पीटीआई पर नियंत्रण यानी ख़बरों पर लगाम कसने की सरकारी कोशिश?


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देश की सबसे नामी न्यूज़ एजेंसी 'प्रेस ट्रस्ट ऑफ़ इंडिया' (पीटीआई) ने उन रिपोर्टों पर संक्षिप्त शब्दों में खंडन जारी किया जिनमें ये कहा गया था कि 'लीज़ एग्रीमेंट की शर्तों को तोड़ने' के लिए एजेंसी को '84 करोड़ रुपये का बिल' भेजा गया है.
पीटीआई की ओर से बयान जारी किया जाना कोई आम बात नहीं है. पीटीआई ने कहा कि 'डिमांड नोटिस' का ग्राउंड फ़्लोर के किराये से कोई लेना-देना नहीं है और वो किराये का भुगतान नहीं करता है, बल्कि किराया वसूल करता है.
15 जुलाई के अपने बयान में पीटीआई ने इस बात से भी इनकार किया है कि प्रसार भारती ने एजेंसी के निदेशक मंडल में अपने लिए सीट की माँग की है.
भारत को आज़ादी मिलने के 12 दिनों बाद ही प्रेस ट्रस्ट ऑफ़ इंडिया की स्थापना हुई थी.
दुनिया में पीटीआई जैसी केवल दो न्यूज़ एजेंसियां हैं जो आर्थिक लाभ के लिए संचालित नहीं की जाती हैं, न ही सरकार उनका संचालन करती है. ऐसी पहली एजेंसी पीटीआई है और दूसरी 'एसोसिएटेड प्रेस' यानी 'एपी.'

केंद्र सरकार के साथ तनाव

साल 1947 के अगस्त महीने की 27 तारीख़ को देश के 98 अख़बारों ने मिलकर प्रेस ट्रस्ट ऑफ़ इंडिया की नींव रखी थी. दो साल के अंदर साल 1949 में इसका कामकाज शुरू हो गया था.
ये माना गया कि एक नए राष्ट्र को एक नई न्यूज़ एजेंसी की ज़रूरत है. ये उम्मीद की गई थी कि समाचारों के प्रचार-प्रसार में इससे मदद मिलेगी और ये चीन की 'शिनहुआ' और रूस की 'तास' या ईरान की इरना की तरह काम नहीं करेगी बल्कि जैसा कि इससे जुड़े रहे लोग कहते हैं कि ये 'स्वतंत्र' तरीके से काम करती है.
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Image captionभारत में चीन के राजदूत सुन वेइडोंग का इंटरव्यू पीटीआई ने किया था
लेकिन हाल की घटनाओं से ऐसा लगने लगा है कि केंद्र सरकार और प्रेस ट्रस्ट ऑफ़ इंडिया के बीच तनाव है.
इंटरनेट पर 'प्रोपेगैंडा का एजेंडा चलाने वाले ट्रोल्स' पीटीआई के ख़िलाफ़ लगातार हमलावर रहे हैं, इसकी वजह से बिना शोर-शराबा किए ख़बरें देती रहने वाली न्यूज़ एजेंसी ख़ुद ही ख़बरों में आ गई है.
कुछ दिनों पहले सरकारी प्रसारक 'प्रसार भारती' ने 'राष्ट्रीय हितों को नुक़सान पहुंचाने वाली' रिपोर्टिंग के लिए पीटीआई को चिट्ठी लिखकर उसकी 'सेवाएं ख़त्म करने की' धमकी दी थी.

