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मीडिया कवरेज: कुंभ पर कैसी है और तबलीग़ी जमात पर कैसी थी

 


  • चिंकी सिन्हा
  • बीबीसी संवाददाता
हरिद्वार

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" गुरुवार: हरिद्वार के कुंभ मेले में 10 से 14 अप्रैल के बीच 1701 लोग कोरोना पॉज़िटिव पाए गए"

इस वक़्त देश की घटनाओं की दो टाइमलाइन दिख रही हैं. एक मौत और मायूसी से जुड़ी घटनाओं का सिलसिला है तो दूसरी का वास्ता आस्था, त्योहार और जमावड़े से है. इस दूसरे सिलसिले से राजनीतिक नेताओं को कोई परहेज़ नहीं हैं. इस जमावड़े को वे निरापद मानते हैं क्योंकि इसमें शामिल लोगों पर ऊपर बैठे देवता अपनी कृपा बरसा रहे हैं.

दो दुनिया, दो मंज़र

दिल्ली

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पहली टाइमलाइन में श्मशानों के बाहर इंतज़ार कर रहे लोगों का मंज़र है. मरीज़ों के परिजन अस्पतालों के बाहर बेड के लिए टकटकी लगाए खड़े हैं. टेस्ट रिज़ल्ट का इंतज़ार हो रहा है. धड़कते दिलों से लोग ऑक्सीजन और वेंटिलेंटर का इंतज़ार कर रहे हैं. मौतें हो रही हैं.

लोगों की इस दुनिया में फिर एक बार प्रवासी मज़दूरों के हुजूम दिखाई देने लगे हैं. एक बार फिर वे बोरिया-बिस्तर बांध कर ट्रेनों से घर लौटते दिखाई पड़ रहे हैं. इस दुनिया में सब कुछ ग़लत है. इस दुनिया में 'कर्फ्यू' का ऐलान हो रहा है. किसी सामाजिक और धार्मिक समारोह में 50 से ज़्यादा लोगों के इकट्ठा होने पर पाबंदी लगाई जा रही है.

लेकिन दूसरी दुनिया की घटनाओं के सिलसिले में लाखों लोगों के 'पवित्र स्नान' के मंज़र दिख रहे हैं. लोगों का विशाल हुजूम कुंभ मेले में नदियों में डुबकी लगा रहा है. मेनस्ट्रीम मीडिया जिन्हें श्रद्धालु कह रहा है वे नदियों के पानी में अपने पाप धो रहे हैं, जबकि कोविड के केस तूफ़ानी गति से बढ़ते हुए पिछले सारे रिकार्ड तोड़ते जा रहे हैं.

'मानव बम' बनाम 'श्रद्धालु'

हरिद्वार

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ये वो दुनिया है, जिसमें लोग अब भी कोरोना फैलने का ठीकरा तबलीग़ी जमात पर फोड़ रहे हैं. मीडिया और राजनीतिक सत्ता की ओर से अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ जब पूर्वाग्रह के आरोप लगाए जाते हैं, तो तबलीग़ियों को कटघरे में खड़ा किया जाता है. याद कीजिये, जब कोरोना संक्रमण की पहली लहर आई थी तो मुख्यधारा के टेलीविज़न चैनलों ने उन्हें 'मानव बम' कहा था. लेकिन कुंभ में स्नान करने आए लोग श्रद्धालु हैं.

उत्तराखंड के मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत ने मंगलवार को कहा कि हरिद्वार में चल रहे कुंभ मेले की तुलना पिछले साल दिल्ली के निज़ामुद्दीन में तबलीग़ी जमात के मुख्यालय में जमा लोगों से नहीं करनी चाहिए.

