, ‘तालिबान अपने रैंक में शामिल होने के लिए अफगान सशस्त्र बलों के पूर्व पायलटों और सैनिकों से भी संपर्क करेगा.’

अपदस्थ अफगान सरकार के लिए लड़ने वाले सैनिकों और पायलटों की भर्ती पर हाशिमी ने कहा कि तालिबान ने एक नया राष्ट्रीय बल स्थापित करने की योजना बनाई है जिसमें उसके अपने सदस्य और शामिल होने के इच्छुक सरकारी सैनिक शामिल होंगे.

उन्होंने कहा, ‘उनमें से अधिकांश ने तुर्की, जर्मनी और इंग्लैंड में प्रशिक्षण प्राप्त किया है. इसलिए हम उनसे अपनी पदों पर वापस आने के लिए बात करेंगे. बेशक हम कुछ बदलाव करेंगे, सेना में कुछ सुधार होंगे, लेकिन फिर भी हमें उनकी जरूरत है और हम उन्हें अपने साथ शामिल होने के लिए बुलाएंगे.’

हालांकि, यह भर्ती कितनी सफल होगी यह देखने वाली बात होगी. पिछले 20 वर्षों में तालिबान विद्रोहियों द्वारा हजारों सैनिक मारे गए हैं.

करजई ने तालिबान के वरिष्ठ नेता से मुलाकात की

अफगानिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति हामिद करजई ने तालिबान के एक गुट के शक्तिशाली एवं वरिष्ठ नेता से मुलाकात की है जिसे एक समय जेल में रखा गया था और जिसके समूह को अमेरिका ने आतंकवादी संगठन के तौर पर सूचीबद्ध किया है.

पूर्व राष्ट्रपति करजई और पदच्युत सरकार में वरिष्ठ पद पर रहे अब्दुल्ला अब्दुल्ला ने अनस हक्कानी से शुरुआती बैठकों के तहत मुलाकात की. करजई के प्रवक्ता ने बताया कि इससे अंतत: तालिबान के शीर्ष नेता अब्दुल गनी बरादर से बातचीत का आधार तैयार होगा.

अमेरिका ने हक्कानी नेटवर्क को वर्ष 2012 में आतंकवादी संगठन घोषित किया था और उनकी भविष्य के सरकार में भूमिका से अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंध लग सकते हैं.

तालिबान ने ‘समावेशी इस्लामिक सरकार’ बनाने का वादा किया है लेकिन पूर्व में इस्लाम की कट्टर व्याख्या से असहमति रखने वालों के प्रति असहिष्णुता को देखते हुए इस बारे में शंका बनी हुई है.

(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)

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गुजरात हाईकोर्ट ने धर्मांतरण विरोधी नए क़ानून की अंतरधार्मिक विवाह संबंधी धाराओं पर लगाई रोक

गुजरात सरकार की ओर से पेश हुए वकील ने कहा था कि यह क़ानून अंतरधार्मिक विवाह पर प्रतिबंध नहीं लगाता है. इस पर न्यायालय ने कहा कि संशोधित क़ानून की भाषा स्पष्ट नहीं है, नतीजतन अंतरधार्मिक विवाह करने वालों पर हमेशा तलवार लटकती रहेगी. जमीयत उलेमा-ए-हिंद की गुजरात शाखा ने पिछले महीने एक याचिका में कहा था कि क़ानून की कुछ संशोधित धाराएं असंवैधानिक हैं.

गुजरात हाईकोर्ट. (फोटो साभार: फेसबुक)

नई दिल्ली: गुजरात हाईकोर्ट ने राज्य के धर्मांतरण विरोधी नए कानून की अंतरधार्मिक विवाह संबंधी कुछ धाराओं के क्रियान्वयन पर गुरुवार को रोक लगा दी.

मुख्य न्यायाधीश विक्रम नाथ और जस्टिस बीरेन वैष्णव की खंडपीठ ने कहा कि लोगों को अनावश्यक परेशानी से बचाने के लिए अंतरिम आदेश पारित किया गया है.

राज्य की भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सरकार ने उच्च न्यायालय के आदेश पर अभी कोई विशेष टिप्पणी नहीं की है. वहीं कानूनी विशेषज्ञों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने अंतरिम रोक का स्वागत करते हुए कहा कि ‘संपूर्ण कानून संविधान की भावना के खिलाफ है’ और नागरिकों को अपना धर्म चुनने की स्वतंत्रता है.

