पेगासस स्पाईवेयर मामला भारत के लोकतंत्र के लिए ख़तरनाक क्यों?
- सौतिक बिस्वास
- बीबीसी संवाददाता
"इसमें कोई शक नहीं है कि आपकी निजता का उल्लंघन हुआ है. ये एक ऐसी जबरन घुसपैठ है जिस पर यकीन करना मुश्किल लगता है. किसी को ये दिन देखना न पड़े."
न्यूज़ वेबसाइट 'द वायर' के सहसंस्थापक सिद्धार्थ वरदराजन ने पेगासस मामले पर ये बात कही.
मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक़ सिद्धार्थ वरदराजन भी दुनिया भर के उन कार्यकर्ताओं, पत्रकारों, राजनेताओं और वकीलों में शामिल हैं जो जासूसी सॉफ़्टवेयर 'पेगासस' के निशाने पर थे.
एक इसराइली कंपनी 'एनएसओ ग्रुप' ये स्पाईवेयर अलग-अलग देशों की सरकारों को बेचती है.
न्यूज़ वेबसाइट 'द वायर' के अनुसार कंपनी के क्लाइंट्स की जिन लोगों में दिलचस्पी थी, उनसे जुड़े 50,000 नंबरों का एक डेटाबेस लीक हुआ है और उसमें 300 से ज़्यादा नंबर भारतीय लोगों के हैं.
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पेगासस मामला
'द वायर' उन 16 अंतरराष्ट्रीय मीडिया आउटलेट्स में है जिन्होंने लीक हुए डेटाबेस और पेगासस स्पाईवेयर के इस्तेमाल की तहकीकात की.
ये पहली बार नहीं है कि इसराइली कंपनी एनएसओ ग्रुप के पेगासस स्पाईवेयर का जिक्र पत्रकारों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को निशाने बनाने को लेकर हुआ है. ये सॉफ़्टवेयर किसी के स्मार्टफोन में बिना यूजर की जानकारी के डिजिटल सेंधमारी कर सकता है और उसकी तमाम जानकारियां दूर से चुरा सकता है.
साल 2019 में जब व्हॉट्सऐप ने इस बात की पुष्टि की उसके कुछ यूजर्स को स्पाईवेयर के जरिए टारगेट किया गया था तो भारत समेत दुनिया भर के कई देशों में इसे लेकर हंगामा मचा था.
उस वक़्त हैकिंग की इस घटना में भारत के 121 यूजर्स को टारगेट किया गया था जिनमें ऐक्टिविस्ट, स्कॉलर और पत्रकार लोग शामिल थे. विशेषज्ञों का कहना था कि भारत में इस घटना के पीछे सरकारी एजेंसियों की भूमिका हो सकती है.
एनएसओ ग्रुप का इनकार
तब व्हॉट्सऐप ने एनएसओ ग्रुप पर मुकदमा दायर किया था और अपने यूजर्स के 1400 मोबाइल फोन्स पर पेगासस स्पाईवेयर के जरिए साइबर हमला करने का आरोप लगाया था.
हालांकि डेटाबेस सार्वजनिक होने की नई घटना को लेकर ये बात साफ़ नहीं है कि लीक कहां से हुई, हैकिंग के लिए किसने आदेश दिया था और वास्तव में कितने मोबाइल फ़ोन हैकिंग का शिकार हो पाए.
साल 2019 की तरह इस बार भी एनएसओ ग्रुप ने इस बात से इनकार किया है कि उसने कोई गलत काम किया है. कंपनी ने जासूसी के आरोपों को 'बेबुनियाद' और 'वास्तविकता से कोसों दूर' बताया है.
कंपनी के एक प्रवक्ता ने बीबीसी से कहा, "पेगासस के दुरुपयोग के सभी भरोसेमंद दावों की हम जांच जारी रखेंगे और इस पड़ताल के जो भी नतीजे आएंगे, उसके आधार पर हम ज़रूरी कदम उठाएंगे."
ठीक इसी तरह भारत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने भी किसी किस्म की अनधिकृत निगरानी के आरोपों से इनकार किया है.
फोन टैपिंग की क़ानूनी प्रक्रिया
भारत में केंद्र और राज्य सरकार के गृह मंत्रालय के वरिष्ठतम अधिकारी के आदेश से ही 'देश की संप्रुभता और एकता के हित में' फोन टैपिंग की जा सकती है.
थिंक टैंक 'ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन' के फेलो मनोज जोशी कहते हैं, "लेकिन आदेश जारी करने की ये प्रक्रिया कभी स्पष्ट नहीं रही है." साल 2019 वाले जासूसी के मामले को लेकर जब संसद में बहस हुई तो विपक्षी सांसद केके रागेश ने सरकार से पेगासस के बारे में कई स्पष्ट सवाल पूछे थे.
"पेगासस भारत कैसे आया? सरकार के ख़िलाफ़ लड़ रहे लोगों को टारगेट क्यों किया जा रहा है? कोई इस बात पर कैसे यकीन करेगा कि देश के राजनीतिक नेताओं की जासूसी के लिए सॉफ्टवेयर के इस्तेमाल के पीछे सरकार की कोई भूमिका नहीं है?"