उन्होंने पत्रकारों से कहा, "वे (मरकज़ में आए लोग) एक बिल्डिंग के अंदर जमा थे, जबकि कुंभ में आए लोग खुले में रह रहे हैं. और यहां तो गंगा बह रही है. मां गंगा का प्रवाह और आशीर्वाद से कोरोना का संक्रमण दूर ही रहेगा. मां गंगा इसे फैलने नहीं देंगीं. तबलीग़ी जमात के जमावड़े से इसकी तुलना करने का सवाल ही पैदा नहीं होता."

दिल्ली के निज़ामुद्दीन में मरकज़ की इमारत

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दिल्ली के निज़ामुद्दीन में मरकज़ की इमारत

पिछले साल अप्रैल में कई मीडिया चैनलों ने निज़ामुद्दीन मरकज़ में तबलीग़ी जमात के लोगों के धार्मिक आयोजन को निशाना बना कर लगातार एक हैशटेग चलाया था. इस हैशटेग का नाम था- कोरोनाजिहाद. उन्हें ग़ैर ज़िम्मेदार और 'तालिबानी' कहा गया. उन पर 25 मार्च, 2020 से लगाए गए देशव्यापी लॉकडाउन के शुरुआती सप्ताहों में कोरोना संक्रमण फैलाने के आरोप लगाए गए.

इस घटना के बाद मुसलमान दुकानदारों के बहिष्कार की लहर चली. मुसलमानों के ख़िलाफ़ हेट स्पीच की बाढ़ आ गई और ज़्यादातर मेनस्ट्रीम टेलीविज़न मीडिया ने निज़ामुद्दीन मरकज़ में शामिल हुए लोगों को कड़ी सज़ा देने की अपील की.

25 मार्च, 2020 के आसपास जब देश में हर दिन कोरोना के 250 मामले आ रहे थे तो बीजेपी आईटी सेल के अमित मालवीय ने कहा था कि निज़ामुद्दीन में तबलीग़ियों का जुटान अपराध है.

जमाती

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14 अप्रैल को अमित मालवीय ने एक ट्वीट किया, जिसमें उन्होंने कहा, "पिछले 24 घंटे में दिल्ली में कोरोना के 13,468 केस आए हैं. यह मुंबई के 7,873 मामलों से लगभग दोगुने हैं. दिल्ली में कोई चुनाव नहीं है. कुंभ भी नहीं है. यह सब सिर्फ़ दिल्ली में एक नाक़ाबिल मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के रहने की वजह से हो रहा है. लेकिन वह अख़बारों में ख़ूब विज्ञापन दे रहे हैं."

भारत में गुरुवार को कोरोना के दो लाख मामले सामने आए. जब से यह संक्रमण शुरू हुआ, तब से एक दिन में इतने ज़्यादा नए मामले कभी नहीं आए थे. केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक़ बुधवार को संक्रमण के 1,84,372 नए मामले दर्ज किए गए थे. लेकिन गुरुवार को नए संक्रमणों की संख्या 2,00,739 हो गई.

12 और 14 अप्रैल को कुंभ में दो शाही स्नान हुए. 12 अप्रैल को सोमवती अमावस्या और 14 अप्रैल को मेष संक्रांति पर. इनमें 48.51 लोगों ने हिस्सा लिया. लेकिन इनमें से अधिकतर कोविड-19 से बचाव के मानक नियमों का उल्लंघन करते दिखे. न तो लोगों ने मास्क पहने थे और न ही वे सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करते हुए दिख रहे थे.

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हरिद्वार में इस साल का कुंभ मेला 1 अप्रैल को शुरू हुआ था. यह 30 अप्रैल को ख़त्म होगा.

'ईश्वर में आस्था वायरस को ख़त्म कर देगा'

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इस साल पाँच अप्रैल को देश में पहली बार एक दिन में कोरोना संक्रमण के एक लाख मामले रिकार्ड किए गए थे लेकिन छह अप्रैल को उत्तराखंड के सीएम तीरथ सिंह रावत ख़ुद कुंभ में दिखे. उनका मास्क ठुड्डी तक खिसका हुआ था. इससे पहले उन्होंने कहा था कि मेला सबके लिए खुला होना चाहिए.