विवाह के माध्यम से जबरन या धोखाधड़ी से धर्म परिवर्तन के लिए दंडित करने वाले गुजरात धर्म स्वतंत्रता (संशोधन) अधिनियम, 2021 को राज्य सरकार ने 15 जून को अधिसूचित किया गया था. इसी तरह के कानून मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और हिमाचल प्रदेश में भी भाजपा सरकारों द्वारा बनाए गए हैं.

जमीयत उलेमा-ए-हिंद की गुजरात शाखा ने पिछले महीने दाखिल एक याचिका में कहा था कि कानून की कुछ संशोधित धाराएं असंवैधानिक हैं.

मुख्य न्यायाधीश नाथ ने कहा, ‘हमारी यह राय है कि आगे की सुनवाई लंबित रहने तक धारा तीन, चार, चार (ए) से लेकर धारा चार (सी), पांच, छह एवं छह (ए) को लागू नहीं किया जाएगा. यदि एक धर्म का व्यक्ति किसी दूसरे धर्म व्यक्ति के साथ बल प्रयोग किए बिना, कोई प्रलोभन दिए बिना या कपटपूर्ण साधनों का इस्तेमाल किए बिना विवाह करता है, तो ऐसे विवाहों को गैरकानूनी धर्मांतरण के उद्देश्य से किया गया विवाह करार नहीं दिया जा सकता.’

उन्होंने कहा, ‘अंतरधार्मिक विवाह करने वाले पक्षों को अनावश्यक परेशानी से बचाने के लिए यह अंतरिम आदेश जारी किया गया है.’

इन धाराओं पर रोक का प्रभावी अर्थ यह है कि इस कानून के तहत अंतरधार्मिक विवाह के आधार पर प्राथमिकी दर्ज नहीं की जा सकती है.

राज्य के महाधिवक्ता कमल त्रिवेदी ने स्पष्टीकरण मांगा और कहा कि क्या होगा यदि विवाह के परिणामस्वरूप जबरन धर्म परिवर्तन होता है, तो मुख्य न्यायाधीश नाथ ने कहा, ‘बल या प्रलोभन या धोखाधड़ी का एक मूल तत्व होना चाहिए. इसके बिना आप (आगे) नहीं बढ़ेंगे, हमने आदेश में बस इतना ही कहा है.’

त्रिवेदी ने बीते 17 अगस्त को न्यायालय से कहा था कि यह कानून ‘अंतरधार्मिक विवाह’ पर प्रतिबंध नहीं लगाता है, लेकिन खंडपीठ ने कहा कि संशोधित कानून की भाषा स्पष्ट नहीं है, नतीजतन अंतरधार्मिक विवाह करने वालों पर हमेशा तलवार लटकती रहेगी.

इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक, गुजरात के उपमुख्यमंत्री नितिन पटेल ने कहा कि कोर्ट का पूरा आदेश आने के बाद सरकार अपना अगला कदम उठाएगी.

उन्होंने कहा, ‘माननीय उच्च न्यायालय द्वारा लव जिहाद कानून पर टिप्पणियों के बारे में मुझे जानकारी नहीं है. जो भी टिप्पणी होगी, यह स्वाभाविक है कि हमारे महाधिवक्ता और अन्य सरकारी वकील मुख्यमंत्री, गृह मंत्री और कानूनी विभाग को अवगत कराएंगे. एक बार हमारे पास टिप्पणियों की पूरी जानकारी होने के बाद सरकार क्या कदम उठाएगी, इस पर फैसला होगा.’

राज्य के नए कानून की धारा तीन परिभाषित करती है कि ‘जबरन धर्मांतरण’ क्या है.

इसमें कहा गया है, ‘कोई भी व्यक्ति बल प्रयोग द्वारा या प्रलोभन से या किसी कपटपूर्ण तरीके से या विवाह करके या किसी व्यक्ति की शादी करवाकर या किसी व्यक्ति की शादी करने में सहायता करके किसी व्यक्ति को एक धर्म से दूसरे धर्म में परिवर्तित या परिवर्तित करने का प्रयास नहीं करेगा और न ही कोई व्यक्ति इस तरह के धर्मांतरण को बढ़ावा देगा.’