गलवान की घटना के बाद

भारत और चीन की वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) से लगी गलवान घाटी में 20 भारतीय सैनिकों के मारे जाने के बाद पीटीआई ने नई दिल्ली में चीनी राजदूत और बीजिंग में भारतीय राजदूत के इंटरव्यू प्रकाशित किए थे.
प्रसार भारती की चिट्ठी और उसे मीडिया में लीक किए जाने की घटनाएं इन्हीं दोनों इंटरव्यू के बाद हुईं.
ये जानकारी सामने आई कि नई दिल्ली में चीन के राजदूत को अपनी बात रखने का मौक़ा देकर पीटीआई ने भारतीय सुरक्षा प्रतिष्ठानों को नाराज़ कर दिया था और एजेंसी को अल्टीमेटम देने वाली चिट्ठी लिखने के लिए ये वजह काफ़ी थी.
इस चिट्ठी पर कई मीडिया विश्लेषकों ने सवाल खड़े किए हैं. मीडिया विश्लेषकों की चिंता तीन मुख्य बातों को लेकर है.
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एक तो ये कि ख़बर के दूसरे पक्ष को जानने-समझने की कोशिश को राष्ट्रहितों को खिलाफ़ बताया जाना, दूसरा इस चिट्ठी की टाइमिंग और तीसरी बात ये कि सैकड़ों अख़बारों और मीडिया संस्थानों के लिए ख़बरों के एक अहम स्रोत को निशाना बनाया जा रहा है.

पीटीआई पर निर्भरता

भारत के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग भाषाओं में छपने वाले अख़बार और मीडिया संस्थान कई दशकों से ख़बरों के लिए पीटीआई पर निर्भर रहे हैं.
न्यूज़ एजेंसियों में पीटीआई को सूचना के प्रचार-प्रसार के लिए गोल्ड स्टैंडर्ड का माना जाता रहा है, उसकी विश्वसनीयता पर शायद ही कभी कोई उंगली उठी हो, यही वजह है कि कई प्रेस संगठनों ने पीटीआई के साथ इस तरह के सलूक की निंदा की है.
प्रसार भारती की इस बात के लिए आलोचना हो रही क्योंकि वह एक तरह से यह जताने की कोशिश कर रहा है कि मानो वो पीटीआई पर कोई एहसान करता है.
जानकारों का कहना है कि प्रसार भारती सब्सक्रिप्शन फ़ी के नाम पर प्रेस ट्रस्ट ऑफ़ इंडिया को सालाना 6.75 करोड़ रुपये का भुगतान करती है. यह पीटीआई के कुल राजस्व का ये केवल सात फ़ीसद हिस्सा है. उसके पास कमाई के दूसरे स्रोत भी हैं.

हस्तक्षेप की कोशिश

साल 2020 के वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स के 180 देशों की सूची में भारत 142वें पायदान पर है. उत्तर कोरिया इस लिस्ट में सबसे नीचे यानी 180वें स्थान पर है.
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कानों में चुभने वाली टीवी की बहसें जो अब हर रात की कहानी है, सरकारी प्रवक्ता जिनका पूरा ध्यान विपक्षी पार्टियों की नाकामी पर रहता है, कौन सी ख़बर सुर्ख़ियों में रहेगी और कौन नहीं, इसका प्रबंधन, सरकारी विज्ञापन जारी किए जाएं या रोक दिए जाएं, जीएसटी और अख़बार के काग़ज़ की क़ीमत बढ़ाना, न्यूज़रूम में आने वाले राजनीतिक आकाओं के फ़ोन कॉल, ये वो बातें हैं जो अब ढंकी-छिपी नहीं बल्कि दर्ज हैं, और ऐसा लगता है कि भारतीय मीडिया ने इसे अपनी ज़िंदगी का हिस्सा मान लिया है.
प्रसार भारती के आरोप या 84 करोड़ रुपए की डिमांड नोटिस, केंद्र सरकार के साथ जारी तनाव के बीच ये सबसे ताज़ा घटनाएं हैं.
चार साल पहले जब लंबे समय से पीटीआई के एडिटर-इन-चीफ़ रहे एमके राज़दान पद छोड़ रहे थे तो 'ऐसे किसी शख़्स की सिफ़ारिश की कोशिशें' हुईं थीं जो सरकार के नज़रिए को जगह देने के मामले में ज़्यादा दिलदार साबित हो.
साल 2016 की फ़रवरी में पीटीआई बोर्ड के तत्कालीन चेयरमैन होरमुसजी एन कामा ने 'द वायर' से कहा था, "कुछ सांसदों ने बोर्ड के एक-दो सदस्यों से बात की थी. कुछ लोगों से संपर्क किया गया था और उन्होंने इसका ज़िक्र भी किया. मैं ये बात ज़ोर देकर कहना चाहूंगा कि किसी सांसद ने मुझसे संपर्क नहीं किया था. लेकिन ये बात तय थी कि राजनेताओं की सिफ़ारिश वाले उम्मीदवारों पर विचार करने का सवाल ही नहीं पैदा होता है."