20 मार्च को उन्होंने ऐलान किया था, "कोविड-19 के नाम पर किसी को भी मेले में आने से नहीं रोका जाएगा. ईश्वर में आस्था वायरस को ख़त्म कर देगा. मुझे इसका पूरा भरोसा है."

जबकि इससे अलग, जो दूसरी दुनिया है, उसमें टेलीविज़न चैनल और ऑनलाइन मीडिया के एंकर पीएम को वैक्सीन गुरु कह कर उनकी वाहवाही कर रहे हैं. उन्हें कुंभ में लोगों के जमावड़े में बहुत ज़्यादा ख़तरा नहीं दिख रहा है. जबकि कुंभ मेलों के विजुअल साफ़ दिखा रहे हैं कि वहां कोविड प्रोटोकॉल की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं.

मीडिया का पुराना रुख़ बदला, लेकिन थोड़ा सा

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भारत की मीडिया के एक बड़े हिस्से को हरिद्वार में 30 अप्रैल तक लोगों को जमा होने देने के सरकार के फ़ैसले पर कोई आपत्ति नहीं थी. लेकिन विदेशी मीडिया कुंभ में इतने लोगों के जुटने पर सवाल उठा रहा है और इसे सुपर स्प्रेडर बता रहा है. वाशिंगटन पोस्ट के एक संपादकीय में लिखा है, "कोविड संक्रमण ने भारत को 'निगल' लिया है लेकिन लोग अभी भी गंगा नदी में बिना मास्क पहने डुबकी लगा रहे हैं."

टाइम मैगज़ीन ने लिखा, "सोमवार की तस्वीरों से पता चलता है कि गंगा में नहाने के लिए लोगों की भारी भीड़ जमा है. लेकिन पुलिस के पास लोगों को सोशल डिस्टेंसिंग के नियमों का पालन करवाने का कोई अधिकार नहीं है."

उत्तराखंड के पुलिस महानिरीक्षक संजय गुंज्याल ने न्यूज़ एजेंसी एएनआई से कहा कि पुलिस ने अगर कुंभ में सोशल डिस्टेंसिंग के नियमों का पालन करवाने की कोशिश की होती तो 'भगदड़ जैसी स्थिति' पैदा हो सकती है. घाटों में सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करवाना बेहद मुश्किल है. दूसरी ओर यही पुलिस दावा कर रही है कि कोविड-19 प्रोटोकोल के उल्लंघन के मामलों को पकड़ने के लिए वह आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस का इस्तेमाल कर रही है.

इसके लिए हरिद्वार में 350 सीसीटीवी कैमरे लगाए गए हैं. इनमें से 100 से ज़्यादा में आर्टफ़िशियल इंटेलिजेंस सेंसर लगे हैं. इन कैमरों में रिकार्ड हो रही तस्वीरों में साफ़ दिख रहा है कि लोग बग़ैर मास्क पहने घूम रहे हैं. सोशल डिस्टेंसिंग के नियमों की धज्जियां उड़ रही हैं.

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पिछली बार 2010 में महाकुंभ हुआ था. पिछले कुछ महीनों में केंद्र और कुछ राज्य सरकारों ने कई ऐसे धार्मिक समारोहों को मंज़ूरी दी है, जिनमें बड़ी तादाद में लोग जुटे. इन आयोजनों को लेकर भी लोगों ने सोशल मीडिया पर सवाल उठाए. कुछ मीडियाकर्मियों का कहना है कि अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ पूर्वाग्रह दिखाया जा रहा है.

अल-जज़ीरा ने अपनी रिपोर्ट में इस मामले में अचरज जताते हुए कहा है, क्या पीएम नरेंद्र मोदी ने धार्मिक नेताओं के विरोध के डर से इन आयोजनों में लोगों को जुटने पर रोक नहीं लगाई? देश की मीडिया का बड़ा हिस्सा इस मामले पर चुप था. हालांकि, अब कुछ मुट्ठी भर संपादकों ने इस पर सवाल उठाना शुरू किया है.