इस बीच, शहर के कानूनी विशेषज्ञ शमशाद पठान ने उच्च न्यायालय के आदेश का स्वागत किया. उन्होंने कहा, ‘मेरी राय में उच्च न्यायालय को 2003 में मूल कानून लागू होने के तुरंत बाद (अपने बलबूते) इस मुद्दे को उठाना चाहिए था. सिर्फ नई धाराएं ही नहीं, यह पूरा अधिनियम संविधान की भावना और नागरिकों की स्वतंत्रता के खिलाफ है. कानून यह तय नहीं कर सकता कि लोगों को किस धर्म का पालन करना चाहिए.’

इसी तरह के विचार व्यक्त करते हुए सामाजिक कार्यकर्ता देव देसाई ने दावा किया कि पूरा कानून शुरू से ही ‘असंवैधानिक’ था.

उन्होंने कहा, ‘एक बार जब एक लड़का और एक लड़की वयस्क हो जाते हैं, तो वे अपनी शादी या धर्म के बारे में निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र होते हैं, जिसका वे पालन करना चाहते हैं. इसमें सरकार की कोई भूमिका नहीं हो सकती है. समाज से जातिवाद को खत्म करने और समुदायों के बीच सद्भाव पैदा करने के लिए अंतरजातीय या अंतरधार्मिक विवाह वास्तव में आवश्यक हैं.’

देसाई ने कहा, ‘मेरा मानना है कि उच्च न्यायालय को पूरे कानून को खत्म कर देना चाहिए.’

भाजपा सरकार ने इस साल की शुरुआत में बजट सत्र के दौरान विधानसभा में गुजरात धार्मिक स्वतंत्रता (संशोधन) विधेयक पारित किया था और राज्यपाल आचार्य देवव्रत ने 22 मई को इसे अपनी सहमति दी थी.

जमीयत उलेमा-ए-हिंद की गुजरात शाखा समेत ने पिछले महीने कानून के खिलाफ याचिका दाखिल की थी.

गुजरात सरकार ने इस नए विधेयक के माध्यम से 2003 के कानून में संशोधन किया था, जिसमें जबरदस्ती या प्रलोभन देकर धर्म परिवर्तन कराने पर सजा का प्रावधान है.

संशोधन के अनुसार, शादी करके या किसी की शादी कराके या शादी में मदद करके जबरन धर्मांतरण कराने पर तीन से पांच साल तक की कैद की सजा सुनाई जा सकती है और दो लाख रुपये तक का जुर्माना लग सकता है.

यदि पीड़ित नाबालिग, महिला, दलित या आदिवासी है तो दोषी को चार से सात साल तक की सजा सुनाई जा सकती है और कम से कम तीन लाख रुपये तक का जुर्माना लगाया जाएगा.

यदि कोई संगठन कानून का उल्लंघन करता है तो प्रभारी व्यक्ति को न्यूनतम तीन वर्ष और अधिकतम दस वर्ष तक की कैद की सजा दी जा सकती है.

मालूम हो कि मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश की सरकारों ने धर्मांतरण को रोकने के लिए अपने राज्यों में ऐसा कानून लागू किया है. पार्टी के नेता इसे लव जिहाद या शादी के माध्यम से हिंदू महिलाओं का धर्म परिवर्तन करने का षड्यंत्र बताते हैं.

नवंबर 2020 में उत्तर प्रदेश सरकार ने  ‘उत्तर प्रदेश विधि विरुद्ध धर्म संपरिवर्तन प्रतिषेध अध्यादेश 2020’ को मंजूरी दी थी. इस अध्यादेश के तहत शादी के लिए छल-कपट, प्रलोभन या बलपूर्वक धर्म परिवर्तन कराए जाने पर अधिकतम 10 साल के कारावास और जुर्माने की सजा का प्रावधान है.

इस साल जनवरी में मध्य प्रदेश सरकार ने धार्मिक स्वतंत्रता अध्यादेश 2020 प्रदेश में लागू किया है. इसमें धमकी, लालच, जबरदस्ती अथवा धोखा देकर शादी के लिए धर्मांतरण कराने पर कठोर दंड का प्रावधान किया गया है.

इस कानून के जरिये शादी तथा किसी अन्य कपटपूर्ण तरीके से किए गए धर्मांतरण के मामले में अधिकतम 10 साल की कैद एवं 50 हजार रुपये तक के जुर्माने का प्रावधान किया गया है.