पीटीआई की निष्पक्षता

एमके राज़दान याद करते हैं, "पीटीआई की निष्पक्षता और तटस्थ्ता का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि सभी राजनीतिक दलों के नेता एजेंसी के नई दिल्ली स्थित मुख्यालय आकर इसके पत्रकारों से संवाद करते रहे हैं. दो राष्ट्रपति प्रोटोकॉल तोड़कर पीटीआई के दफ़्तर आए. राष्ट्रपति एपीजे कलाम अपने लैपटॉप के साथ आए और हमें अपने विज़न के बारे में बताया. राष्ट्रपति केआर नारायणन पीटीआई की गोल्डन जुबली पर बीजेपी सरकार की ओर से जारी किए गए डाक टिकट को रिलीज़ करने हमारे दफ़्तर आए."
राज़दान कहते हैं, "इसी तरह चंद्रशेखर प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के बाद सीधे पीटीआई के दफ़्तर आए थे. लालकृष्ण आडवाणी उप-प्रधानमंत्री रहते हुए यहां आए, अरुण जेटली सत्ता में हों या विपक्ष में, वे हर साल यहां आते थे. कांशी राम, ज्योति बसु, कांग्रेस और भाजपा के मुख्यमंत्री, मंत्री, सशस्त्र बलों के चीफ़, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार, सभी हमारे यहां आते रहे और हमसे संवाद करते रहे हैं. अलग विचार रखने वाले अलग तरह के लोग यहां आते रहे हैं लेकिन सभी ने पीटीआई को एक पब्लिक सर्विस इंस्टीट्यूशन की तरह देखा जो अपनी निष्पक्षता के लिए समर्पित था."

सरकार का नैरेटिव

पुराने लोग बताते हैं कि इमरजेंसी के दिनों में पीटीआई का तीन और एजेंसियों--'यूएनआई', 'हिंदुस्तान' और 'समाचार भारती' के साथ विलय करके 'समाचार' नाम की एक एजेंसी बना दी गई थी. ये वो दिन थे जिन्हें मीडिया के 'अंधा युग' के नाम से भी जाना जाता है.
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लेकिन इमरजेंसी हटते ही जनता सरकार में सूचना-प्रसारण मंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने सभी समाचार एजेंसियों को अलग कर दिया और उनकी स्वायत्ता बहाल कर दी थी.
जनसत्ता के पूर्व मुख्य संपादक ओम थानवी कहते हैं कि "अब सरकार को केवल एक ही पक्ष की ज़रूरत है. और वो भी उनके अपने नैरेटिव को आगे बढ़ाने के लिए, इसलिए पीटीआई जैसी एजेंसियों को ख़तरे के तौर पर देखा जा रहा है".
ओम थानवी कहते हैं, "पीटीआई हमेशा से एक पेशेवर संस्था रही है और दूसरी न्यूज़ एजेंसियों में सबसे बेहतर भी. लेकिन इसने कभी सरकारों को परेशान भी नहीं किया है. उन्होंने सरकार के मंत्रियों से अच्छे रिश्ते रखे हैं. प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर सरकार का काफ़ी दख़ल और नियंत्रण है".
वे कहते हैं, "सरकार चाहती है कि न्यूज़ एजेंसियां भी उसके सामने झुक जाएं, चूंकि इन एजेंसियों की पहुँच अंतरराष्ट्रीय स्तर पर होती है. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मोदी की छवि कमज़ोर पड़ रही है, इसलिए मोदी सरकार को आज्ञाकारी न्यूज़ एजेंसियां चाहिए. चीन के साथ संघर्ष के समय पीटीआई निष्पक्ष बना रहा जबकि दूसरी एजेंसियाँ सरकार का बचाव करती रहीं. निष्पक्ष रहना ही पत्रकारिता है. लेकिन सत्ता में बैठे लोग इन गुणों के मुरीद कब से होने लगे?"