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गुरुवार को इंडिया टुडे ग्रुप के राहुल कंवल ने ट्वीट कर कहा, "सरकार को कुंभ मेला और इसके जैसे किसी भी बड़े जमावड़े पर सख़्त पाबंदी लगानी चाहिए. राजनीतिक पार्टियों की रैली पर भी रोक लगे. जब कोरोना संक्रमण इस तेज़ रफ़्तार से बढ़ रहा तो इस तरह के जमावड़े हाराकिरी की तरह हैं. ऐसी मूर्खताओं को कोई भी भगवान माफ़ नहीं करेगा. ज़िंदगियां वोटों से ज़्यादा क़ीमती हैं. "

वरिष्ठ पत्रकार अभिसार शर्मा कहते हैं कि पत्रकारों के रुख़ में थोड़ा सा बदलाव आया है क्योंकि उनमें से कई लोगों के घर पर कोरोना ने दस्तक दी है. बिहार और यूपी में वे हेल्थ इन्फ्रास्ट्रक्चर ढहने का मंज़र ख़ुद अपनी आंखों से देख रहे हैं.

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कुंभ के मेनस्ट्रीम मीडिया के कवरेज के बारे में वह कहत हैं कि यहां तो पूरी तरह से सांप्रदायिक नज़रिये से चीज़ें दिखाई और कही जा रही हैं.

अभिसार शर्मा कहते हैं, "निज़ामुद्दीन में तबलीग़ी जमात के लोगों के जुटान से पहले दिल्ली में दो घटनाएं हो चुकी थीं. शाहीनबाग़ में सीएए के ख़िलाफ़ प्रदर्शन चल रहा था और इसके बाद इसे ही लेकर दिल्ली में दंगे हो चुके थे. शाहीन बाग़ के प्रदर्शन और दिल्ली में हुए दंगों में मीडिया सत्ताधारी पार्टी के एजेंडे को ही दिखा रहा था. बीजेपी की प्रोपगंडा मशीनरी मुस्लिमों के सामाजिक बहिष्कार का एजेंडा चला रही थी. तबलीग़ी जमात के मामले में इसके इस तरह के प्रोपंगडा की पोल खुल गई. दरअसल भारत के मेनस्ट्रीम मीडिया और बीजेपी के प्रोपगंडा मशीनरी में कोई अंतर ही नहीं रह गया है. कुंभ के मामले में हिंदुत्व का ब्रैकग्राउंड जो बीजेपी के एजेंडे के मुफ़ीद है. कुंभ कोविड का सुपर स्प्रेडर बन गया है. लेकिन मीडिया सत्ताधारी पार्टी से सवाल नहीं कर रहा है. मैं शर्त लगा सकता हूं कि रमज़ान के दौरान कोई धार्मिक समारोह हुआ तो यही मीडिया गला फाड़-फाड़ कर चिल्लाएगा. कुंभ पर सवाल किया तो बीजेपी के एजेंडे को चोट नहीं पहुँचेगी?

वह कहते हैं, दरअसल इस खेल की कई परतें हैं. मीडिया में यह जो पूर्वाग्रह दिख रहा है वह इसी का नतीजा है. इसका काफ़ी कुछ संबंध देश के न्यूज़रूम में मीडिया डाइवर्सिटी के अभाव से जुड़ा है.

अभिसार कहते है, "भारत के न्यूज़रूम में काम करने वाले अधिकतर पत्रकार ऊंची जातियों के हैं. बीजेपी की विचारधारा से एक तरह से उनकी सहमति है. पत्रकारों में डर भी है. बीजेपी कई तरीक़ों से दबाव डालती है. यह मीडिया रेडियो रवांडा की तरह काम कर रहा है. यह जर्मनी के गेस्टापो की तरह ही है."

