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अक्षरधाम: 'मेरा नाम सुरेश, रमेश या ... होता तो ये नहीं होता'

अक्षरधाम: 'मेरा नाम सुरेश, रमेश या ... होता तो ये नहीं होता'

अपने परिवार के साथ सलीम
मुमताज़ बानो अब कभी नहीं मुस्कराती हैं. घरवालों ने उनको पिछले 11 सालों में कभी हँसते हुए नहीं देखा और उन्हें मुमताज़ का एक ही भाव समझ आता है. वो रो रही हैं ये बात घरवालों को उनके आंसू से ही पता लगती है क्योंकि उन्हें लकवा मार गया है.
अहमदाबाद के दरियापुर इलाक़े में कभी वह अपने बड़े बेटे सलीम शेख की प्रशंसा करते नहीं थकती थीं. आख़िर उसने सऊदी अरब जाकर दर्ज़ी का काम करके पैसा कमाया और अपनी दो बहनों की शादी करवाई, अहमदाबाद में मकान ख़रीदा, अपने बच्चे ज़ैद को इंग्लिश स्कूल में डाला और फिर वह हर महीने घर पैसा भी भेजते थे.
लेकिन उस दिन, क़रीब 11 साल पहले, मुमताज़ ने बेटे के लिए खीर बनाई थी. सलीम छुटियां ख़त्म कर सऊदी अरब वापस जाने की तैयारियां कर रहे थे. तभी घर के दरवाज़े पर दस्तक हुई और सलीम को कोई बुलाने आया.
लेकिन सलीम जब गए तो वापस लगभग 11 सालों बाद लौटे. वो 17 मई को घर वापस लौटे हैं.
इतने दिनों में बहुत कुछ बदल चुका है. अब घर फिर से किराये का है, ज़ैद अब उर्दू स्कूल में जाता है. मुमताज़ नहीं जानती कि यह सब उनके साथ क्यों हुआ, लेकिन सलीम कहते हैं कि शायद इस देश में मुसलमान होकर जन्म लेना कभी-कभी गुनाह हो जाता है.
प्रताड़ना
वो कहते हैं, "मेरा नाम अगर सुरेश, रमेश या महेश होता तो मेरे साथ यह कभी होता?" सलीम को अक्षरधाम मंदिर हमले मामले में गुजरात पुलिस ने पकड़ा था और उन्हें लश्कर-ए-तैयबा और जैशे मोहम्मद का सदस्य बताया गया था.
सलीम की मां मुमताज़ बानो
24 सितंबर, 2002 को दो हमलावरों ने अक्षरधाम मंदिर के भीतर एके-56 राइफ़ल से गोलियां बरसाकर 30 से अधिक लोगों की हत्या कर दी थी और क़रीब 80 को घायल कर दिया था. इस मामले में आठ लोगों को गिरफ़्तार किया गया था, जिनमें से छह को आरोप मुक्त कर दिया गया है जबकि दो पर अभी मुकदमा चल रहा है.
सलीम शेख सऊदी अरब के रियाद शहर में एक शोरूम में दर्ज़ी का काम किया करते थे. उन्होंने कहा, "पुलिस ने मुझे 29 दिन अवैध तरीक़े से हिरासत में रखा और इस दौरान इतना पीटा कि आज भी मेरे पाँव कांपते हैं. जैसे कोई धूप में चलकर आया हो उस तरह की जलन होती है. अहमदाबाद क्राइम ब्रांच में 400-500 डंडे एक साथ मेरे पाँव के तलवे पर मरते थे. उस वक़्त मेरी पाँव की इन उंगली फ्रैक्चर भी हो गयी."
सलीम को इस मामले में पोटा कोर्ट ने आजीवन कारवास की सज़ा सुनाई थी जिससे गुजरात उच्च न्यायालय ने बरक़रार रखा.
उन्होंने कहा, "मेरे कूल्हे पर आज भी 11 साल पुरानी मार के निशान मौजूद है. वह मंज़र याद आता है तो दिल दहल जाता है कि वापसी में भी हमारे साथ ऐसा न हो."
'कौन से केस में जेल जाएगा'
सलीम ने कहा, "मुझे क्राइम ब्रांच ले जाने के बाद पुलिस ने मेरे बारे से पूछा कि मैं सऊदी अरब में क्या करता हूँ और मेरे दोस्त कौन है? मुझे कहा गया की यह जाँच मेरे पासपोर्ट की कोई ख़राबी की वजह से है. पर फिर मुझे मारना शुरू किया. मुझे कोई इल्म ही नहीं था कि वे मुझे क्यों मार रहे हैं."
वो आगे बताते हैं, "फिर एक सीनियर अफ़सर ने मुझे बुलाया और पूछा सलीम कौन से केस में जेल जाएगा, हरेन पंड्या, अक्षरधाम या 2002 दंगे. मुझे तो इन तीन के बारे में कुछ ज़्यादा पता भी नहीं था. मैं 1990 से सऊदी में था और जब घर आता तब बस इनके बारे कभी बात होती. मेरे पास मार खाने की बिलकुल ताक़त नहीं बची थी और मैं जैसा वह कहते वैसा करता था."