इसराइल की एनएसओ ग्रुप का कहना है कि वो लोगों की ज़िंदगी बचाने के लिए और चरमपंथी गतिविधियों और आपराधिक गतिविधियों को रोकने के लिए अपनी टेक्नॉलॉजी केवल जांची-परखी सरकारों की क़ानून लागू करने वाली और खुफिया एजेंसियों को ही बेचता है.
भारत में लगभग दस एजेंसियां ऐसी हैं जिन्हें क़ानूनी तौर पर लोगों के फोन टैप करने का अधिकार है. इनमें सबसे ताक़तवर है 134 साल पुरानी सरकारी एजेंसी इंटेलीजेंस ब्यूरो. ये देश की सबसे बड़ी और सबसे ताक़तवर खुफिया एजेंसी है और इसके पास व्यापक शक्तियां हैं.
फोन टैपिंग के पुराने मामले
चरमपंथी हमलों की आशंका को देखते हुए की जाने वाली निगरानी के अलावा आईबी बड़े पद पर नियुक्त होने जज जैसे अधिकारियों की पृष्ठभूमि की जांच करता है. और जैसा कि एक विशेषज्ञ कहते हैं, "राजनीतिक जीवन और चुनावों पर निगरानी के लिए."
खुफिया एजेंसियों का उतार-चढ़ावों भरा इतिहास रहा है. केंद्र और राज्य सरकारों पर दोस्तों और विरोधियों की जासूसी में इन खुफिया एजेंसियों के इस्तेमाल का आरोप लगता रहा है.
साल 1988 में कर्नाटक के मुख्यमंत्री रामकृष्ण हेगड़े ने इन आरोपों के बाद इस्तीफ़ा दे दिया था कि उन्होंने अपने 50 सहयोगियों और विरोधियों का फोन टैप करने का आदेश दिया था.
साल 1990 में चंद्रशेखर ने आरोप लगाया कि उस समय की सरकार ने 27 राजनेताओं के फोन टैप कराए थे जिनमें उनका नंबर भी शामिल था.
साल 2010 में कॉरपोरेट लॉबीस्ट नीरा राडिया की बड़े राजनेताओं, उद्योगपतियों और पत्रकारों के साथ की गई बातचीत के 100 से ज़्यादा टेप मीडिया को लीक कर दिए गए. ये टेप टैक्स विभाग ने रिकॉर्ड किया था.
उस समय के विपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी ने कहा कि नीरा राडिया प्रकरण वाटरगेट स्कैंडल की याद दिलाता है.
असंतुष्टों पर नज़र
तकनीकी मामलों की जानकार और पब्लिक पॉलिसी की रिसर्चर रोहिणी लक्षाणे कहती हैं, "जो बदलाव अब देखने में आ रहा है, वो इलेक्ट्रॉनिक निगरानी के पैमाने, रफ़्तार और इसके तौर-तरीके में है जिससे असंतुष्टों पर नज़र रखी जा रही है."
अमेरिका की तरह भारत में सरकारी एजेंसियों द्वारा निगरानी का आदेश देने के लिए विशेष अदालतें नहीं हैं.
पूर्व केंद्रीय मंत्री और सांसद मनीष तिवारी ने संसद में खुफिया एजेंसी की शक्तियों और कामकाज के नियमन के लिए प्राइवेट मेंबर बिल लाने की कोशिश की थी, लेकिन वे नाकाम रहे थे.
मनीष तिवारी ने बीबीसी को बताया, "नागरिकों की जासूसी कर रही इन एजेंसियों के ऊपर कोई निगरानी नहीं है. ऐसे क़ानून के लिए ये सही समय है."
उन्होंने कहा कि वे संसद के मौजूदा सत्र में अपने प्राइवेट मेंबर बिल को फिर से रखेंगे.
रोहिणी लक्षाणे के मुताबिक़ ताज़ा मामला इस ओर इशारा करता है कि सरकार किस हद तक और कितने बड़े पैमाने पर इलेक्ट्रॉनिक निगरानी कर सकती है और ऐसी जासूसी के ख़िलाफ़ कोई सुरक्षात्मक उपाय नहीं है.
वो कहती हैं कि भारत में निगरानी से जुड़ी प्रक्रिया में सुधार की सख़्त ज़रूरत है.
संसद में ये हफ़्ता पेगासस स्पाईवेयर मामले को लेकर अशांत रह सकता है.
रोहिणी लक्षाणे कहती हैं कि ये सही समय है, कड़े सवाल पूछने के लिए. रिकॉर्ड किए गए डेटा का बाद में क्या इस्तेमाल किया गया. इस डेटा को कहां रखा गया है. सरकार में किनके पास इस डेटा तक पहुंच थी? क्या सरकार के बाहर किसी अन्य व्यक्ति की इस डेटा तक पहुंच थी? डेटा सुरक्षा को लेकर क्या कदम उठाए गए हैं?
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