पिछले साल, अल्पसंख्यक मंत्री मुख्तार अब्बास नक़वी ने कहा था कि तबलीग़ी जमात ने अपने अनुयायियों को निज़ामुद्दीन के मरकज़ में शामिल होने की इजाज़त देकर 'तालिबानी जुर्म' किया है.

जब भारत में कोरोना संक्रमण फैला हुआ हो तो तबलीग़ी जमात की ओर से अपने अनुयायियों को पूरे देश में घूमने के लिए बढ़ावा देना अपराध है. लेकिन कुंभ को लेकर यह रुख़ बदला हुआ दिखा. इस मुद्दे पर चुप्पी दिख रही है या फिर बचाव में बयान दिए जा रहे हैं.

'मीडिया तबलीग़ी मामलों में भी दोषी और कुंभ मामले में भी'

दक्षिणपंथी मासिक प्रिंट मैगज़ीन और न्यूज़ पोर्टल 'स्वराज्य' की सीनियर एडिटर स्वाति गोयल शर्मा कहती हैं, "देखिये, भारत में कई धर्म हैं. उनके बीच एक प्रतिस्पदर्धा भी है. 'भीड़' के लिए किसी धार्मिक समुदाय को दोष देना मूर्खता है. सिर्फ़ कुंभ में ही तो लोग नहीं जुट रहे हैं. वैशाखी पर गुरुद्वारों में भीड़ दिख रही है. रमज़ान में मस्जिदों में भी काफ़ी लोग दिख रहे हैं. हर जगह हज़ारों की भीड़ है. बिना सोशल डिस्टेंसिंग के और मास्क पहने लोग जुट रहे हैं."

शर्मा कहती हैं, "सरकार या तो सभी धार्मिक आयोजनों में लोगों के जुटने पर पाबंदी लगा दे या फिर पूरी तरह इसकी इजाज़त दे दे. नहीं तो इस पर धार्मिक पक्षपात का आरोप लगेगा. इससे सांप्रदायिक तनाव पैदा हो सकता है. इस साल होली का त्योहार लोगों ने ज़्यादातर घर पर ही मनाया. सार्वजनिक आयोजन कम ही हुए. टाइम्स ऑफ़ इंडिया की एक ख़बर के मुताबिक़ जब मुंबई महानगरपालिका के प्रमुख ने होली पर सार्वजनिक और निजी समारोहों की इजाज़त नहीं दी और कहा कि शब-ए-बरात मनाई मानी जा सकती है. उम्मीद है लोग इसे बड़े स्तर पर नहीं मनांएगे, तो लोगों ने सोशल मीडिया पर इसकी काफ़ी आलोचना की."

शर्मा के हिसाब से अंतरराष्ट्रीय मीडिया में कुंभ के बारे में उसी तरह की ख़बरें आ रही हैं, जिस तरह तबलीग़ी जमात के मामले पर आ रही थीं.

वह कहती हैं, "गूगल पर 'कुंभ' टाइप करने के बाद न्यूज़ सेक्शन में जाइए तो आपको ज्यादातर ख़बरें कोरोना के भय को लेकर मिलेंगीं. अंतररराष्ट्रीय मीडिया इस तरह की हेडलाइन के साथ कुंभ को कवर कर रहा है- "कोरोना फैलने के बीच भारत के हिंदू त्योहार पर भारी जमावड़ा".

वह कहती हैं कि जिस तरह से पिछले साल तबलीग़ी जमात को कोरोना संक्रमण फैलाने का दोषी ठहराया गया था ठीक उसी तरह का रुख़ इस बार मीडिया का एक वर्ग कुंभ को लेकर दिखा रहा है. मीडिया का एक हिस्सा कुंभ के जमावड़े को सुप्रीम स्प्रेडर बता कर उस पर इकतरफ़ा आरोप लगा रहा है.