उन्होंने कहा, "मैंने तो बाक़ी अभियुक्तों को भी पहली बार जेल में देखा."
सलीम पर आरोप लगा था कि वह सऊदी में भारतीय मुसलमानों को इकट्ठा करके उन्हें 2002 गोधरा दंगे और अन्य भारत विरोधी वीडियो दिखाते थे और फिर उनसे पैसा लेकर भारत में आंतकवादी गतिविधियों के तहत अक्षरधाम हमले को फाइनेंस करते थे.
'पुलिस की मनगढंत स्टोरी'
वो कहते हैं, "मैं पुलिस की मनगढंत स्टोरी में फिट बैठ रहा था. सऊदी में रहने वाला था और अहमदाबाद पैसे भेजा करता था. मैंने 2002 दंगों के बाद एक रिलीफ कैंप में अनाज और पानी की मदद करने के लिए 13,000 रूपए ज़कात के तौर पर दिए थे. बस उसी से शायद में पुलिस की नज़र में आया. वर्ना मैंने जो कभी सिग्नल तोड़ने का भी गुनाह नहीं किया तो फिर इतने सारे लोगों को मारने का आरोप. पिछले 11 साल इस कलंक के साथ मैंने हर पल दिल पर पत्थर रखकर बिताए."
अपने परिवार की तकलीफ़ों के बारे में सलीम कहते हैं, "हमारा मकान बिक गया, छोटे भाई को परिवार चलाने के लिए अपनी पढ़ाई छोड़नी पड़ी, मेरे बच्चे अंग्रेजी स्कूल से उर्दू स्कूल में आ गए. अब गुजरात में उर्दू का कोई उपयोग नहीं. मेरी बेटी जो उस वक़्त चार महीने की थी आज छठी कक्षा में है और मुझसे अभी थोड़ा डरती है और अब अम्मी बिस्तर पर है."
सलीम हनीफ
वो बताते हैं, "यह सब इसलिए कि मैं मुसलमान हूँ. कुछ लोग हमारी कौम में ख़राब होंगे और कुछ लोग किसी और कौम में. मैं तो ख़ुद टेररिज़्म के ख़िलाफ़ हूँ और इस देश पर उतना ही गर्व करता हूँ जितना कोई और. मैं मानता हूँ कि भारत देश का ही क़ानून ऐसा है कि देर से सही आपको इंसाफ़ ज़रूर मिलता है. हाँ पर मैंने इसकी बड़ी क़ीमत चुकाई है."
सलीम के छोटे भाई इरफ़ान कहते हैं, "भाई को हिरासत में लेने के कुछ ही महीनों के बाद माँ को हार्ट अटैक आया और उन्हें लकवा मार गया. फिर वह जब भी भाई की तस्वीर देखती या अख़बार में उसके नाम के साथ आंतकवादी शब्द देखती तो पूरे दिन रोती रहती. उसने कई दिनों तक तो खाना छोड़ दिया था और रोजे रखती थीं."
इरफ़ान उस वक़्त 18 साल के थे.
'कोई है जो हमें आगे नहीं आने दे रहा'
जेल से निकलने के बाद सलीम इन दिनों अपने लिए एक दुकान ढूंढ रहे हैं. उन्होंने कहा, "मेरे पास वक़्त बहुत कम है कि मैं अपनी बिखरी हुई ज़िंदगी भी समेट सकूं. अहमदाबाद में अब एक छोटी सी दुकान किराये पर लेकर वापस सिलाई का काम शुरू करूँगा. दुनिया बहुत आगे बढ़ गई है. मैं और मेरे बच्चे बहुत पीछे रह गए."
सलीम अब अहमदाबाद के जूहापुरा इलाक़े में रहते हैं.
वो कहते हैं, "भारत को अब बदलना चाहिए. मैंने एक मुसलमान परिवार में जन्म अपनी पसंद से नहीं लिया था. तो फिर भेदभाव क्यों. अब हमें भी मुख्यधारा में शामिल करना चाहिए. भारत आगे बढ़े उसकी ख़ुशी हमें भी उतनी ही होती है. पर कोई है जो हमें नज़र नहीं आ रहा और वह हमें पीछे रखना चाहता है."
सलीम अपने पिता के साथ
सलीम कहते हैं, "जैसे मेरे पिछले साल गए, ऐसे और किसी के न जाए. हमें जेल में शाम को छह बजे कोठरी में बंद कर दिया जाता था इसलिए मैंने आकाश में तारे पिछले 11 साल से नहीं देखे थे. अब खुले आकाश के नीचे दिल की धड़कन फिर सुनाई दे रही है और मैं आंतकवादी नहीं हूँ इस बात का सुकून है वरना इतनी मार और जेल की कोठरी के भीतर खुद पर से यकीन उठ गया था."
सलीम के वकील खालिद शेख कहते हैं, "सलीम को 29 दिन तक ग़ैरक़ानूनी हिरासत में रखा था और उनके शरीर पर आज भी मार के निशान मौजूद हैं. उसे मारकर और धमकाकर उसका कबूलनामा लिया गया था और यह बात सुप्रीम कोर्ट ने मानी."
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