इसके अलावा दिसंबर 2020 में भाजपा शासित हिमाचल प्रदेश में जबरन या बहला-फुसलाकर धर्मांतरण या शादी के लिए धर्मांतरण के खिलाफ कानून को लागू किया था. इसका उल्लंघन करने के लिए सात साल तक की सजा का प्रावधान है.

(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)

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हजारी प्रसाद द्विवेदी: विशुद्ध संस्कृति सिर्फ़ बात की बात है, शुद्ध है केवल मनुष्य की जिजीविषा

हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे विद्वान इसी भूभाग में पैदा हुए थे जो संस्कृति के नाम पर अभिमान करने के साथ उसमें छिपे अन्याय को भी पहचान सकते थे. इस संस्कृति के प्रति इतना मोह क्यों जो वास्तव में असंस्कृत है?

हजारी प्रसाद द्विवेदी. [जन्म: 20 अगस्त 1907 – अवसान: 19 मई 1979] (फोटो साभार: स्टैम्प्स ऑफ इंडिया)

मुक्तिबोध को पढ़ रहा था: ‘आई वांट टु बी इन द थिक ऑफ थिंग्स.’ खतरनाक तरीके से ज़िंदगी जीना. शिखरों की यात्रा या पाताल में गड़कर जीना. लेकिन दुर्द्धर्ष भाव से जीवन को जीना. एक जगह वे लिखते हैं ज़िंदगी इतनी मीठी है कि जी करता है एक ही घूंट में पी ली जाए. जीवन का यह दुर्निवार आकर्षण मुक्तिबोध को एक बड़ी ज़िंदगी की तलाश में भटकाता है.

 

यह सब पढ़ और सोच रहा था कि किसी से ध्यान भंग किया: हजारी प्रसाद द्विवेदी का जन्मदिन आ पहुंचा है. नहीं, जन्मशती नहीं है, कोई अर्धशती या किसी भी प्रकार का ‘अमृत दिवस’ भी नहीं है. लेकिन लेखक की किताब तो असमय, अकारण ही पाठक उठा लेता है, वही उसका पुनर्जन्म है.

कौन, किस चिंता से दबा हुआ, किस आशा की खोज में कोई किताब उठाता है, किसे पता? लेकिन लेखक अगर लेखक है, तो उसे शायद ही निराश करे. और वह भी तो उस पाठक के मन में फिर जी उठता है!

जीवन के बीचोंबीच रहना, उस समय जब वह खतरनाक हो उठे, असली मनुष्य की पहचान है.जीवन से मनुष्य आदर चाहता है. प्रश्न यह है जो हजारी प्रसाद द्विवेदी पूछते हैं, क्या मनुष्य ने जीवन का पर्याप्त आदर किया है! क्या वह कायदे से,पूरा-पूरा जिया है? लेकिन जीने का मतलब ही क्या है? जीना क्या है?

हिंदी के कालजयी निबंध ‘कुटज’ में वे लिखते हैं, ‘जीना भी एक कला है. लेकिन कला ही नहीं, तपस्या है. जियो तो प्राण ढाल दो जिंदगी में, मन ढाल दो जीवन-रस के उपकरणों में!’

उसके पहले पाताल-भेदी जड़ों वाले प्रिय कुटज की तरफ से कहते हैं, ‘जीना चाहते हो? कठोर पाषाण को भेदकर, पाताल की छाती चीरकर अपना भोग्य संचित करो; वायुमंडल को चूसकर, झंझा-तूफ़ान को रगड़कर अपना प्राप्य वसूल लो; आकाश को चूमकर, अवकाश की लहरी में झूमकर उल्लास खींच लो.’

जीना ही क्यों है? ‘क्या जीने के लिए जीना ही बड़ी बात है?’ जिस जीवन में सुख न मिले, जो उल्लास न दे, वह हीन जीवन है. उस सुख और उल्लास का स्रोत क्या है?

‘अपने में सब और सबमें आप- इस प्रकार की समष्टि-बुद्धि जब तक नहीं आती तब तक पूर्ण सुख का आनंद भी नहीं मिलता. अपने-आपको दलित द्राक्षा की तरह निचोड़कर जब तक सर्व के लिए निछावर नहीं कर दिया जाता तब तक ‘स्वार्थ खंड-सत्य है, वह मोह को बढ़ावा देता है, तृष्णा को उत्पन्न करता है और मनुष्य को दयनीय-कृपण बना देता है.’