शर्मा कहती हैं, "पश्चिमी उत्तर प्रदेश के शहर बरेली में पिछले सप्ताह शुक्रवार को एक बड़ा जुलूस निकाला गया. हज़ारों लोग शामिल थे. यह रैली ग़ाज़ियाबाद के एक शख्स के ख़िलाफ़ निकाली गई, जिसने पैग़ंबर मोहम्मद की आलोचना करते हुए बयान दिए थे. उस शख्स का सर काट कर लाने के नारे लगाए जा रहे थे- 'गुस्ताख़-ए-रसूल की एक ही सज़ा, सर तन से जुदा, सर तन जुदा. प्रशासन ने आयोजकों से इस रैली रद्द करने की अपील की थी. प्रशासन ने कहा था कि आयोजक सिर्फ़ अपना मेमोरेंडम उसे दे दें. लेकिन आयोजकों ने बात नहीं मानी और पूरे बरेली में मार्च निकाली गई. इसमें शामिल होने के लिए आसपास के कई ज़िलों से लोग आए थे. अब अगर यूपी में कोविड के केस बढ़ेंगे तो आप कहां की भीड़ को इसका ज़िम्मेदार ठहराएंगीं."

लेकिन मीडिया वॉचडॉग द हूट की सेवंती नायनन कहती हैं, "कोरोना की दूसरी लहर की अनदेखी कर कुंभ में हो रहे जमावड़े को लेकर मीडिया में जो लिखा या बोला जा रहा है, उसमें यह साफ़ दिख रहा है कि उसमें वह तीखापन नहीं है, जो पिछले साल तबलीग़ी जमात के जमावड़े को लेकर दिखा था. सांप्रदायिकता को भड़काने के लिए कोई सांप्रदायिक जुमला भी ट्विटर पर नहीं उछाला जा रहा है. ऐसा इसलिए हो रहा कि पिछले साल सीएए और दिल्ली दंगों को लेकर माहौल बेहद गर्म था और कुछ हद तक बीजेपी के कुछ मुखर नेताओं ने लगातार शाहीन बाग़ के प्रदर्शनकारियों और सीएए के विरोधियों के ख़िलाफ़ अभियान छेड़ रखा था. लेकिन इस बार बग़ैर किसी सावधानी के कुंभ में हो रहे जमावड़े के ख़िलाफ़ कोई राजनीतिक नेता या पार्टी उस तरह सामने नहीं आई है, जैसा पिछली बार सीएए प्रदर्शनकारियों के ख़िलाफ़ आए थे."

हां, अब मेनस्ट्रीम मीडिया के कुछ एंकरों ने कुंभ में 'पवित्र स्नान' पर सवाल उठाने शुरू किए हैं.

टाइम्स नाऊ की नाविका कुमार ने इस जमावड़े के बारे में कहा कि भारत इस वक़्त इस तरह की 'गंभीर परिस्थितियों' का सामना कर रहा है. कुमार ने सरकार की अनुमति से हो रहे इस तरह के धार्मिक जमावड़े और राजनीतिक रैलियों के बारे में बात की.

लेकिन एनडीटीवी ज़्यादा खुल कर बोला. उसने कहा कि जब बोर्ड की परीक्षाएं टाली जा रही हैं तो कोरोना लहर की दूसरी लहर के बीच लाखों लोगों को कुंभ में जुटने की इजाज़त कैसे दी जा सकती है. वह भी उस स्थिति में जब सारे विशेषज्ञ कह रहे हैं कि कोरोना की दूसरी लहर पहले से ज़्यादा ख़तरनाक है .

एनडीटीवी एंकर सुशील बहुगुणा ने कहा, "बोर्ड की परीक्षाएं टालने का फ़ैसला अच्छा है लेकिन हरिद्वार में कुंभ मेला पर कोई फ़ैसला क्यों नहीं हो रहा है जहां लाखों लोग जुट रहे हैं.?"