पीटीआई का ढांचा

पीटीआई के बोर्ड में 12 अख़बारों के प्रतिनिधि और प्रकाशक बैठते हैं. साथ ही चार स्वतंत्र निदेशक भी हैं. उन्होंने प्रसार भारती की चिट्ठी या इंटरनेट पर की जा रही ट्रोलिंग पर अभी तक सार्वजनिक रूप से कुछ नहीं कहा है. पीटीआई के बोर्ड में स्वतंत्र निदेशकों के तौर पर अभी तक जस्टिस एचआर खन्ना, ननी पालखीवाला, फ़ली नरीमन और जस्टिस एसपी भरूचा जैसे लोग मनोनीत होते रहे हैं. ये वो लोग हैं जो अपनी सोच के हिसाब से कहने-सुनने और बोलने के लिए जाने जाते रहे हैं.
जून महीने की 28 तारीख़ को 'द टेलीग्राफ़' अख़बार ने एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी जिसके मुताबिक़ सरकार की मुहिम का अहम पहलू ये था कि सार्वजनिक तौर पर जताई गई नाराज़गी के बहाने ख़बरों के बनने और उनके प्रवाह का तौर-तरीक़ा अपने मुताबिक़ ढाल लिया जाए. इस कड़ी में जो समाचार एजेंसी अपनी बारी का इंतज़ार कर रही है वो है हिंदुस्थान समाचार.
हिंदुस्थान समाचार की स्थापना विश्व हिंदू परिषद के संस्थापक एसएस आप्टे ने साल 1948 में की थी और साल 2014 में मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद इसे पुनर्जीवित करने की कोशिश की गई है.

इमरजेंसी की 45वीं सालगिरह

इमरजेंसीइमेज कॉपीरइटSHANTI BHUSHAN
समाचार पत्रिका आउटलुक के संपादक रह चुके कृष्णा प्रसाद इंडियन जर्नलिज़्म रिव्यू चलाते हैं.
वे कहते हैं, "कई तरह के क़दम होते हैं जिनसे कोशिश की जाती है कि किसी तरह चीज़ों को फिर से संगठित किया जाए. मैसेज भेजना बीजेपी की नरेंद्र मोदी सरकार का सबसे बड़ी, या यूं कहें कि इकलौती ताक़त रही है. लेकिन पीटीआई के साथ खिंचाव ने भविष्य पर सवाल खड़े कर दिए हैं. एक ऐसी संस्था के साथ भिड़ जाना जिसकी शुरुआत देश के हर इलाक़े के अख़बारों ने मिलकर की थी और वही उसे चलाते भी हैं, ये सरकार की ओर से इशारा है कि उन्हें परवाह नहीं है कि इससे क्या संदेश जाएगा. या फिर ये सुनिश्चित करने का तरीक़ा है कि बाक़ी मीडिया तक ये संदेश पहुंचे कि अगर वो लाइन पर नहीं चले तो क्या होगा."
प्रसाद इस बात पर ज़ोर देते हैं कि ये सारा मामला मीडियम और मैसेज के बारे में है, उनके मुताबिक़ "ऐसा इमरजेंसी की 45वीं सालगिरह पर हो रहा है, जो अपने आप में एक अजीब विडंबना है."
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