तो जीवन से आसक्ति और परस्परता का बोध, दोनों पूरक हैं. भारत के लिए जो परस्पर भाव चाहिए, वह क्यों नहीं बन पाता? या वह था और हमने प्रयत्न करके उसे छोड़ दिया?

‘ठाकुरजी की बटोर’ नामक निबंध में वे लिखते हैं,

‘अभी कुछ क्षण पहले सभा में बैठे हुए एक क्षत्रिय अध्यापक को अभिवादन करते हुए एक वैश्य शिष्य ने कहा था, ‘सलाम बाबू साहब.’ शास्त्र-निष्ठ पंडितजी ने डपटकर बताया- ‘यह मुसलमानी कायदा है.’

क्षत्रिय अध्यापक ने क्षमा याचना-सी करते हुए कहा- हम लोगों में यह बुरा रिवाज चल गया है.’ बुरा रिवाज़? द्विवेदीजी अफ़सोस के साथ कहते हैं कि जिसे तुम बुरा समझ बैठे हो, वही तो प्राणदायी है: ‘यह और इसी तरह के दो-चार और बुरे रिवाज़ ही तो हिंदू और मुसलमान नामक दो विशाल शिलापटों को जोड़ने के गोंद थे.’

मिलावट से जो डर और नफरत है, यह संस्कृतिविरोधी विचार है. हम जो यह मानते हैं कि बस यही अंतिम है, यही शुद्ध है और परम है, वह भ्रम के अतिरिक्त कुछ नहीं. जो है और जो होने वाला है, वह सब ग्रहण और त्याग का संयुक्त व्यापार है.

‘अशोक के फूल’ में वे लिखते हैं, ‘मनुष्य की जीवनी-शक्ति बड़ी निर्मम है, वह सभ्यता और संस्कृति के वृथा मोहों को रौंदती चली जा रही है. … हमारे सामने समाज का आज जो रूप है, वह जाने कितने ग्रहण और त्याग का रूप है. देश और जाति की विशुद्ध संस्कृति केवल बात की बात है. सब कुछ में मिलावट है, सब कुछ अविशुद्ध है. शुद्ध है केवल मनुष्य की दुर्दम जिजीविषा… .’

हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे पंडित इसी भूभाग में पैदा हुए थे जो संस्कृति के नाम पर अभिमान करने के साथ उसमें छिपे अन्याय को भी पहचान सकते थे. इस संस्कृति के प्रति इतना मोह क्यों जो वास्तव में असंस्कृत है?

अशोक के फूल की महिमा गाने के बाद वे पूछते हैं, ‘अशोक का वृक्ष जितना भी मनोहर हो, जितना भी रहस्यमय हो, जितना भी अलंकारमय हो, परंतु है वह उस विशाल सामंत-सभ्यता की परिष्कृत रुचि का ही प्रतीक जो साधारण प्रजा के परिश्रमों पर पली थी, उसके रक्त के स-सार कणों को खाकर बड़ी हुई थी और लाखों-करोड़ों की उपेक्षा से समृद्ध हुई थी.’ ऐसी संस्कृति के ध्वंस पर अफ़सोस क्या?

द्विवेदीजी के शिष्य नामवर सिंह ने ठीक ही लिखा है कि ‘द्विवेदी जी के सामने योजनाबद्ध रूप से एक ‘मिश्र संस्कृति’ तैयार करने की समस्या नहीं है, समस्या यह है कि ‘आज हमारे भीतर जो मोह है, संस्कृति और कला के नाम पर जो आसक्ति है, धर्माचार और सत्यनिष्ठा के नाम पर जो जड़िमा है’ उसे किस प्रकार ध्वस्त किया जाए.’

संस्कृति शब्द को लेकर ही द्विवेदी जी को संकोच है. उसमें निहित ‘संस्कार’ को वे बाधा मानते हैं. नामवरजी ने ‘दूसरी परंपरा की खोज’ में उन्होंने ‘संस्कार’ के प्रति द्विवेदी जी के संदेह को रेखांकित किया है.