'सवालों को हिंदू-मुस्लिम के चश्मे से देख रहा मीडिया'

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मरकज़, निज़ामुद्दीन, दिल्ली

मीडिया पर नज़र रखने वाले टिप्पणीकार और माखनलाल चतुर्वेदी यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर मुकेश कुमार कहते हैं कि मीडिया में भगवाकरण हो गया है. उसे बेहद तेज़ी से फैल रहे कोरोना वायरस संक्रमण से फैले गंभीर हालातों की कोई चिंता नहीं है. उसकी चिंता तो सिर्फ़ सत्ताधारी पार्टी के एजेंडे को फ़ॉलो करना है."

वह कहते हैं, "वे चीज़ों को सिर्फ़ हिंदू-मुस्लिम के चश्मे से देखते हैं. जब तबलीग़ी जमात का मामला आया तो मीडिया ने लगभग हिंसा की हालत पैदा कर दी. जबकि पिछले कुछ महीनों में कई धार्मिक आयोजनों पर लोगों का जमावड़ा देखने को मिला है. दूसरे धर्म का मामला हो तो चश्मा बदल जाता है. हिंदू त्योहारों, आयोजनों पर होने वाले जमावड़े का वो बचाव करने लगते हैं. लेकिन वे ये नहीं समझते कि इस तरह के जमावड़े हिंदुओं के भी ख़िलाफ़ हैं क्योंकि आख़िरकार इससे उनको ही नुक़सान होगा. यह पत्रकारिता नहीं है. यह प्रोपगंडा मशीनरी है और इसका लोकतंत्र से कोई मतलब नहीं है. मुस्लिमों के ख़िलाफ़ मीडिया में हमेशा से एक पूर्वाग्रह रहा है लेकिन पहले नेशनल मीडिया में कुछ नियम-क़ानून थे. लेकिन अब ऐसा नहीं है. ऐसा लग रहा है कि हम हिटलर के शासन वाले जर्मनी में रह रहे हैं."

अभिसार शर्मा कहते हैं, "जिसे गोदी मीडिया कहा जाता है कि उसकी विश्वसनीयता गिर गई है. लोगों के पास अब ख़बरों के वैकल्पिक स्रोत हैं. लोग विश्वसनीयता के लिए अब वैकल्पिक मीडिया की ओर रुख़ कर रहे हैं."

वह कहते हैं, "आम लोगों से बात करने पर पता चल जाता है कि वे इसे भारी तबाही का मेला मान रहे हैं. उन्हें इसकी समझ है. उनकी बातों में तार्किकता है. लेकिन कुछ लोग 'भक्त' हैं. ऐसे ही लोग कुंभ में जमावड़े का समर्थन कर रहे हैं. सोशल मीडिया और डिजिटल मीडिया में लोग सच बता रहे हैं."

एक न्यूज़ चैनल के मशहूर संपादक का मानना है कि मीडिया सही सवाल नहीं कर रहा है. उन्होंने नाम न छापने का अनुरोध किया. वह एक ऐसे मीडिया ग्रुप में काम करते हैं, जिसकी अक्सर एकतरफ़ा रिपोर्टिंग की आलोचना होती रही है.

पिछले साल इसके कई एंकरों ने मुस्लिमों के पूरी तरह बहिष्कार की अपील की थी.

इस संपादक का कहना है, "देखिए यहां एक बाइनरी चलती है- हिंदू का प्रश्न, मुस्लिम का प्रश्न, जैसे उनके किडनी और लीवर अलग-अलग हों. अखिलेश यादव कुंभ क्यों गए? आप उन्हें जाने की इजाज़त कैसे दे सकते हैं. तबलीग़ी जमात को अगर आप ग़लत कह रहे हैं तो अखिलेश यादव का कुंभ जाना सही कैसे हो सकता है?"

ख़बरों में तू-तू मैं-मैं जारी है. 'पवित्र स्नान' और 'श्रद्धालु' को लेकर एक दूसरे से सवाल किए जा रहे हैं. लेकिन अब शायद मेनस्ट्रीम मीडिया अपने रुख़ में थोड़ा बदलाव दिखा रखी है.

टाइम्स नाऊ ने आख़िरकार #StopSuperSpreader हैशटेग चला कर इस तरह के जमावड़े पर अपना रुख़ ज़ाहिर किया है. लेकिन मेनस्ट्रीम मीडिया अभी तक साधुओं और कुंभ में शामिल दूसरे लोगों के लिए "मानव बम" "कोरोना संग्राम" या "कोरोना जिहाद" जैसे जुमला इस्तेमाल करने का साहस नहीं कर सकी है. उसके लिए ये लोग अभी भी 'तीर्थयात्री' 'श्रद्धालु' और 'भक्त' ही बने हुए हैं.

अक्सर यह मीडिया आम लोगों पर कोविड-19 के प्रोटोकोल का पालन न करने का आरोप लगाती रहती है. उनकी ख़बरों में यह लाइन चलती है, "कोविड-19 प्रोटोकोल की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं."

लेकिन राजधानी दिल्ली के बैठकख़ानों में अभी भी कई लोग तबलीग़ियों पर तोहमत लगा रहे हैं.

इस तथ्य के बावजूद कि कोर्ट ने उन्हें कोरोना संक्रमण फैलाने के आरोप से बरी कर दिया. अदालत ने तबलीग़ियों पर मीडिया के रुख़ की भी आलोचना की है.

बॉम्बे हाईकोर्ट की औरंगाबाद बेंच ने 22 अगस्त, 2020 को तब्लीग़ी जमात के 29 विदेशी सदस्यों समेत कई व्यक्तियों के ख़िलाफ़ दर्ज एफ़आईआर रद्द कर दी थी. अदालत ने अपने फ़ैसले में पुलिस, सरकार और मीडिया पर सख़्त टिप्पणी की थी.

कोर्ट ने कहा था कि इस मामले में तब्लीग़ी जमात के लोगों को 'बलि का बकरा' बनाया गया. कोर्ट ने मीडिया को लेकर भी तल्ख़ टिप्पणी की थी और कहा था कि तब्लीग़ी जमात को कोरोना वायरस संक्रमण का ज़िम्मेदार बताकर प्रोपेगैंडा चलाया गया था.

जस्टिस टीवी नलावडे और जस्टिस एमजी सेवलिकर की डिवीज़न बेंच ने कहा था, "भारत में संक्रमण के ताज़े आंकड़े दिखाते हैं कि याचिकाकर्ताओं के ख़िलाफ़ ऐसे ऐक्शन नहीं लिए जाने चाहिए थे. विदेशियों के ख़िलाफ़ जो ऐक्शन लिया गया, उसकी क्षतिपूर्ति के लिए सकारात्मक क़दम उठाए जाने की ज़रूरत है."

भारतीय मीडिया की आलोचना करते हुए अदालत ने कहा था, "दिल्ली के मरकज़ में आए विदेशी लोगों के ख़िलाफ़ प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में प्रोपेगैंडा चलाया गया. भारत में फैले कोविड-19 संक्रमण का ज़िम्मेदार इन विदेशी लोगों को ही बनाने की कोशिश की गई. तब्लीग़ी जमात को बलि का बकरा बनाया गया."

दिल्ली के उन्हीं घरों के दूसरे कमरे में लोग मर रहे हैं और कई दूसरे कमरों में कुछ लोग अब भी उन टेलीविज़न चैनलों को देख रहे हैं जो आम जनता पर दोष मढ़ते हैं. सरकार पर आरोप कभी नहीं मढ़ते. नाम न छापने का अनुरोध करने वाले एक और पत्रकार ने कहा कि सत्ता के बारे में सच कहना अब बीते दिनों की बात हो गई है.

वह कहते हैं, "अब तो यहां लोगों की मौतें भी नहीं दिखतीं."

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