वे उन्हें ही उद्धृत करते हैं, ‘ ‘संस्कार’ शब्द का प्रयोग करते समय मुझे थोड़ा संकोच ही हो रहा है. … मनुष्य स्वभाव से ही प्राचीन के प्रति श्रद्धापरायण होता है और प्राचीन काल से संबद्ध होने के कारण कुछ ऐसी धारणाओं को श्रद्धा की दृष्टि से देखने लगता है’ जो रूढ़ हो जाती हैं. ‘ऐसे संस्कार सब समय बृहत्तर मानव पट भूमिका पर खरे नहीं उतरते.’ इतना ही नहीं ‘देश और जातिगत संस्कार अन्य देश और जातियों को समझने में भी बाधक हो जाते हैं.’

काश! दिल्ली सरकार के नेताओं और संस्कृत के ध्वजवाहकों ने इस पंडित को पढ़ा होता! तो वे संस्कृत को संस्कार-शिक्षा की भाषा बनाने की जिद न करते. या कौन जाने, आचार्य द्विवेदी को भी उन्होंने कुसंस्कारी ठहरा दिया होता!

संस्कार-बद्धता आगे शुद्धतावाद और फिर वर्जनशीलता में शेष होती है. यह अहंकार को भी जन्म देती है: सब कुछ हमारे यहां था. पिछले कई दशकों से यूरोप केंद्रीयता का विरोध करने के नाम पर आत्मग्रस्तता से नामवरजी अपने गुरु के माध्यम से सावधान करते हैं, ‘ आए दिन श्रद्धापरायण आलोचक यूरोपीय मतवादों को धकिया देने के लिए भारतीय आचार्य-विशेष का मत उद्धृत करते हैं और आत्म गौरव के उल्लास से घोषित कर देते हैं कि ‘हमारे यहां’ यह बात इस रूप में मानी या कही गयी है. मानो भारतवर्ष का मत केवल वही एक आचार्य उपस्थापित कर सकता है… . यह रास्ता गलत है. प्रत्येक बात में ऐसे बहुत से मत पाए जाते हैं जो परस्पर एक दूसरे के विरुद्ध पड़ते हैं.’

खुलापन, निरस्त्र भाव से भेंट और नए के प्रति स्वागतभाव और जीवन के प्रति एक अकुंठ उत्साह: हजारी प्रसाद द्विवेदी यही हैं. नंदकिशोर नवल ने उसने जुड़ा एक किस्सा सुनाया था जो शायद उन्हें किसी और ने सुनाया हो.

बनारस की एक सभा में पंडितजी बोल रहे थे. धूप में साइकिल चलाकर आए पसीने में डूबे धूमिल सभा में उन्हें सुन रहे थे लेकिन किसी बात पर उत्तेजित होकर चीख पड़े और पंडितजी को चुप हो जाने को कहा. द्विवेदीजी बैठ गए. सभा सकते में आ गई. बाहर निकलते हुए वे धूमिल के पास रुके और बोले, ‘इस आग को बुझने मत देना.’

नए और अप्रत्याशित की आग की आंच आपको झुलसा सकती है लेकिन उसे बुझने न देना ही जीवन के कर्तव्य का निर्वाह है. असल बात है जड़ न होना. रुकना नहीं. जीवन से आसक्ति हो लेकिन मोहग्रस्त न हो जाए हम.

द्विवेदीजी रवींद्रनाथ को उद्धृत करते हैं, ‘राजोद्यान का सिंहद्वार कितना ही अभ्रभेदी क्यों न हो, उसकी शिल्पकला कितनी ही सुंदर क्यों न हो, वह यह नहीं कहता कि हममें आकर ही सारा रास्ता समाप्त हो गया. असल गंतव्य स्थान उसे अतिक्रम करने के बाद ही है, यही बताना उसका कर्तव्य है.’

द्विवेदी जी लिखते हैं कि ‘फूल हो या पेड़ ,अपने आप में समाप्त नहीं हैं. वह किसी अन्य को दिखाने के लिए उठी हुई अंगुली है. वह इशारा है.’

द्विवेदीजी का साहित्य भी ऐसा ही इशारा है. रुक मत जाओ, जड़ मत हो जाओ. मोह न करो. मोह में ही हिंसा है. लेकिन जीवन भरपूर जियो, वायुमंडल से रस खींचकर कोमल और कठोर, दोनों हो पाओ, जैसा शिरीष है और जैसा गांधी हो सका था: कोमल और कठोर! क्या वैसा अवधूत बन पाना संभव है? हो न हो लेकिन क्या वैसा होना न चाहिए?

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)

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